1991 के बाद शुरू हुए आर्थिक सुधारों पर इस समय चल रही बहस पर हाल में सामने आए घोटालों की छाया है। कुछ लोग इन सारे घोटालों का कारण उदारीकरण को मान रहे हैं और कुछ लोग मानते हैं कि उदारीकरण के कारण ये घोटाले सामने आए हैं। पहले ये सामने नहीं आते थे। इसके अलावा यह भी कि सरकरारी निर्णय प्रक्रिया पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। उसमें भी सुधार की ज़रूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि कड़े फैसले करने होंगे। पर क्या जनता जानती है कि कड़े फैसलों का मतलब क्या होता है? उसे दाल-आटे के भाव में ही कड़े या मुलायम फैसले नज़र आते हैं।
Saturday, September 22, 2012
Friday, September 21, 2012
जी कस्तूरी का निधन
'हिन्दू' अपने किस्म का अनोखा अखबार है और मेरे विचार से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों में एक है। कोई अखबार अच्छा या खराब अपने मालिकों के कारण होता है। इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका, आनन्द बाज़ार पत्रिका के सरकार परिवार, टाइम्स हाउस के साहू जैन और उससे पहले डालमिया परिवार, मलयालम मनोरमा के केसी मैमन मैपिल्लै का परिवार और हिन्दुस्तान टाइम्स के बिड़ला परिवार की भूमिका मीडिया के कारोबार के अलावा पत्रकारिता को उच्चतर मूल्यों से जोड़ने में रही है। पर हिन्दू के मालिकों में कुछ अलग बात रही। जी कस्तूरी पत्रकारिता के पुराने ढब में ढले थे, जिसमें अपने व्यक्तित्व को पीछे रखा जाता है। उनके निधन से भारतीय पत्रकारिता ने बहुत कुछ खो दिया है। बेशक कारोबारी बयार ने हिन्दू को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है, पर देश में कोई अखबार इस आँधी में बचा है तो वह हिन्दू है। और इसका श्रेय जी कस्तूरी को जाता है।
Thursday, September 20, 2012
भारत बंद यानी अक्ल पर पड़ा ताला
जनता परेशान है। महंगाई की मार उसे जीने नहीं दे रही। इसलिए बंद। व्यापारियों को डर है कि खुदरा कारोबार में एफडीआई से उनके कारोबार पर खतरा है। बंद माने रेलगाड़ियाँ रोक दो। बसों को जला दो। दुकानें बंद करा दो भले ही दुकानदार उन्हें खोलना चाहे। भले ही जनता को ज़रूरी चीज़ें खरीदनी हों। देश का एक लोकप्रिय नारा है, माँग हमारी पूरी हो, चाहे जो मज़बूरी हो। जनता की परेशानियों को लेकर राजनीतिक दलों का विरोध समझ में आता है, पर रेलगाड़ियाँ रोकना क्या जनता की परेशानी बढ़ाना नहीं है? जिन प्रश्नों को लेकर पार्टियाँ बंद आयोजित करती हैं क्या उन्हें लेकर वे जनता को जागरूक बनाने का काम भी करती हैं?
इस बंद में भाजपा, सपा, वामपंथी दल, जेडीयू, जेडीएस, डीएमके और अन्ना डीएमके शामिल हैं। इन पार्टियों की जिन राज्यों में सरकार है वहाँ बंद को सफल होना ही है, क्योंकि वह सरकारी काम है। जिन सवालों पर बंद है उन्हें लेकर ये पार्टियाँ जनता के बीच कभी नहीं गईं। बीजेपी ने किसीको नहीं बताया कि सिंगिल ब्रांड रिटेल में एफडीआई तो हमारी देन है। इन पार्टियों में से सीपीएम और दो एक दूसरी पार्टियों को छोड़ दें तो प्रायः सबने दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सुख प्राप्त किया है। कांग्रेस और बीजेपी के अलावा संयुक्त मोर्चा सरकार में ये सारी पार्टियाँ थीं, जिनके वित्तमंत्री पी चिदम्बरम हुआ करते थे। सबने उदारीकरण का समर्थन किया, उसे आगे बढ़ाया। पेंशन बिल भी तो बीजेपी की देन है। तब कांग्रेस ने उसका विरोध किया था। राजनीति का पाकंड ऐसे मौकों पर वीभत्स रूप में सामने आता है।
जनता के सवालों को उठाना राजनीति का काम है, पर क्या हमारी राजनीति जनता के सवालों को जानती है? राजनीतिक नेताओं का अहंकार बढ़ता जा रहा है। उनके आचरण में खराबी आती जा रही है। सबकी निगाहों अगले चुनाव पर हैं। सबको अपनी गोटी फिट करने की इच्छा है। आप सोचें क्या वास्तव में इस बंद से जनता सहमत है या थी?
