Monday, July 7, 2014

क्या देश का रूपांतरण कर पाएगी मोदी सरकार?

इस बारे में कभी दो राय नहीं थी कि देश के भीतर काले धन की जबर्दस्त समांतर व्यवस्था काम करती है और लगभग 70 फीसदी कारोबार हिसाब-किताब के बाहर होता है। आज अमर उजाला ने एक सरकारी रिपोर्ट का हवाला देते हुए एमके वेणु की खबर छापी है। पिछले कुछ वर्षों में विदेशी बैंकों में जमा काले धन को लेकर जो चर्चा शुरू हुई है उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। चूंकि काले धन का रिश्ता अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से रहा है इसलिए दुनिया का ध्यान इस ओर गया है। इस चक्कर में भारतीय काले धन का जिक्र भी हुआ है। सच यह है कि भारतीय राज-व्यवस्था बेहद कमजोर है। देश के भीतर के सारे कारोबार को राज-व्यवस्था की निगहबानी में लाया जा सके तो राजकोषीय समस्याओं के समाधान संभव हैं। ध्यान दें कि हमारी राजनीति सामंती ढाँचे में रची-बसी है। वह बड़े स्तर के कर सुधार और व्यवस्थागत बदलाव होने से रोकेगी। इस प्रकार वह अपने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा करने में सफल है। आज के अखबारों में बजट सत्र को लेकर खबरें हैं। इस सत्र में स्पष्ट होगा कि मोदी सरकार किस हद तक देश के रूपांतरण में बड़ी भूमिका निभाने वाली है। आज की कुछ खास कतरनों पर नजर डालें

विदेश से ज्यादा देश में कालाधन
एमके वेणु
सोमवार, 7 जुलाई 2014
आम चुनाव के दौरान भले ही विदेश में कालाधन का मुद्दा गरमाया हो मगर देश में मौजूद कालेधन की हकीकत मोदी सरकार को अंदरखाने हिलाने के लिए काफी है।

कालेधन पर सरकार की 1000 पेज की सनसनीखेज रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल अर्थव्यवस्था (जीडीपी) का करीब 71 फीसदी तक कालाधन है। इसके हिसाब से करीब 2000 अरब डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था के समानांतर 1400 अरब डॉलर का कालेधन का कारोबार है।

इन आंकड़ों को अगर रुपये में देखें तो 120 लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था के समानांतर 83 लाख करोड़ रुपये का कालेधन का कारोबार है। पूरी खबर पढ़ें यहाँ


Sunday, July 6, 2014

कथनी और करनी की परीक्षा

इस हफ्ते पेश होने वाले रेल बजट और फिर आम बजट पर केवल भारत के लोगों की निगाहें नहीं हैं। सारी दुनिया की निगाहें है। एक दशक बाद ऐसी सरकार आई है जो वैश्वीकरण, तकनीकी विकास, शहरीकरण और आर्थिक संवृद्धि के पक्ष में खुलकर बोल रही है। भारत के बाहर यूरोप, अमेरिका से लेकर चीन और जापान जैसे देशों तक की इन दोनों बजटों पर निगाहें हैं। इसकी वजह है भरत में बड़े स्तर पर इनफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश का समय आ रहा है। मोदी सरकार ने रक्षा और रेलवे में भारी निवेश का संकेत तो दिया है साथ ही विदेशी पूँजी निवेश पर लगी बंदिय़ों को हटाने का इरादा भी ज़ाहिर किया है। देश में आर्थिक उदारीकरण का श्रेय अभी तक सन 1991 की कांग्रेस सरकार को और खासतौर से मनमोहन सिंह को दिया जा रहा था। संयोग है कि वही मनमोहन सरकार इसबार आर्थिक और प्रशासनिक सवालों को लेकर ढेर हो गई और मोदी सरकार उन्हीं सूत्रों को लेकर आगे बढ़ रही है, जिसका दावा मनमोहन सिंह करते रहे, पर उन्हें पूरा करके नहीं दिखा पाए।

