Wednesday, February 23, 2011

बीबीसी हिन्दी रेडियो को बचाने की अपील


बीबीसी की हिन्दी सेवा को बचाने के प्रयास कई तरफ से हो रहे हैं। एक ताज़ा प्रयास है लंदन के अखबार गार्डियन में छपा पत्र जिसपर भारत के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के हस्ताक्षर हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा को देश के गाँवों तक में सुना जाता है। तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर यह सेवा हमारी जनता की खबरों का स्रोत बनी। इसकी हमें हमेशा ज़रूरत रहेगी।

लड़कियों की मदद करें



गिरिजेश कुमार ने इस बार लड़कियों के विकास और उनके सामने खड़ी समस्याओं को उठाया है। मेरे विचार से भारतीय समाज में सबसा बड़ा बदलाव स्रियों से जुड़ा है। यह अभी जारी । दो दशक पहले के और आज के दौर की तुलना करें तो आप काफी बड़ा बदलाव पाएंगे। लड़कियाँ जीवन के तकरीबन हर क्षेत्र में आगे आ रहीं हैं। शिक्षा और रोजगार में जैसे-जैसे इनकी भागीदारी बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें बेहतर परिणाम मिलेंगे। बावजूद इसके पिछले नवम्बर में जारी यूएनडीपी की मानव विकास रपट के अनुसार महिलाओं के विकास के मामले में भारत की स्थित बांग्लादेश और पाकिस्तान से पीछे की है। हम अफ्रीका के देशों से भी पीछे हैं। इसका मतलब यह कि हम ग्रामीण भारत तक बदलाव नहीं पहुँचा पाए हैं। बदलाव के लिए हमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक सोच में बदलाव भी करना होगा। 

आधुनिकता की इस दौड में कहाँ हैं लड़कियां?
गिरिजेश कुमार
आज के इस वैज्ञानिक युग में जहाँ हम खुद को चाँद पर देख रहे हैं वहीँ इस 21 वीं शताब्दी की कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे  देश में  लडकियों के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है | आखिर हम किस युग में जी रहे हैंआधुनिकता की चादर ओढ़े इस देश में आधुनिकता कम फूहड़ता ज्यादा दिखती है किस आधुनिकता  की दुहाई देते हैं हम जब देश की आधी आबादी इससे वंचित है?

Tuesday, February 22, 2011

ऊपर से आने का, नीचे दबाने का...पेप्सी आहा

पेप्सी का यह कैम्पेन खासा लोकप्रिय हो रहा है। आपको यह कैसा लगा? फूहड़, रोचक , रचनात्मक या कुछ और? इसके लोकप्रिय होने की कोई वजह होगी। क्या है वह वजह? बेहतर हो कि हम लोकप्रियता की संस्कृति और उसके सामाजिक संदर्भों पर भी बात करें। इसकी भर्त्सना करना आसान है, पर क्या हम इसकी उपेक्षा कर सकते हैं? 

पेप्सी का कैम्पेन चेंज द गेम।

ऊपर से आने का

नीचे दबाने का

पीछे उठाने का हा..

हा...हा...हा

Monday, February 21, 2011

पीनट्स की जीवन दृष्टि



मेरे पास एक मेल आया था, जिसे पोस्ट कर रहा हूँ। एक सामान्य सी बात बताने के लिए कि लोग उसे याद रखते हैं जो उनके जीवन पर असर डालता है। बाकी बातें हवाई हैं
The CharlesSchulz Philosophy



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Sunday, February 20, 2011

बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?


ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।  

जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश 
गिरिजेश कुमार



“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |