Showing posts with label हिन्दी. Show all posts
Showing posts with label हिन्दी. Show all posts

Thursday, August 26, 2010

जैसी हिन्दी आप चाहेंगे वैसी बनेगी


ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के ताजा संस्करण में 2000 नए शब्द जोड़े गए हैं। इन नए शब्दों में ट्वीटप, चिलैक्स, नेटबुक और वुवुज़ेला भी हैं। कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ने और खासतौर से सोशल नेटवर्क साइट्स के विस्तार के साथ अनेक नए शब्द बन रहे हैं। इन नए शब्दों में डि-फ्रेंड, पेवॉल, वर्फिंग या ईयरवर्म जैसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल बढ़ता जाएगा। मसलन डि-फ्रेंड। अपनी फ्रेंड लिस्ट से किसी को हटाना। वर्फिंग याने काम (वर्क) के दौरान (नेट) सर्फिंग। संगीत सुनते-सुनते कोई धुन गहरे से दिमाग में बैठ गई तो वह ईयरवर्म है। ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ऑनलाइन सेवा हर तीन महीने में यों भी तकरीबन एक से दो हजार नए शब्द जोड़ती है।

हमारे लिए इस खबर के दो माने हैं। एक तो हम ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के बारे में जानें और दूसरे यह कि हिन्दी के विस्तार के दौर में इस बात का संकेत क्या है। आगे बढ़ने के पहले मैं यह निवेदन करना चाहूँगा कि किसी नई प्रवृत्ति के उभरने पर न तो घबराना चाहिए और न यह मान लेना चाहिए कि यह अंतिम सत्य है। दिल और दिमाग के दरवाजे खोलकर ही सारी चीज़ों को देखें। नई बातें बड़े कालखंड में ही सही या गलत साबित होंगी।  

हिन्दी में नए शब्दों को जोड़ने की ज़रूरत है। मेरे कहने मात्र से यह बात लागू नहीं होती। नए शब्द जुड़ने के कारण होते हैं। नए शब्द घर का दरवाज़ा खटखटाने वाले नए मेहमान हैं। हिन्दी का विकास नए शब्दों के जुड़ते जाने से ही हुआ है। उसके इस्तेमाल का भौगोलिक दायरा बढ़ता जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुराने शब्द निरर्थक हो गए या उनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। कुछ लोग हिन्दी को आसान बनाने के नाम पर जबर्दस्ती अंग्रेजी शब्दों की जो ठूँसम-ठाँस कर रहे हैं, वह ठीक नहीं। पर लॉगिन, पासवर्ड, कोलेस्ट्रॉल, माउस, डायलॉग या ट्रेनिंग जैसे शब्द आसानी से हिन्दी में आ गए हैं। उन्हें शब्दकोशों में जगह दी जानी चाहिए। यों भी भाषा शब्दकोशों से नहीं शब्दकोश भाषा से बनते हैं।
     
हिन्दी को आसान बनाने की जो ज़िम्मेदारी लेते हैं, उन्हें भी समझना चाहिए कि हिन्दी आसान होने के कारण ही तो प्रचलित है। पर आम बोलचाल की भाषा और  गूढ़ विषयों की भाषा को एक नहीं किया जा सकता। बोलचाल की भाषा भी व्यक्ति और व्यक्ति की अलग-अलग होती है। सड़क के भैये और एक अध्यापक की भाषा एक जैसी नहीं होती। चैनल और अखबार की भाषा भी एक जैसी नहीं हो सकती। दो चैनलों की भाषा का अंतर भी उनके बाज़ार का अंतर बता सकता है। आज नहीं तो दस साल बाद यह फर्क आएगा।