नरेंद्र मोदी के बारे में गिरीश कर्नाड की ताज़ा राय

गिरीश कर्नाड ने कहा है कि नरेंद्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री हैं, और इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए। गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुई हिंसा के बारे में मैं अपनी राय व्यक्त कर चुका हूँ। पर उसके बाद से वहाँ ऐसी कोई घटना नहीं हुई जो उन्हें बदनाम करे। ...आलोचना के बावजूद देश ने मोदी को जिताया। यह लोकतंत्र की खूबसूरती है। जनता की कांग्रेस के शासन को लेकर नाराजगी थी और मोदी की जीत के पीछे यह सबसे बड़ा कारण है। कर्नाटक के धारवाड़ में हुए एक समारोह के दौरान उन्होंने बातचीत में उन्होंने आशा व्यक्त की कि मोदी जनता की उम्मीदों को पूरा करेंगे। कर्नाड की इस बात का मतलब जो भी हो, कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने कहा कि मैं कर्नाड की राय से सहमत नहीं। यह खबर आज के टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदू में छपी है। दोनों में खबर लिखने का ढंग कुछ फर्क है। मोटी बात है कि कर्नाड ने मोदी की उस कड़वे ढंग से आलोचना नहीं की है, जिसकी कुछ लोग उनसे उम्मीद करते हैं। दूसरे उन्होंने लोकतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान करने की सलाह दी है। मेरे विचार से यह संतुलित दृष्टिकोण है, पर जो लोग 'धारदार' नज़रिया रखते हैं या जिनकी पक्षधरता सीधे-सीधे राजनीतिक विचारधारा से जुड़ी है, उन्हें इस वक्तव्य के बारे में राय बनाने में असमंजस होगा। मुझे कर्नाड न तो मतलब परस्त लगते हैं और न भ्रमित। नीचे दोनों खबरें दी हैं। आप अपने निष्कर्ष निकालें
टाइम्स ऑफ इंडिया

One-time detractor Girish Karnad now hails PM Modi’s ‘good work’

One-time detractor Girish Karnad now hails PM Modi’s ‘good work’Karnad attributed Modi’s success to the people’s desire for change.
DHARWAD/BANGALORE: Playwright and director GirishKarnad on Saturday said Prime Minister NarendraModi is doing a good job and hoped he would fulfil the people's aspirations.
Speaking on the sidelines of a function here, the Jnanpith awardee said: "Narendra Modi is our Prime Minister, and we should accept it. I had expressed reservations about the post-Godhra carnage in Gujarat when Modi was chief minister. But after that, there have been no incidents to bring him a bad name. He has provided good governance."
Karnad attributed Modi's success to the people's desire for change. "The people's disappointment over the performance of the Congress government at the Centre contributed greatly to Modi's success," he noted.
The country gave Modi a mandate, criticism against him notwithstanding. "People's thinking across the nation was alike. That's the beauty of democracy."
On the performance of the Congress government in Karnataka, he said the people had elected the party to power and he respects their verdict. He refused to comment on the Siddaramaiah ministry's performance.
Karnad's remarks are a far cry from his stance in the run-up to the Lok Sabha elections this year when he, along with writer UR Ananthamurthy, spoke out strongly against Modi.

हिंदू

Not correct to oppose Modi now: Karnad

DHARWAD, July 6, 2014
Jnanpith Award winner Girish Karnad said here on Saturday that it was not correct to oppose Prime Minister Narendra Modi as he had been democratically elected by the people of the country.
Replying to questions from presspersons about his stand on Mr. Modi whom he had opposed during the elections, Mr. Karnad said he had opposed Mr. Modi, who was the Bharatiya Janata Party’s prime ministerial candidate, and also campaigned for the Congress candidate from the Bangalore South Parliamentary constituency, Nandan Nilekani, during the elections. But now, Mr. Modi was the head of the government.
People’s verdict
“As citizens we have to respect the people’s verdict and give due respect to our elected Prime Minister. We are living in a democratic system, and I cannot say I will not accept him as Prime Minister,” Mr. Karnad said.
He added that it would be too early to say anything about the style of functioning of the Modi government. “Let us give him time,” he said.

