Tuesday, April 15, 2014

सोनिया के आखिरी तीर

 मंगलवार, 15 अप्रैल, 2014 को 13:02 IST तक के समाचार
सोनिया गांधी
सोमवार की रात देश के कई सारे महत्वपूर्ण चैनलों से प्रसारित कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की वीडियो अपील को सामान्य चुनाव प्रचार से अलग करके देखा जाना चाहिए.
चुनाव के चार चरण पूरे होने और 110 सीटों यानी लगभग 20 फीसदी का फैसला ईवीएम में बंद हो जाने के बाद यह अपील सामने खड़ी पराजय को टालने की कोशिश में आखि़री आवाज़ जैसी लगती है.
यह अपील केवल इस बात पर केंद्रित नहीं थी कि कांग्रेस को जिताओ, बल्कि इस बात पर थी कि भारतीय जनता पार्टी या दूसरे शब्दों में नरेंद्र मोदी को आने से रोको. हालांकि उन्होंने मोदी या भाजपा का नाम नहीं लिया, पर समझा जा सकता है कि निशाने पर कौन था.
उन्होंने कहा, उनके पास नफ़रत, लालच और निरंकुश सत्ता की भूख का अंधेरा है. उनकी क्लिक करेंविभाजनकारीऔर निरंकुश विचारधारा हमारी भारतीयता और हिंदुस्तानियत को पतन की ओर ले जाएगी. 'हम इस चुनाव में एक ऐसे भारत के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें सत्ता कुछ चंद लोगों की नहीं हो बल्कि जिस पर सबका बराबर अधिकार हो.'

Sunday, April 13, 2014

चुनाव आयोग के नख-दंत और तीखे होने चाहिए

इन पंक्तियों के छपने तक चुनाव के चार दौर पूरे हो चुके हैं. कुल 110 यानी बीस फीसदी से ज्यदा सीटों का फैसला देश का वोटर कर चुका है. इस बार के चुनाव को देश के लिए युगांतरकारी माना जा रहा है. इस उम्मीद से कि इस बार युवा वोटरों की काफी बड़ी तादाद है. माना जा रहा है कि देश की बेशर्म राजनीति को जनता कुछ करारे तमाचे लगाना चाहती है. बावजूद इस उम्मीद के मतदान के दो-एक रोज पहले से कुछ ऐसी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया है जो शर्मसार करती हैं. राजनीतिक दल सामाजिक ध्रुवीकरण के अभियान में जुट गए हैं. खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कुछ ऐसे वक्तव्य आए हैं जो कत्तई घटिया और फूहड़ हैं. अनावश्यक रूप से देश की सेना को भी इसमें घसीट लिया गया.

Friday, April 11, 2014

चुनाव सुधारों को भी तो मुद्दा बनाएं

तृणमूल कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को महत्वपूर्ण मसला बनाया है. इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें भी कही गईं हैं. कहना मुश्किल है कि तृणमूल कांग्रेस इस मसले पर कितनी संजीदा है, पर उसने औपचारिक रूप से ही सही इसे चुनाव का सवाल बनाया है. अभी तक का अनुभव है कि देश के राजनीतिक दल और सरकारें चुनाव सुधारों का या तो विरोध करते हैं या उन्हें लागू करने में देर लगाते हैं. सरकार ने जितनी आसानी से चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने का सुझाव मान लिया, उतनी आसानी से पार्टियों के धन-संग्रह के नियमन से जुड़े सुझावों को भी मान लेना चाहिए. खर्च की सीमा बढ़ाने के इस फैसले के पीछे भी पाखंड नजर आता है. हर पार्टी चाहती है कि खर्च की सीमा बढ़ाई जाए, जबकि अभी तक अधिकतर प्रत्याशी खर्च का विवरण देते वक्त सीमा के आधे के आसपास का खर्च ही दिखाते हैं. जब खर्च करते ही नहीं तो सीमा बढ़ाना क्यों चाहते हैं?

Tuesday, March 25, 2014

राजनीति माने यू-टर्न और भगदड़

प्रमोद मुतालिक भाजपा में शामिल क्यों हुए और पाँच घंटे के भीतर बाहर क्यों कर दिए गए? क्या वजह है कि पार्टी को जसवंत सिंह, आडवाणी और हरिन पाठक जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करनी पड़ती है? यह कहानी सिर्फ भाजपा की नहीं है. बूटा सिंह, सतपाल महाराज, सीके जाफर शरीफ, डी पुरंदेश्वरी और जगदम्बिका पाल जैसे नेताओं ने कांग्रेस क्यों छोड़ी? राम कृपाल यादव और राम विलास पासवान ने अपना भाजपा विरोध क्यों त्यागा? बंगाल में माकपा विधायक पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल क्यों हो रहे हैं? ये सवाल मन में तो आते हैं पर हम उन्हें पूछते नहीं. हमने मान लिया है कि राजनीति में सब जायज है.

Monday, March 24, 2014

राजनीति में उल्टा-पुल्टा

लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़कर बिहार में रामकृपाल सिंह भाजपा में शामिल हो गए। इसके पहले राम विलास पासवान की पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के एक हाथ में जाति का कार्ड है। नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा है। उधर मुलायम सिंह यादव और मायावती ब्राह्मण वोटर का मन जीतने की कोशिश में लगे हैं। कांग्रेस पार्टी ने जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की है। लगभग हर राज्य में जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर बने राजनीतिक गठजोड़ों ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। टिकट वितरण शुरू होते ही अचानक पार्टियों से भगदड़ शुरू हो गई है। अब कोई नहीं देख रहा है कि किस पार्टी में जा रहे हैं। कल तक उसके बारे में कुछ कहते थे। आज कुछ और कहते हैं। आरजेडी के गुलाम गौस ने लालटेन छोड़कर जेडीयू का तीर थाम लिया। वहीं पप्पू यादव ने फिर राजद में आ गए हैं। बीजेपी में नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी और राजनाथ सिंह के लिए लखनऊ की सीट खाली कराना मुश्किल हो रहा है।