आसान, रोचक और संदेश को साफ-साफ बताना भाषा का काम है। अंग्रेजी जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी नहीं जाती। हिन्दी में भी ऐसा है। हिन्दी में हाल के वर्षों में झकास, मस्त, खलास, खीसा, भिड़ू, टकला, वाट लगाना जैसे शब्द फिल्मी कारखाने से आए। इन्होंने जगह बना ली है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी और कौरवी में तमाम ऐसे शब्द हैं जो मानक हिन्दी के विकास की धारा में पीछे रह गए हैं। नए शब्द सिर्फ अंग्रेजी से ही नहीं आते। भारतीय भाषाओं से और बोलियों से भी आएंगे। यह आदान-प्रदान भी चलेगा। कुमाऊंनी में गंध के लिए जितने प्रकार के शब्द हैं, उनकी सूची बनाई जाए तो बड़ी लम्बी और उपयोगी बनेगी। किसी एक घटना से शब्द प्रचलन में आ जाते हैं। जैसे खालिस्तानी आंदोलन के दौरान सरबत खालसा या घल्लू-घारां जैसे शब्द आए।  

हमारा सांस्कृतिक और व्यापारिक विस्तार हो रहा है। हम कमज़ोर बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोग नहीं है। पश्चिम और पूर्व के समन्वय के लिहाज से भी हम बेहतर स्थिति में हैं। भाषा-व्याकरण और शब्दकोश से जुड़ा हमारा अतीत बहुत समृद्ध है, पर वह अतीत है वर्तमान नहीं है। इस लिहाज से मैं ऑक्सफर्ड शब्दकोश के बारे में जानकारी हासिल करने का सुझाव दूँगा। पर उसके पहले अपने देश जानकारी भी लेनी चाहिए। हिन्दी विकीपीडिया के अनुसार,सब से पहले शब्द संकलन भारत में बने। हमारी यह शानदार परंपरा वेदों जितनीकम से कम पाँच हज़ार सालपुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृतनामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमरकोश के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है।

भारत के बाहर संसार में शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है। यह शायद ईसा पूर्व सातवीं सदी की रचना है। ईसा से तीसरी सदी पहले की चीनी भाषा का कोश है ईर्या आधुनिक कोशों की नीवँ डाली इंग्लैंड में 1755 में सैमुएल जानसन ने। उन की डिक्शनरी सैमुएल जॉन्संस डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लैंग्वेज ने कोशकारिता को नए आयाम दिए। इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं। असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806 में अमरीका में नोहा वैब्स्टर्स की नोहा वैब्स्टर्स ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज प्रकाशित हुई। इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था। साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया था। कोश को सफल होना ही था, हुआ। वैब्स्टर के बाद अँगरेजी कोशों के संशोधन और नए कोशों के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा। आज छोटे बड़े हर शहर में, किताबों की दुकानें हैं। हर दुकान पर कई कोश मिलते हैं। हर साल कोशों में नए शब्द सम्मिलित किए जाते हैं।

ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अपने आप में एक विशाल काम है। इस डिक्शनरी के दो संस्करण निकल चुके हैं। पहला 1928 में निकला था और दूसरा 1989 में। तीसरे संस्करण पर काम चल रहा है और सब ठीक रहा तो वह सन 2037 तक पूरा हो जाएगा। 1989 के इसके संस्करण में इसके 20 खंड थे। इसी संस्करण के छोटे-छोटे संस्करण आप अलग नाम से देखते हैं। इस डिक्शनरी को दुबारा टाइप करना पड़े तो एक व्यक्ति को 120 साल लगेंगे। प्रूफ पड़ने में 60 साल। इस शह्दकोश को इस तरह तैयार किया गया था कि इसमें अंग्रेजी भाषा के इतिहास में जितने शब्द इस्तेमाल में आए उन्हें इसमें शामिल कर लिया जाय। फिर भी इसमें सन 1150 तक प्रयोग से बाहर हो चुके शब्द शामिल नहीं हैं। यह एक विशाल आयोजन है जिसमें शास्त्रीय शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के और अपशब्द (स्लैंग) भी शामिल हैं।ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी को अपडेट करने के काम में 300 विद्वान लगे हैं और यह प्रोजेक्ट 5.5 करोड़ डॉलर का है। यानी ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का। इसके साथ ऑक्सफर्ड इंग्लिश कोर्पस है, जिसमें करीब बास लाख शब्दों का भंडार है। इस पर करीब 3.5 करोड़ पाउंड याने करीब 300 करोड़ का खर्च है। धनराशि बताने का आशय सिर्फ इस बात को रेखांकित करना है कि कोई समाज अपने वैचारिक कर्म के प्रति कितना सचेत है।

