Monday, June 18, 2012

समय से सबक सीखो ममता दी

पिछले बुधवार सोनिया गांधी के साथ मुलाकात करने के बाद ममता बनर्जी जितनी ताकतवर नज़र आ रहीं थीं, उतनी ही कमज़ोर आज लग रहीं हैं। राजनीति में इस किस्म के उतार-चढ़ाव अक्सर आते हैं, पर पिछले एक अरसे से ममता बनर्जी का जो ग्राफ क्रमशः ऊपर जा रहा था, वह ठहर गया है। एक झटके में उनकी सीमाएं भी सामने आ गईं। अभी तक कांग्रेस मुलायम सिंह के मुकाबले ममता को ज्यादा महत्व दे रही थी, क्योंकि उसे पता है कि मुलायम सिंह अपनी कीमत वसूलना जानते हैं। ममता बनर्जी ने जो बाज़ी चली वह कमजोर थी। जिन एपीजे अब्दुल कलाम को वे प्रत्याशी बनाना चाहती थीं उनकी रज़ामंदी उनके पास नहीं थी। बहरहाल वे अब अकेली और मुख्यधारा की राजनीति से कटी नज़र आती हैं। बेशक उनके पास विकल्प खुले हैं। पर एक साल के मुख्यमंत्री पद और पिछले छह महीने में राष्ट्रीय राजनीति से प्राप्त अनुभवों का लाभ उन्हें उठाना चाहिए। वे देश की उन कुछ नेताओं में से एक हैं जो सिर्फ अपने दम पर राजनीति की राह बदल सकते हैं। देखना यह है कि बदलते वक्त से वे कोई सबक सीखती हैं या नहीं।

चुनौतियाँ शुरू होंगी राष्ट्रपति चुनाव के बाद

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
राष्ट्रपति पद के चुनाव का पहला दौर कांग्रेस ने आसानी से पार कर लिया। पार ही नहीं किया बल्कि जीत भी लिया है। यह फौरी जीत मुलायम और ममता बनर्जी की जल्दबाजी के कारण हासिल हुई है। पर राष्ट्रपति चुनाव अंतिम जीत नहीं है। अलबत्ता इससे कांग्रेस के रणनीतिकारों को बल मिलेगा। अभी तमाम रहस्य शेष हैं। यह साफ नहीं हुआ है कि सोनिया गांधी प्रणव मुखर्जी को वास्तव में प्रत्याशी बनाना चाहती थीं या नहीं। बहरहाल अब यूपीए को नए वित्तमंत्री, तमाम ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के अध्यक्ष, लोकसभा में सदन के नेता और पार्टी के सबसे बड़े ट्रबुल शूटर की तलाश करनी होगी। कांग्रेस के सामने जो समस्याएं सामने आने वाली हैं वे लोकसभा के अगले चुनाव के बाबत हैं। ममता बनर्जी कब तक यूपीए में बनी रहेंगी और क्या मायावती और मुलायम सिंह एक ही घाट का पानी पिएंगे?

Friday, June 15, 2012

यह राजनीतिक समुद्र मंथन है

हिन्दू सें सुरेन्द्र का कार्टून
कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री को पद पर बनाए रखने की घोषणा करने के बाद एक बड़ी कयासबाजी को रोक दिया है। राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से सफाई देना ज़रूरी था। कांग्रेस अभी तक ममता बनर्जी से सीधे टकराव को टालती आ रही है। हो सकता है कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के वास्ते उसे टकराव लेना पड़े। ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी के नाम को पहले ही नामंजूर कर दिया था। कम से कम स्वीकार तो नहीं किया था। बल्कि वे मीरा कुमार का नाम सुझा भी चुकी थीं। पर बुधवार की शाम जब अचानक उन्होंने और मुलायम सिंह यादव ने तीन नए नाम सामने रखे तो राष्ट्रीय राजनीति को धक्का लगा। सबसे ज्यादा विस्मय मनमोहन सिंह के नाम को लेकर था। क्या उन्होंने उनके नाम की पेशकश के पहले आगा-पीछा सोचा था? सवाल उनके राष्ट्रपति बनने से ज्यादा प्रधानमंत्री पद छोड़ने का था। इसीलिए संशय यही हुआ कि कहीं ममता ने सोनिया गांधी से मशवरा करके तो यह पेशकश नहीं की है? पर अब सवाल कुछ और हैं। क्या यह ममता बनर्जी की राजनीति है या कुछ और बात है? क्या यह राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति है या कुछ और है? ममता बनर्जी के दिमाग में ये तीन नाम थे तो उन्होंने सोनिया गांधी को सीधे ही क्यों नहीं बता दिए? ऐसी घोषणा प्रेस कांफ्रेंस में करने का मतलब क्या है? क्या इतनी बड़ी बातें अचानक मुलायम सिंह से छोटी सी मुलाकात के बाद उनके दिमाग में आ गईं? आज के ज़माने में जब मोबाइल फोन से लेकर वीडियो कांफ्रेंसिग तक आम बातें हैं, तब क्या इन औपचारिक मुलाकातों के बाद ही बड़े फैसले होते हैं?

Monday, June 11, 2012

यह अतुल्य भारत का अंत नहीं है

यह भारत की विकास कथा का अंत है। एक वामपंथी पत्रिका की कवर स्टोरी का शीर्षक है। आवरण कथा के लेखक की मान्यता है कि आर्थिक विकास में लगे ब्रेक का कारण यूरोपीय आर्थिक संकट नहीं देश की नीतियाँ हैं। उधर खुले बाजार की समर्थक पत्रिका इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट का शीर्षक है ‘फेयरवैल टु इनक्रेडिबल इंडिया’ अतुल्य भारत को विदा। वामपंथी और दक्षिणपंथी एक साथ मिलकर सरकार को कोस रहे हैं। देश की विकास दर सन 2011-12 की अंतिम तिहाई में 5.3 फीसदी हो गई। पिछले सात साल में ऐसा पहली बार हुआ। पूरे वित्त वर्ष में यह 7 फीसदी से नीचे थी। निर्माण क्षेत्र में यह 3 फीसदी थी जो इसके एक साल पहले 9 फीसदी हुआ करती थी। राष्ट्रीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अप्रेल में 10.4 प्रतिशत हो गया, जो मार्च में 8.8 और फरवरी में 7.7 था। विदेश व्यापार में घाटा एक साल में 56 फीसदी बढ़ गया। विदेशी मुद्रा कोष में लगातार गिरावट हो रही है। जो कोष 300 से काफी ऊपर होता था, वह 25 मई को 290 अरब डॉलर रह गया है। रुपए की कीमत लगातार गिर रही है।

अफगानिस्तान को लेकर बढ़ती तल्खियाँ

पिछले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। आप चाहें तो दोनों में कोई सूत्र न ढूँढें पर खोजने पर तमाम सूत्र मिलेंगे। वस्तुतः पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।