'नदी किनारे बसने वालों का परिवार नहीं बचता'
अपना पर्यावरण बचाने के लिए हिमालयी समाजों के अपने परंपरागत तौर-तरीक़े रहे हैं. विशेष रूप से उत्तराखंड में प्रकृति के संरक्षण की समृद्ध परंपरा रही है.
आप ऊपर के इलाक़ों में जाएँ तो पाएँगे कि वहाँ गाँवों के बुज़ुर्ग जंगलों और घाटियों में चलते हुए ऊँची आवाज़ों में बोलने से मना करते हैं. कहा जाता है कि इससे वन देवियाँ नाराज़ हो जाती हैं.
हम ऊँचाई में पड़ने वाले बुग्यालों में जूते पहनकर नहीं जाते थे. मौसम से पहले ब्रह्म कमल और फेन कमल जैसे सुंदर फूलों को नहीं तोड़ने की परंपरा रही है.
मनपाई बुग्याल से रुद्रनाथ के रास्ते पर एक बार हम पशुपालकों के छप्परों में उनके साथ रहे. ऐसी ऊंचाई वाली जगहों पर ब्रह्म कमल और फेन कमल पाया जाता है. इसका दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.
पूर्णमासी को नंदा देवा या वन देवी की पूजा की जाती है. उसके बाद सुबह ही कमल को तोड़ा जाता है. पशुपालकों के पास कोई दवा तो होती नहीं है. वे दर्द से राहत के लिए कमल की राख पेट पर मलते हैं.
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प्रलय का शिलालेख
अनुपम मिश्र
सन् 77 की जुलाई का तीसरा हफ्ता। चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब सी खामोशी है। यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी बिरही का जलस्तर भी बढ़ता जा रहा है। उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकरा कर गूंज भी रही है।
फिर भी चमोली-बद्रीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को आज सब कुछ शांत सा लग रहा है। आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे, देख चुके थे। इनके घर, खेत व ढोर इस प्रलय में बह चुके थे। उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था। कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएं, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सब के बीच से किसी तरह रास्ता बना कर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है।
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हमारे लालच की शिकार हुई गंगा
वंदना शिवा के भाषण के अंश
देहरादून में जन्मी वंदना शिवा का नाम पर्यावरण आंदोलन के बड़े नेताओं में गिना जाता है। उन्होंने पर्यावरण व वैश्वीकरण पर करीब बीस किताबें लिखी हैं। इलाहाबाद में ‘शक्ति और प्रकृति’ विषय पर बोलते हुए उन्होंने लोगों से गंगा को बचाने का आह्वान किया। भाषण के अंश:
जीवन की प्रेरणा
यह मां गंगा की प्रेरणा है कि आज हम सब यहां एकत्र हुए हैं। गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है, यह एक आध्यात्मिक प्रेरणा है। आज गंगा के प्रदूषण पर बहस हो रही है। हम सब जानते हैं कि प्रकृति कभी प्रदूषण नहीं फैलाती है। गंगा में गंदगी फैलाने वाले हम ही हैं। हम विकास की गलतफहमी में गंगा को बरबाद करने पर तुले हैं। गंगा तो हमेशा से अविरल व निर्मल रही है। हमने बांध के नाम पर गंगा के रास्ते में रुकावटें पैदा कीं। बांध बिल्कुल कोलेस्ट्रॉल की तरह है। जैसे कोलेस्ट्रॉल हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं है, वैसे ही बांध गंगा की सेहत के लिए ठीक नहीं है। उद्गम स्थल से तो गंगा निर्मल ही बहती है, यह तो हम इंसान हैं, जो गंगा में गंदगी फेंककर इसे मैला कर देते हैं।
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आपदा के प्रकोप से बच सकते हैं हम
राधिका मूर्ति स्विट्जरलैंड में ‘डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट’ विशेषज्ञ हैं। फिजी में पली-बढ़ी राधिका का पालन-पोषण ऐसे इलाकों में हुआ जहां अक्सर तूफान और सुनामी आया करते हैं। उनका मानना है कि इंसान सजग रहे तो प्राकृतिक आपदाओं को कम किया जा सकता है। पेश हैं उनके एक भाषण के अंश:
प्रकृति का कहर
मुझे आज भी अपने स्कूल का वह पहला दिन याद है। हम सब बच्चे खाली जमीन पर बैठे थे। ऊपर खुला आसमान था। हमारे पीछे दीवार के रूप में बस एक टेंट लगा था। टेंट के उस पार था तूफान का खौफनाक मंजर। तब मैं बहुत छोटी थी, इसलिए तूफान की त्रासदी का अंदाजा नहीं था। लेकिन बड़े होने पर पता चला कि कितना मुश्किल होता है प्रकृति के कहर से जूझना। मेरा पालन-पोषण फिजी में हुआ। फिजी दुनिया भर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। यहां के खूबसूरत समुद्री किनारे, विशाल ताड़ के पेड़ और लोगों केमुस्कुराते चेहरे पर्यटकों को खींच लाते हैं। लेकिन इन लुभावने नजारों के बीच कुछ डरावनी और दिल दहलाने वाली प्रकृति की लीलाएं भी हैं जिनसे हम अक्सर रूबरू होते हैं। तूफान, बाढ़ और भूस्खलन के रूप में डरावने वाले प्रकृति के रौद्र से लड़ना आसान नहीं होता। सच कहूं तो बचपन में हमारे लिए तूफान और बाढ़ की घटनाएं दिलचस्प किस्से हुआ करते थे। लेकिन धीरे-धीरे मुझे इनकी गंभीरता का अहसास हुआ। मैं अपने माता-पिता की समझदारी और हौंसले को सलाम करती हूं जिन्होंने मुझे ऐसी आपदाओं के कहर से बचाकर रखा।
मानव व्यवहार
प्राकृतिक आपदाओं के लिए मानव व्यवहार कितना जिम्मेदार है? जब मैंने आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में काम शुरु किया तो कई अहम बातें सामाने आईं। सबसे बड़ी बात यह है कि बहुत सारे लोग प्राकृतिक आपदा को ईश्वर का प्रकोप समझते हैं। उनका मानना है कि बाढ़ और तूफान के जरिए ईश्वर हम इंसानों को हमारे पापों के लिए सजा देते हैं। जाहिर है ऐसे में हमारे लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि हमारी किन हरकतों की वजह से प्रकृति को नुकसान हो रहा है और हम खुद को कैसे आपदाओं के कहर से बचा सकते हैं। हमें आपदाओं की असली वजहों को समझना होगा।
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