हिन्दी के पास ऑक्सफर्ड जैसा कोई कार्यक्रम नहीं है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाएं इन कार्यों को करतीं हैं। इसके लिए आर्थिक और तकनीकी सहयोग भी चाहिए। शब्दकोश के बारे में मुझे जानकारी नहीं है, पर हिन्दी के विश्वकोश को मैने नेट पर देखा है, जिसे सी-डैक की मदद से नेट पर रखा गया है। इस काम को जिस स्तर पर अपडेट करना चाहिए वह अभी हुआ नहीं है। हाल के वर्षों में अरविन्द कुमार-कुसुम कुमार के व्यक्तिगत प्रयास से समांतर कोश तैयार हुआ वह उत्साहवर्धक है। इसका सहज संस्करण भी देखने को मिला। इस कोश में प्रौपराइटर, प्रौपैलर, फोकस, औप्टीशियन, औरबिटर, औब्शेसन, इंटरनैट और इंटरकौम। जैसे तमाम अंग्रेजी शब्द हैं। पर यह मानक नहीं है। वर्तनी का सवाल भी है। वृत्तमुखी ध्वनि के लिए दीर्घ औ का इस्तेमाल किया गया है। कौल शब्द कुलीन और ग्रास के अर्थ में है। सम्भव है वे कभी टेली कॉल वाले कॉल को भी शामिल करें। यह कोश की नहीं मानक हिन्दी के प्रयोग की कमी है। अभी हम हर बात पर एकमत नहीं हैं।

हिन्दी के लिए नए शब्द बनाने की सरकारी परियोजना ने बहुत बड़ा काम किया था।गम्भीर विषयों की भाषा चलताऊ शब्दों से नहीं बनती। पर उससे ज्यादा बड़ी ज़रूरत अलग-अलग विषयों के शब्द कोशों और विश्वकोशों की है। इस काम का आधा हिस्सा मीडिया से और आधा विश्वविद्यालयों से जुड़ा है। हिन्दी के सहारे कारोबार चलाने वाले न जाने क्या सोचते हैं। अलबत्ता हिन्दी-प्रयोक्ता ही तय करेंगे कि वे अपनी भाषा को कहाँ ले जाना चाहते हैं। यह भी कि हिन्दी की ज़रूरत उन्हें कहाँ है। 

Saturday, July 24, 2010

हिंग्लिश, हिन्दी और हम


सारा संसार समय के साथ बदलता है। भाषाएं भी बदलतीं हैं। हिन्दी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। इसे लेकर हाल में बीबीसी रेडियो के हिन्दी कार्यक्रम में इस सवाल को लेकर एक रोचक कार्यक्रम पेश किया गया। इसमें हिन्दी भाषियों के विचार भी रखे गए। 


हिन्दी के अखबारों ने , खासतौर से नवभारत टाइम्स ने अंग्रेजी मिली-जुली हिन्दी का न सिर्फ धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया है, बल्कि उसे प्रगतिशील साबित भी किया है। अखबार के मास्टहैड के नीचे लाल रंग से मोटे अक्षरों में एनबीटी लिखा जाता है। मेरा ख्नयाल है कि नवभारत टाइम्स ने ऐसा विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए किया है। विज्ञापनदाता का हिन्दी जीवन-संस्कृति और समाज से रिश्ता नहीं है। वे फैशन के लिए एक खास तबके को लुभाते हैं। यह तबका हमारे बीच है, यह भी सच है। पर यह हिन्दी की मुख्यधारा नहीं है। बिजनेस के दबाव में यह धारा फैसले करती है। 


