हमारे राष्ट्रपतियों के भाषण अक्सर बौद्धिक जिज्ञासा के
विषय होते हैं. माना जाता है कि भारत का राष्ट्रपति देश की ‘राजनीतिक सरकार’ के वक्तव्यों
को पढ़ने का काम करता है. एक सीमा तक ऐसा है भी, पर ऐसे राष्ट्रपति हुए हैं,
जिन्होंने सामयिक हस्तक्षेप किए हैं और सरकार की राजनीति के बाहर जाकर भी कुछ कहा.
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के राष्ट्र के नाम
सम्बोधन को राजनीति मानें या राजनीति और संवैधानिक मर्यादाओं को लेकर उनके मन में
उठ रहे प्रश्नों की अभिव्यक्ति? यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि
गणतंत्र दिवस के ठीक पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी का धरना चल रहा था. देश भर
में इस बात को लेकर चर्चा थी कि क्या ऐसे मौके पर यह धरना उचित है? क्या अराजकता का नाम लोकतंत्र है? संवैधानिक
मर्यादा की रक्षा करने की शपथ लेने वाले मुख्यमंत्री को क्या निषेधाज्ञा का
उल्लंघन करना चाहिए?