यह खबर मुझे कन्नड़ प्रभा अखबार में नहीं दिखाई दी। विजय कर्नाटक में मिली, जो ईपेपर में थी। उसे मैं पढ़ नहीं पाता हूँ। वैबसाइट पर नहीं मिली जहाँ मैं उसका ऑटो अंग्रेजी अनुवाद पढ़ सकता है। चूंकि यह टाइम्स समूह का अखबार है इसलिए संभव है यह खबर भी टाइम्स ऑफ इंडिया जैसी हो।


Saturday, July 5, 2014

मंगलयान से गरीब को क्या मिलेगा?

भारत का मंगलयान अपनी तीन चौथाई यात्रा पूरी कर चुका है। उसके मार्ग में तीसरा संशोधन 11 जून को किया गया। अब अगस्त में एक और संशोधन संभावित है। उसके बाद सितंबर के पहले हफ्ते में यह यान मंगल की कक्षा में प्रवेश कर जाएगा। इस आशय की पोस्ट मैने फेसबुक पर लगाई तो किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, सहज भाव से कुछ मित्रों ने लाइक बटन दबा दिया। अलबत्ता दो प्रतिक्रियाओं ने एक पुराने सवाल की ओर ध्यान खींचा। एक प्रतिक्रिया थी कि फिर क्या हो जाएगा? आम आदमी की जिंदगी बेहतर हो जाएगी? एक और प्रतिक्रिया थी कि वहाँ से सब अच्छा ही दीखेगा। दोनों प्रतिक्रियाओं के पीछे इस बात को लेकर तंज़ है कि हमारी व्यवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण बातों को भूलकर इन निरर्थक कामों में क्यों लगी रहती है। अक्सर कहा जाता है कि भारत की दो तिहाई आबादी के लिए शौचालय नहीं हैं। और यह भी कि देश के आधे बच्चे कुपोषित हैं। मंगलयान से ज्यादा जरूरी उनके पोषण के बारे में क्या हमें नहीं सोचना चाहिए? वास्तव में ये सारे सवाल वाजिब हैं, पर सोचें कि क्या ये सवाल हम हरेक मौके पर उठाते हैं? मसलन जब हमारे पड़ोस में शादी, बर्थडे, मुंडन या ऐसी ही किसी दावत पर निरर्थक पैसा खर्च होता है तब क्या यह सवाल हमारे मन में आता है?

गरीब देश को क्या यह शोभा देता है?

क्या मंगलयान भेजने जैसे काम जनता के किसी काम आते हैं? पहली नजर में लगता है कि यह सब बेकार है। सवाल है कि क्या भारत जैसे गरीब देश को अंतरिक्ष कार्यक्रमों को हाथ में लेना चाहिए? मंगलयान अभियान पर 450 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इस राशि की तुलना अपने शिक्षा पर होने वाले खर्च से करें। सन 2013 के बजट में वित्तमंत्री ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए 65,867 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा। सर्वशिक्षा अभियान के लिए 27,258 करोड़ और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 3,983 करोड़ रुपए।इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते हैं। पहली नज़र में बात तार्किक लगती है। सामाजिक क्षेत्र में हमारी प्रगति अच्छी नहीं है। एशियाई विकास बैंक के सोशल प्रोटेक्शन इंडेक्स में भारत का 23वाँ स्थान है। इस इंडेक्स में कुल 35 देश शामिल हैं। हमारे देश में औसतन हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। इस बात का दूसरा पहलू भी देखें। शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों के क्षेत्र में आते हैं। उसके लिए राज्य सरकारों के बजट भी हैं। माध्यमिक शिक्षा में काफी बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र भी शामिल हो चुका है। अंतरिक्ष अनुसंधान पर कौन खर्च करेगा?