बीबीसी के इस कार्यक्रम में शब्बीर खन्ना नाम के श्रोता ने बीबीसी की अपनी भाषा नीति पर हमला बोला। भाषा में बदलाव कितना होना चाहिए, कैसे होना चाहिए, यह बेहद महत्वपूर्ण सवाल है। क्या कोई भाषा शुद्ध हो सकती है? दाल में नमक या नमक में दाल? संज्ञाएं नहीं क्रियाएं बदली जा रहीं है। मजेदार बात यह है कि न तो  इस हिन्दी को चलाने वाले नवभारत टाइम्स ने और न किसी दूसरे अखबार ने कोई बहस चलाई। कोई सर्वे भी नहीं किया। बीबीसी ने यह चर्चा की अच्छी बात है। इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए। 
  
बीबीसी कार्यक्रम को सुनें 

Wednesday, July 21, 2010

बाजार से भागकर कहाँ जाओगे?




पत्रकारों की तीन या चार पीढ़ियाँ हमारे सामने हैं। एक, जिन्हें रिटायर हुए पन्द्रह-बीस साल या उससे ज्यादा समय हो गया। दूसरे वे जो या तो रिटायर हो रहे हैं या दो-एक साल में होंगे। तीसरे जो 35 से 50 की उम्र के हैं और चौथे जिन्हें आए दस साल से कम का समय हुआ है या जो अभी शामिल ही हुए हैं। मीडिया के बारे में इन सब की राय एक जैसी नहीं है। 75 या 80 साल की उम्र वालों का अनुभव सिर्फ अखबारों का है। उसके बाद वाले इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट मीडिया से भी वाकिफ हैं। एकदम नई पीढ़ी को बड़े बदलावों का इंतज़ार है। पुरानी पीढ़ी मीडिया को संकटग्रस्त मानती है। वह इसे घटती साख और कम होते असर की दृष्टि से देखती है। नई पीढ़ी की दिलचस्पी अपने मेहनताने में है। अपने भविष्य और करियर में। दोनों मामले मीडिया के कारोबारी मॉडल से जुड़े हैं।


अक्सर हम लोग मीडिया के अंतर्विरोधों के लिए मार्केट को जिम्मेदार मानते हैं। हम यह नहीं देखते कि मार्केट न होता तो इतना विस्तार कैसे होता। इस विस्तार से गाँवों और कस्बों तक में बदलाव हुआ है। कई प्रकार की सामंती प्रवृत्तियों पर प्रहार हुआ है। जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ी है। हमारे पास इस विस्तार का कोई दूसरा मॉडल है भी नहीं। मार्केट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह आपको वैकल्पिक रास्ता खोजने का मौका देता है। आज भी यदि कोई संज़ीदा अखबार या गम्भीर चैनल शुरू करना चाहे तो उसपर रोक नहीं है। बाज़ार नई प्रवृत्तियों को खरीदने की कोशिश करता है। संज़ीदा पाठक या बाज़ार है तो यह उसे भी खरीद लेगा, जैसे रूपर्ट मर्डोक ने लंदन टाइम्स जैसा संज़ीदा अखबार खरीदा। इस मार्केट पर पाठक और लोकतंत्र का दबाव होगा तो यह नियंत्रण में रहेगा। फिर भी यह दीर्घकालीन हल नहीं है।


मीडिया, खासतौर से हिन्दी का जो कारोबारी मॉडल हमारे सामने है, वह पिछले डेढ़ दशक में उभरा है। पहले प्रेस आयोग को लगता था कि भारतीय प्रेस को इज़ारेदारी(मोनोपॉली) से बचाना चाहिए। वक्त के साथ यह अंदेशा सही साबित नहीं हुआ। बड़े मीडिया हाउसों के मुकाबले छोटे और स्थानीय स्तर के व्यापारियों ने हिन्दी के अखबार निकाले। अखबारों की बड़ी चेनें इनके सामने टूट गईं। ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर कभी आगे चर्चा करेंगे। हिन्दी के पहले दस अखबारों में सिर्फ दो पुराने और बड़े मीडिया समूहों से जुड़े हैं। इनमें से एक के पास विस्तार का कोई भावी कार्यक्रम नज़र नहीं आता। हिन्दी को छोड़ दें तो देश की अन्य भाषाओं के अखबारों में से कोई भी अंग्रेजी अखबारों की परम्परागत चेन से नहीं निकला है। नई ओनरशिप खाँटी देशी है। उसके विकसित होने के पीछे तीन कारक हैं। एक, स्वभाषा प्रेम जो हमारे राज्यों के पुनर्गठन का आधार बना। दूसरे, स्थानीयता। और तीसरे राजनीति और राजव्यवस्था पर प्रभाव। इस तीसरे कारक के कारण बिल्डर या इसी किस्म के कारोबारी मीडिया की तरफ आकृष्ट हुए हैं। कुछ साल पहले तक चिट फंड कम्पनियों वाले इधर आए थे। ये सब मीडिया पर इतने कृपालु क्यों हुए हैं? मीडिया के इनफ्लुएंस के कारण ऐसा है। यह इनफ्लुएंस पाठक पर कम सरकार पर ज्यादा है। दूसरे अब इसमें मुनाफा भी है।