इस बंद में भाजपा, सपा, वामपंथी दल, जेडीयू, जेडीएस, डीएमके और अन्ना डीएमके शामिल हैं। इन पार्टियों की जिन राज्यों में सरकार है वहाँ बंद को सफल होना ही है, क्योंकि वह सरकारी काम है। जिन सवालों पर बंद है उन्हें लेकर ये पार्टियाँ जनता के बीच कभी नहीं गईं। बीजेपी ने किसीको नहीं बताया कि सिंगिल ब्रांड रिटेल में एफडीआई तो हमारी देन है। इन पार्टियों में से सीपीएम और दो एक दूसरी पार्टियों को छोड़ दें तो प्रायः सबने दिल्ली की गद्दी पर बैठने का सुख प्राप्त किया है। कांग्रेस और बीजेपी के अलावा संयुक्त मोर्चा सरकार में ये सारी पार्टियाँ थीं, जिनके वित्तमंत्री पी चिदम्बरम हुआ करते थे। सबने उदारीकरण का समर्थन किया, उसे आगे बढ़ाया। पेंशन बिल भी तो बीजेपी की देन है। तब कांग्रेस ने उसका विरोध किया था। राजनीति का पाकंड ऐसे मौकों पर वीभत्स रूप में सामने आता है।
जनता के सवालों को उठाना राजनीति का काम है, पर क्या हमारी राजनीति जनता के सवालों को जानती है? राजनीतिक नेताओं का अहंकार बढ़ता जा रहा है। उनके आचरण में खराबी आती जा रही है। सबकी निगाहों अगले चुनाव पर हैं। सबको अपनी गोटी फिट करने की इच्छा है। आप सोचें क्या वास्तव में इस बंद से जनता सहमत है या थी?
Wednesday, September 19, 2012
ममता की वापसी के बाद
Monday, September 17, 2012
बोलने की आज़ादी और देशद्रोह
असीम त्रिवेदी के बहाने चली बहस का एक फायदा यह हुआ कि सरकार ने इस 142 साल पुराने देशद्रोह कानून को बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। मीडिया से सम्बद्ध ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने गृह मंत्रालय से इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है। कानूनों का अनुपालन कराने वाली एजेंसियाँ अक्सर सरकार-विरोध को देश-विरोध समझ बैठती हैं। सूचना एवें प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने जीओएम के प्रमुख पी चिदम्बरम को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि दंड संहिता की धारा 124 ए का समुचित संशोधन होना चाहिए। चिदम्बरम ने उनसे सहमति व्यक्त की है। विडंबना है कि इसी दौरान तमिलनाडु में कुडानकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगा दिए गए हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शासन के प्रति विरोध और विद्रोह में काफी महीन रेखा है। हम आसानी से यह कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा है। हम सीमा पर ज़ोर देने लगे हैं, जबकि मूल संविधान में यह सीमा नहीं थी। देश के पहले संविधान संशोधन के मार्फत हमारे संविधान में युक्तिसंगत पाबंदियाँ लगाने का प्रावधान शामिल किया गया। विचार-विनिमय की स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। किसी ने सवाल किया कि गाली देना क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो सकती है? वस्तुतः हम भूलते हैं कि मौलिक अधिकार राज्य के बरक्स होते हैं। दो व्यक्तियों के बीच की गाली-गलौज के लिए दूसरे कानून हैं। राज्य की आलोचना के आधार दूसरे हैं। इस पोस्ट में मेरी ज्यादातर सामग्री दो साल पहले की एक पोस्ट से ली गई है। कुछ जगह नए संदर्भ जोड़े हैं। इस मामले में जैसे ही बहस आगे बढ़ती है तब यह सवाल आता है कि क्या हमारे देश, राज्य, सरकार, व्यवस्था का गरीब जनता से कोई वास्ता है? राष्ट्रीय चिह्नों की चिंता काफी लोगों को है, पर इनसानं के रूप में जो जीवित राष्ट्रीय चिह्न मौज़ूद हैं उनका अपमान होता है तो कैसा लगता है?
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