भारत का मंगलयान अपनी तीन चौथाई यात्रा पूरी कर चुका है। उसके मार्ग में तीसरा संशोधन 11 जून को किया गया। अब अगस्त में एक और संशोधन संभावित है। उसके बाद सितंबर के पहले हफ्ते में यह यान मंगल की कक्षा में प्रवेश कर जाएगा। इस आशय की पोस्ट मैने फेसबुक पर लगाई तो किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, सहज भाव से कुछ मित्रों ने लाइक बटन दबा दिया। अलबत्ता दो प्रतिक्रियाओं ने एक पुराने सवाल की ओर ध्यान खींचा। एक प्रतिक्रिया थी कि फिर क्या हो जाएगा? आम आदमी की जिंदगी बेहतर हो जाएगी? एक और प्रतिक्रिया थी कि वहाँ से सब अच्छा ही दीखेगा। दोनों प्रतिक्रियाओं के पीछे इस बात को लेकर तंज़ है कि हमारी व्यवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण बातों को भूलकर इन निरर्थक कामों में क्यों लगी रहती है। अक्सर कहा जाता है कि भारत की दो तिहाई आबादी के लिए शौचालय नहीं हैं। और यह भी कि देश के आधे बच्चे कुपोषित हैं। मंगलयान से ज्यादा जरूरी उनके पोषण के बारे में क्या हमें नहीं सोचना चाहिए? वास्तव में ये सारे सवाल वाजिब हैं, पर सोचें कि क्या ये सवाल हम हरेक मौके पर उठाते हैं? मसलन जब हमारे पड़ोस में शादी, बर्थडे, मुंडन या ऐसी ही किसी दावत पर निरर्थक पैसा खर्च होता है तब क्या यह सवाल हमारे मन में आता है?
गरीब देश को क्या यह शोभा देता है?
क्या मंगलयान भेजने जैसे काम जनता के किसी काम आते हैं? पहली नजर में लगता है कि यह सब बेकार है। सवाल है कि क्या भारत जैसे गरीब देश को अंतरिक्ष कार्यक्रमों को हाथ में लेना चाहिए? मंगलयान अभियान पर 450 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इस राशि की तुलना अपने शिक्षा पर होने वाले खर्च से करें। सन 2013 के बजट में वित्तमंत्री ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए 65,867 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा। सर्वशिक्षा अभियान के लिए 27,258 करोड़ और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 3,983 करोड़ रुपए।इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते हैं। पहली नज़र में बात तार्किक लगती है। सामाजिक क्षेत्र में हमारी प्रगति अच्छी नहीं है। एशियाई विकास बैंक के सोशल प्रोटेक्शन इंडेक्स में भारत का 23वाँ स्थान है। इस इंडेक्स में कुल 35 देश शामिल हैं। हमारे देश में औसतन हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। इस बात का दूसरा पहलू भी देखें। शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों के क्षेत्र में आते हैं। उसके लिए राज्य सरकारों के बजट भी हैं। माध्यमिक शिक्षा में काफी बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र भी शामिल हो चुका है। अंतरिक्ष अनुसंधान पर कौन खर्च करेगा?
अब कुछ दूसरी संख्याओं को देखें। करन जौहर की फिल्म शुद्धि का बजट 150 करोड़ रुपए है। एंथनी डिसूजा की फिल्म 'ब्लू' और शाहरुख की 'रा वन' का भी 100 करोड़। तीन या चार फिल्मों के बजट में एक मंगलयान! औसतन 25,000 बच्चों को शिक्षा। फिल्में बनाना बंद कर दें तो क्या साल भर में सारे लक्ष्य हासिल हो जाएंगे? भारत जिस मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट को खरीदने जा रहा है उस एक विमान की कीमत है 1400 करोड़ रुपया। भारत 126 विमान खरीदेगा और इसके बाद 63 और खरीदने की योजना है। इनकी कीमत जोड़िए। भारत ही नहीं सारी दुनिया को यह सोचना चाहिए कि युद्ध का जो साजो-सामान हम जमा कर रहे हैं क्या वह निरर्थक नहीं? पर दूसरी तरफ सोचें। क्या युद्ध रोके जा सकते हैं? आखिर युद्ध क्यों होते हैं? कोई साजिश है या इंसानियत की नासमझी या कुछ और? वास्तव में नैतिक आग्रहों से भरे सवाल करना आसान है, पर व्यावहारिक स्थितियों का सामना करना दूसरी बात है। युद्ध एक दर्शन है। नीति और अनीति दो धारणाएं हैं। इनका द्वंद अभी तक कायम है। क्यों नहीं दुनिया भर में सुनीति की विजय होती? क्यों अनीति भी कायम है?
क्या मिलेगा अंतरिक्ष में घूमती चट्टानों, धूल और धुएं में?
मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? अमेरिका और रूस वाले यह काम कर ही रहे हैं। पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर क्या मिला? यह सवाल उन मनों में भी है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी कवरेज से बाहर निकल कर सोचने-समझने की फुरसत है। सवाल है अमेरिका और रूस को भी क्या पड़ी थी? पर उससे बड़ा सवाल है कि मनुष्य क्या खोज रहा है? क्यों खोज रहा है और उसका यह खोजना हमें कहाँ ले जा रहा है? यह सवाल मनुष्य के विकास और उससे जुड़े सभी पहलुओं की ओर हमारा ध्यान खींचता है। वैज्ञानिक, औद्योगिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वगैरह-वगैरह।
मानवता से जुड़े सवाल अपनी जगह हैं और देश से जुड़े सवाल दूसरी तरफ हैं। भारत के लिहाज से वैज्ञानिक शोध के अलावा आर्थिक कारण भी हैं। दुनिया का स्पेस बाज़ार इस वक्त तकरीबन 300 अरब डॉलर का है। इसमें सैटेलाइट प्रक्षेपण, उपग्रह बनाना, ज़मीनी उपकरण बनाना और सैटेलाइट ट्रैकिंग वगैरह शामिल हैं। टेलीकम्युनिकेशन के साथ-साथ यह दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता कारोबार है। हमने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सही समय से प्रवेश किया और आज हम दुनिया के लीडर हैं। स्पेस टेक्नॉलजी में भी हम सफलता हासिल कर सकते हैं। हमारा पीएसएलवी रॉकेट दुनिया के सबसे सफलतम रॉकेटों में एक है और उससे प्रक्षेपण कराना सबसे सस्ता पड़ता है। वैसे ही जैसे हमारे डॉक्टर दुनिया में सबसे बेहतरीन हैं और भारत में इलाज कराना सबसे सस्ता पड़ता है।
तकनीक की जरूरत
विज्ञान का एप्लाइड रूप है तकनीक। यह सामाजिक जरूरत पर निर्भर करता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करें। यह तकनीक गर्दन काटने वाला चाकू बनाती है और डॉक्टर की मदद करने वाला नश्तर भी। एटम बम बनाती है और उससे बिजली या चिकित्सा करने वाली दवाएं भी। सवाल है कि क्या हाईएंड तकनीक हासिल करने की कोशिशें बंद कर देनी चाहिए? ऊँची इमारतें बनाने की तकनीक विकसित करना बंद करें, क्योंकि लोगों के पास रहने को झोंपड़ी भी नहीं है। शहरों में मेट्रो की क्या ज़रूरत है, जबकि पैदल चलने वालों के लिए सड़कें नहीं हैं। बसें और मोटर गाड़ियाँ बनाना बंद कर देना चाहिए? इनसे रिक्शा वालों की रोज़ी पर चोट लगती है।
वास्तव में अपनी फटेहाली का समाधान हमें जिस स्तर पर करना चाहिए, वहाँ पूरी शिद्दत से होना चाहिए। एक समझदार और जागरूक समाज की यही पहचान है। आप मंगलयान की बात छोड़ दें। हम चाहें तो भारत के एक-एक बच्चे का सुपोषण संभव है। हरेक को रहने को घर दिया जा सकता है। कहीं से अतिरिक्त साधन नहीं चाहिए। मंगल अभियान हमें अपने इलाके को साफ-सुथरा रखने और पड़ोस के परेशान-फटेहाल व्यक्ति की मदद करने से नहीं रोकता। राजनीतिक स्तर पर यदि सरकार से कुछ कराना है तो नागरिक प्राथमिकता तय करें और सालाना बजट के मौके पर इन सवालों को उठाएं। पर यह भी देखें कि ऊँची तकनीक का गरीबी से बैर नहीं है। मोबाइल टेलीफोन शुरू में अमीरों का शौक लगता था। आज गरीबों का मददगार है। इन 450 करोड़ के बदले हजारों करोड़ रुपए हम हासिल करेंगे।
भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है। उसकी तकनीक भी विकसित नहीं है। पर इस वक्त नाइजीरिया के तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के प्रयास में है। उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की जानकारी देने का काम कर रहे हैं। उसने ब्रिटेन, रूस और चीन की मदद ली है। उसके पास न तो रॉकेट हैं और न रॉकेट छोड़ पाने की तकनीक। उसकी ज़मीन के नीचे पेट्रोलियम है। उसकी तलाश से जुड़ी और सागर तट के प्रदूषण की जानकारी उसे उपग्रहों से मिलती है। नाइजीरिया के अलावा श्रीलंका, बोलीविया और बेलारूस जैसे छोटे देश भी अंतरिक्ष विज्ञान में आगे रहने को उत्सुक हैं। दुनिया के 70 देशों में अंतरिक्ष कार्यक्रम चल रहे हैं, हालांकि प्रक्षेपण तकनीक थोड़े से देशों के पास ही है।
व्यावहारिक दर्शन
पिछले साल उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान लेता। पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया। 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा लोग मरे थे। अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार यहाँ तक कि सुरक्षा में होता। विज्ञान की खोज की सीढ़ियाँ हैं। हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत करें उतना अच्छा। इन खोजों को बंद करने से सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को तेजी मिले तो वह भी ठीक। पर जिस देश की तीन-चार फिल्मों का बजट एक मंगलयान के बराबर हो या जहाँ लोग दीवाली पर 5,000 करोड़ रुपए की आतिशबाजी फूँक देते हों उससे ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि बच्चों की शिक्षा के लिए पैसा क्यों नहीं है? महात्मा गांधी की बात मानें तो हम जो काम करते हैं उसे करने के पहले अपने आप से पूछें कि इससे गरीब का कितना भला होगा।
व्यावहारिक सच यह है कि कोई भी विचार, सिद्धांत और दर्शन तब तक बेकार है जब तक वह लागू नहीं होता। बातें व्यावहारिक सतह पर ही होनी चाहिए।
वास्तव में मंगलयान से गरीबी दूर नहीं होगी। हम मंगलयान न भेजें तब भी गरीबी दूर करने की गारंटी है क्या?