बिजनेस और राजनीति को भारतीय भाषाओं की अहमियत नज़र आई है। बिजनेस को इसमें फायदा दिखाई पड़ता है और राजनीति को वोट। भारतीय भाषाई अखबारों के शुरूआती मालिक स्थानीय कारोबारी थे। उनका बिजनेस मॉडल देशी था। अब वे बिजनेस-प्रबंध की अहमियत समझने लगे हैं। विस्तार के लिए पूँजी की ज़रूरत है। उसके लिए ये अखबार पूँजी बाज़ार की ओर जा रहे हैं। अखबार की गुणवत्ता, साख और करियर के सवाल इन बातों से जुड़े हैं। ये सवाल या तो पाठक के हैं या पत्रकार के। कारोबारियों के नहीं। कारोबारी को यहां तुरत फायदा नज़र आ रहा है, जिसे फिलिप मेयर हार्वेस्टिंग मार्केट पोज़ीशन कहते हैं। अखबार ईज़ी मनी के ट्रैप में हैं। यह ईज़ी मनी शेयर बाज़ार में भी है। पर यह सब ऐसा ही नहीं रहेगा। शेयर बाज़ार को भी ज्यादा ट्रांसपेरेंट बनाने की कोशिश होगी।


हाल में पेड न्यूज़ के जिस मसले पर हम माथा-पच्ची करते रहे हैं, वह सिर्फ मीडिया का मसला ही तो नहीं था। अनुमान है कि चुनाव के दौरान करीब 5000 करोड़ रुपया इस मद में खर्च हुआ। यह रुपया किसके पास से किसके पास गया? ऐसी पब्लिसिटी की किसी ने रसीद नहीं दी होगी। और न पक्की किताबों में इसका ब्योरा रखा गया होगा। इसका मतलब काली अर्थ-व्यवस्था में गया। यह काली अर्थव्यवस्था सिर्फ मीडिया हाउसों तक सीमित नहीं है। मीडिया-कर्म के विचार से इस काम से हमारी साख को धक्का लगा। यह धक्का किसे लगा?  पाठकों को, नेताओं को, चुनाव आयोग को या पत्रकारों को? मालिकों को क्यों नहीं लगा? अखबार तो उनके थे। अपने अखबार की साख गिरती देखना उन्हें खराब क्यों नहीं लगा?

दरअसल बहुत दूर की कोई नहीं सोचता। टेक्नॉलजी का बदलाव पूरे औद्योगिक ढाँचे को बदल देगा। अनेक उद्योग आने वाले वर्षों में गायब हो जाएंगे। अनेक कम्पनियाँ जो आज चमकती नज़र आ रहीं हैं, अगले कुछ साल में व्यतीत हो जाएंगी। ऐसा ही सूचना के साथ होने वाला है। अखबार या मीडिया इनफ्लुएंस बेचता है। पाठक उसके प्रभाव को मानता है। पर कारोबार को शायद यह बात समझ में नहीं आती। वह कॉस्ट कम करने और प्रॉफिट बढ़ाने के परम्परागत विचार पर कायम है। वह अपने दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में नहीं सोच रहा। उसकी बॉटमलाइन मुनाफा है। उसका ज़ोर ऐसी तकनीक खरीदने पर है जो लागत (कॉस्ट) कम करे। ऐसा वह बेहतर पत्रकारिता की कीमत पर कर रहा है। पत्रकारिता पर इनवेस्ट करना नादानी लगती है और उसकी सलाह देने वाले नादान। न्यूज़रूम पर इनवेस्ट करना घाटे का सौदा लगता है। आप कैसा भी अखबार निकालें, पैसा आता रहेगा तो आप इनोवेशन बंद कर देंगे। अंततः मीडिया न्यूज़ फैक्ट्री में तब्दील हो जाएगा।