अब कुछ दूसरी संख्याओं को देखें। करन जौहर की फिल्म शुद्धि का बजट 150 करोड़ रुपए है। एंथनी डिसूजा की फिल्म 'ब्लू' और शाहरुख की 'रा वन' का भी 100 करोड़। तीन या चार फिल्मों के बजट में एक मंगलयान! औसतन 25,000 बच्चों को शिक्षा। फिल्में बनाना बंद कर दें तो क्या साल भर में सारे लक्ष्य हासिल हो जाएंगे? भारत जिस मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट को खरीदने जा रहा है उस एक विमान की कीमत है 1400 करोड़ रुपया। भारत 126 विमान खरीदेगा और इसके बाद 63 और खरीदने की योजना है। इनकी कीमत जोड़िए। भारत ही नहीं सारी दुनिया को यह सोचना चाहिए कि युद्ध का जो साजो-सामान हम जमा कर रहे हैं क्या वह निरर्थक नहीं? पर दूसरी तरफ सोचें। क्या युद्ध रोके जा सकते हैं? आखिर युद्ध क्यों होते हैं? कोई साजिश है या इंसानियत की नासमझी या कुछ और? वास्तव में नैतिक आग्रहों से भरे सवाल करना आसान है, पर व्यावहारिक स्थितियों का सामना करना दूसरी बात है। युद्ध एक दर्शन है। नीति और अनीति दो धारणाएं हैं। इनका द्वंद अभी तक कायम है। क्यों नहीं दुनिया भर में सुनीति की विजय होती? क्यों अनीति भी कायम है?

क्या मिलेगा अंतरिक्ष में घूमती चट्टानों, धूल और धुएं में?

 मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? अमेरिका और रूस वाले यह काम कर ही रहे हैं। पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर क्या मिला? यह सवाल उन मनों में भी है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी कवरेज से बाहर निकल कर सोचने-समझने की फुरसत है। सवाल है अमेरिका और रूस को भी क्या पड़ी थी? पर उससे बड़ा सवाल है कि मनुष्य क्या खोज रहा है? क्यों खोज रहा है और उसका यह खोजना हमें कहाँ ले जा रहा है? यह सवाल मनुष्य के विकास और उससे जुड़े सभी पहलुओं की ओर हमारा ध्यान खींचता है। वैज्ञानिक, औद्योगिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वगैरह-वगैरह।

मानवता से जुड़े सवाल अपनी जगह हैं और देश से जुड़े सवाल दूसरी तरफ हैं। भारत के लिहाज से वैज्ञानिक शोध के अलावा आर्थिक कारण भी हैं। दुनिया का स्पेस बाज़ार इस वक्त तकरीबन 300 अरब डॉलर का है। इसमें सैटेलाइट प्रक्षेपण, उपग्रह बनाना, ज़मीनी उपकरण बनाना और सैटेलाइट ट्रैकिंग वगैरह शामिल हैं। टेलीकम्युनिकेशन के साथ-साथ यह दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता कारोबार है। हमने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सही समय से प्रवेश किया और आज हम दुनिया के लीडर हैं। स्पेस टेक्नॉलजी में भी हम सफलता हासिल कर सकते हैं। हमारा पीएसएलवी रॉकेट दुनिया के सबसे सफलतम रॉकेटों में एक है और उससे प्रक्षेपण कराना सबसे सस्ता पड़ता है। वैसे ही जैसे हमारे डॉक्टर दुनिया में सबसे बेहतरीन हैं और भारत में इलाज कराना सबसे सस्ता पड़ता है।

तकनीक की जरूरत

विज्ञान का एप्लाइड रूप है तकनीक। यह सामाजिक जरूरत पर निर्भर करता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करें। यह तकनीक गर्दन काटने वाला चाकू बनाती है और डॉक्टर की मदद करने वाला नश्तर भी। एटम बम बनाती है और उससे बिजली या चिकित्सा करने वाली दवाएं भी। सवाल है कि क्या हाईएंड तकनीक हासिल करने की कोशिशें बंद कर देनी चाहिए? ऊँची इमारतें बनाने की तकनीक विकसित करना बंद करें, क्योंकि लोगों के पास रहने को झोंपड़ी भी नहीं है। शहरों में मेट्रो की क्या ज़रूरत है, जबकि पैदल चलने वालों के लिए सड़कें नहीं हैं। बसें और मोटर गाड़ियाँ बनाना बंद कर देना चाहिए? इनसे रिक्शा वालों की रोज़ी पर चोट लगती है। 

वास्तव में अपनी फटेहाली का समाधान हमें जिस स्तर पर करना चाहिए, वहाँ पूरी शिद्दत से होना चाहिए। एक समझदार और जागरूक समाज की यही पहचान है। आप मंगलयान की बात छोड़ दें। हम चाहें तो भारत के एक-एक बच्चे का सुपोषण संभव है। हरेक को रहने को घर दिया जा सकता है। कहीं से अतिरिक्त साधन नहीं चाहिए। मंगल अभियान हमें अपने इलाके को साफ-सुथरा रखने और पड़ोस के परेशान-फटेहाल व्यक्ति की मदद करने से नहीं रोकता। राजनीतिक स्तर पर यदि सरकार से कुछ कराना है तो नागरिक प्राथमिकता तय करें और सालाना बजट के मौके पर इन सवालों को उठाएं। पर यह भी देखें कि ऊँची तकनीक का गरीबी से बैर नहीं है। मोबाइल टेलीफोन शुरू में अमीरों का शौक लगता था। आज गरीबों का मददगार है। इन 450 करोड़ के बदले हजारों करोड़ रुपए हम हासिल करेंगे।

भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है। उसकी तकनीक भी विकसित नहीं है। पर इस वक्त नाइजीरिया के तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के प्रयास में है। उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की जानकारी देने का काम कर रहे हैं। उसने ब्रिटेन, रूस और चीन की मदद ली है। उसके पास न तो रॉकेट हैं और न रॉकेट छोड़ पाने की तकनीक। उसकी ज़मीन के नीचे पेट्रोलियम है। उसकी तलाश से जुड़ी और सागर तट के प्रदूषण की जानकारी उसे उपग्रहों से मिलती है। नाइजीरिया के अलावा श्रीलंका, बोलीविया और बेलारूस जैसे छोटे देश भी अंतरिक्ष विज्ञान में आगे रहने को उत्सुक हैं। दुनिया के 70 देशों में अंतरिक्ष कार्यक्रम चल रहे हैं, हालांकि प्रक्षेपण तकनीक थोड़े से देशों के पास ही है।

व्यावहारिक दर्शन

पिछले साल उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान लेता। पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया। 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा लोग मरे थे। अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार यहाँ तक कि सुरक्षा में होता। विज्ञान की खोज की सीढ़ियाँ हैं। हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत करें उतना अच्छा। इन खोजों को बंद करने से सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को तेजी मिले तो वह भी ठीक। पर जिस देश की तीन-चार फिल्मों का बजट एक मंगलयान के बराबर हो या जहाँ लोग दीवाली पर 5,000 करोड़ रुपए की आतिशबाजी फूँक देते हों उससे ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि बच्चों की शिक्षा के लिए पैसा क्यों नहीं है? महात्मा गांधी की बात मानें तो हम जो काम करते हैं उसे करने के पहले अपने आप से पूछें कि इससे गरीब का कितना भला होगा।

व्यावहारिक सच यह है कि कोई भी विचार, सिद्धांत और दर्शन तब तक बेकार है जब तक वह लागू नहीं होता। बातें व्यावहारिक सतह पर ही होनी चाहिए। 

वास्तव में मंगलयान से गरीबी दूर नहीं होगी। हम मंगलयान न भेजें तब भी गरीबी दूर करने की गारंटी है क्या?

Monday, June 30, 2014

मुँह में ‘कड़वी गोली’, मन में सुंदर सपने

गेहूँ या चावल के एक या दो दाने देखकर पहचान हो सकती है, पर क्या सरकार के काम की पहचान एक महीने में हो सकती है? सन 2004 के मई में जब यूपीए-1 की सरकार बनी तो पहला महीना विचार-विमर्श में निकल गया. तब भी सरकार के सामने पहली चुनौती थी महंगाई को रोकना और रोजगार को बढ़ावा देना. इस सरकार के सामने भी वही चुनौती है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने भी पेट्रोलियम की कीमतों को बढ़ाने की चुनौती थी. उसके पहले वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों से बाजार के उतार-चढ़ाव से सीधा जोड़ दिया था, पर चुनाव के ठीक पहले कीमतों को बढ़ने से रोक लिया. वैसे ही जैसे इस बार यूपीए सरकार ने रेल किराया बढ़ाने से रोका. इसे राजनीति कहते हैं.