पाठक की मीडिया से अपेक्षा सिर्फ खबरें बेचने की नहीं है। खासतौर से उस मीडिया से जो उसे धोखा देकर खबर के नाम पर विज्ञापन छापता है। इसपर भी शर्मिन्दा नहीं है। यह सूचना का युग है। इसमें सूचना की बहुलता हमारे दुष्कर्म का भंडाफोड़ भी कर देती है, पर उसकी परिणति क्या है? नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हर्बर्ट सायमन के शब्दों में इससे खबरदारी की मुफलिसी(पोवर्टी ऑफ अटेंशन) पैदा हो रही है। जनता हमपर ध्यान नहीं देगी। उसके बाद हम उन पर्चों जैसे बेजान हो जाएंगे जो हर सुबह हमारे अखबारों के साथ चिपके चले जाते हैं। और जिन्हें हम सबसे पहले अलग करते हैं। जो शानदार रंगीन छपाई के बावजूद हमारी निगाहों में नहीं चढ़ते।


मीडिया का मौजूदा मॉडल मार्केट-केन्द्रित है। वह ज़ारी रहेगा। उसे आप बदल नहीं पाएंगे। एक रास्ता यह है कि आप वैकल्पिक अखबार तैयार करें और उसे सफल बनाकर दिखाएं। पैसा लगाने वाले तब सामने आएंगे। पर अंततः मीडिया पर लगने वाली पूँजी और प्रॉफिट का गणित अलग ही होगा। उसपर वह पूँजी लगे, जिसे अपनी साख की फिक्र भी हो। संयोग से इसपर विचार भी शुरू हो गया है। उसपर फिर कभी।  

Tuesday, July 6, 2010

चमत्कार को मीडिया का नमस्कार


टेलीशॉपिंग या होम शॉपिंग के किसी चैनल पर आपने अक्सर विज्ञापन देखे होंगे, जिनमें किसी की बुरी नज़र से बचाने या दुर्भाग्य से मुक्ति पाने के लिए किसी सिद्ध कवच को खरीदने का आग्रह किया जाता है। किसी सुखी परिवार को देखकर किसी स्त्री या पुरुष की आँखों से बुरी नज़र की किरणें निकलतीं हैं। वे उस परिवार का जीवन तबाह कर देती हैं। ऐसे ही किसी का चलता कारोबार बिगड़ जाता है। हमारे जीवन में ऐसे कवच, गंडे-ताबीज़ों की कमी नहीं है। बड़े-बड़े सेलेब्रिटी भी इनका सहारा लेते हैं। खराब वक्त प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में आता है। ज्यादातर सेलेब्रिटीज़ के सेलेब्रिटी एस्ट्रॉलॉजर होते हैं। ज्यादातर चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं में भाग्य बताने वाले कॉलम होते हैं। यह व्यक्तिगत आस्था का मामला है। कोई इनपर यकीन करता है, तो उसके यकीन करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पर गंडे-ताबीज़, कवच और जादुई चिकित्सा के प्रचार पर हमारे देश में कानूनी रोक है। फिर भी ऐसे विज्ञापन आराम से छपते हैं।
ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टीज़मेंट्स) एक्ट 1954 के अंतर्गत कई तरह के औषधीय दावों और रोगों के इलाज की चमत्कारिक दवाओं के विज्ञापन गैर-कानूनी हैं। खासकर जिन दावों को साबित न किया जा सके। इस आरोप में छह महीने से साल भर तक की सज़ा और ज़ुर्माने की व्यवस्था है। हिन्दी या अंग्रेजी का शायद ही कोई अखबार हो, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसे दावे के विज्ञापन न छपते हों। कुछ विज्ञापनों पर ध्यान दीजिएः-
खुला चैलेंजः शक्ति चमत्कार देखें अपनी आँखों से
गुरूजी कमाल खान बंगाली

लव मैरिज, वशीकरण, सौतन, दुश्मन से छुटकारा आदि सभी का A to Z समाधान
बाबा खान बंगाली

जापानी ऑटोमेटिक इन्द्रीयवर्धक यंत्र

डायबिटीज़ः हैरतंगेज़ नई खोज

लम्बाई बढ़ाएं

नज़र रक्षा कवच

दुर्गा रक्षा कवच

इनमें मालिश करने वाले, एस्कॉर्ट्स और मैत्री के विज्ञापन भी शामिल हैं, जो अश्लीलता, अभद्रता और सार्वजनिक जीवन की मर्यादा से ताल्लुक रखते हैं। कुछ साल पहले ऋषिकेश के नीरज क्लीनिक के मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन तक ने उसमें हस्तक्षेप किया। देश की एडवर्टाइज़िंग स्टैंडर्ड काउंसिल ने भी दबाव डाला और वह विज्ञापन बंद हुआ। पर वह मनोवृत्ति कायम है। इसकी वजह विज्ञापन देने वालों के अलावा विज्ञापन लेने वाले भी हैं। केरल के अखबारों में एक विज्ञापन छपता था जिसमें ऊँचाई बढ़ाने का वादा था। नादिया नाम की एक लड़की उसके चक्कर में फँस गई। उसकी ऊँचाई बढ़ना तो बाद की बात है, चलना-फिरना मुश्किल हो गया। अंततः अपोलो अस्पताल में उसे इलाज कराना पड़ा। हालांकि इस कानून के तहत सरकारी अधिकारी अपने तईं हस्तक्षेप करके सम्बद्ध व्यक्ति या संस्था के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं, पर व्यावहारिक रूप से कुछ नहीं होता।
एडवर्टाइज़िग स्टैंडर्ड काउंसिल के दिशा-निर्देशों के अनुसार विज्ञापन को स्वीकार करते वक्त उसके नैतिक पक्ष की जाँच होनी चाहिए। विज्ञापन का अर्थ यह नहीं होता कि आप पैसा देकर कुछ भी छपवा लें। काउंसिल के सेल्फ रेग्युलेशन कोड के मुताबिक विज्ञापन देने वाले के साथ-साथ विज्ञापन बनाने वालों, उसे प्रकाशित करने वालों और इसमें सहयोग करने वालों की जिम्मेदारी भी इसमें है। यह देखना ज़रूरी है कि विज्ञापन में कही गई बातें भ्रम तो नहीं फैला रहीं। इस गैर-जिम्मेदारी से हिन्दी का पाठक ज्यादा प्रभावित होता है। खासकर दुर्गा रक्षा-कवच या शिव रक्षा-कवच की गुणवत्ता को सर्टिफाई करने वाली कोई संस्था देश में नहीं है। ऐसे कवच विज्ञापन के बगैर भी बिकेंगे, पर विज्ञापन से उसे वैधानिकता मिलती है। सरकार के पास कानून का सहारा है, जो आसानी से उसे रोक सकती है। वहीं, जिन चैनलों पर ऐसे विज्ञापन नज़र आते हैं, उनकी भी जिम्मेदारी बनती है। दिक्कत यह है कि कानूनी व्यवस्था होने के बावजूद ऐसे विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जाते हैं।
तकरीबन हर शहर में दुनिया के सारे रोगों का इलाज करने वाली दवाएं मिलतीं हैं। इसकी एक वजह हमारा अवैज्ञानिक मन, दूसरे चमत्कार में यकीन और तीसरे महंगी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था तक पहुँच न हो पाने की वजह से वैकल्पिक व्वस्था को खोजना है। विकल्प है देशी और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ। बेशक इन पद्धतियों की चिकित्सा को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। इनके पीछे हजारों साल का अनुभव है। पर इनकी आड़ में कमाई करने वाले भी हैं। अमेरिका में औषधि नियम बहुत सख्त हैं। शायद हमारे यहाँ उतना सख्त करना व्यावहारिक नहीं, पर कानून इतना लचर भी नहीं होना चाहिए कि उसका मज़ाक बन जाए। इधर अनेक चमत्कारिक दवाएं फूड सप्लीमेंट के रूप में बेची जा रहीं हैं। ताकत, स्फूर्ति और मर्दानगी की तमाम दवाएं इसी श्रेणी में आतीं हैं। हिन्दी के अखबारों में इनके विज्ञापन ज्यादा होते हैं। इसे वह वर्ग पढ़ता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के बाहर हो चुका है और जिसके पास विशेषज्ञों से कंसल्ट करने की न तो आर्थिक शक्ति है और न आत्मविश्वास। वह ठगे जाने को अभिशप्त है। उसके पक्ष में खड़े होने की ज़िम्मेदारी मीडिया की है, जो जाने-अनजाने अपनी ज़िम्मेदारी को भूल गया है।
पहले पत्रकारिता का जन्म हुआ था। उसके करीब सौ साल बाद विज्ञापन आए थे। पर सारी नकारात्मक भूमिका विज्ञापन की नहीं है। कंटेंट मे भी यही सब है। ऐसे में उसे कानून से नहीं रोका जा सकेगा। दूर-दराज़ की बात नहीं है दिल्ली के अखबारों तक में जाको राखे साइयाँ टाइप खबरें छपतीं हैं। 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दुग्धपान की खबरें छपते वक्त हम इसे देख चुके हैं। ऐसा ही दिल्ली में काले बंदर की खबरों को लेकर हुआ था। कोई रिपोर्टर खोज पर निकले तो उसे हिन्दी प्रदेशों के शहरों और कस्बों में अनेक कथाएं इस किस्म की चर्चित और प्रचारित मिलेंगी। चमत्कारी बकरी, तीन सिर वाला बच्चा, आसमान से बरसे फूल ऐसी खबरें गाहे-बगाहे अखबारों में जगह पाती हैं। लोक-रुचि के नाम पर वैज्ञानिक विषयों की खबरें भी चमत्कारिक ढंग से लिखी जाती हैं। विज्ञान को किसी अखबार ने गम्भीरता से नहीं लिया। विज्ञान के नाम पर टेक्नॉलजी खूब छपती है, क्योंकि उसका कमर्शियल पहलू है। विज्ञान बड़े स्तर पर उपेक्षित है।  
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें अंधविश्वास को बढ़ावा देने की अनुमति भी देता है। ज्योतिषीय परामर्श तक बात ठीक है, पर आए दिन चमत्कारों की कहानियों का क्या अर्थ है? वैज्ञानिक खबरों के साथ भी यही होता है। उन्हें चमत्कार के रूप में लिखने की कोशिश की जाती है। आधुनिकता सिर्फ खाने-पीने, पहनने और बोलने की रह गई है, जो वस्तुतः नकल और प्रकारांतर से पिछड़ापन है। विवेक-विचार और विश्लेषण की आधुनिकता नहीं। इसे सुधारना तभी सम्भव है जब विज्ञान और चमत्कारों के बारे में मीडिया कोई कोड ऑफ कंडक्ट बनाए। बीटी बैंगन, जेनेटिक्स और विज्ञान की नैतिकता पर विमर्श करने से अधकचरा ज्ञान रोकता है। 

Monday, June 28, 2010

जोरदार और जानदार जर्नलिज्म !!


मार्क ट्वेन ने अपने शुरुआती वर्षों में अखबारों में भी काम किया। उनकी पुस्तक रफिंग इटसे एक छोटा सा अंश आप पढ़ें :

13 साल की उम्र से ही मुझे कई तरह के रोज़ी-रोज़गारों में हाथ लगाना पड़ा। पर मेरे काम से कोई खुश नज़र नहीं आया। एक दिन के लिए परचूनी की दुकान पर क्लर्क का काम मिला, पर उस दौरान उसकी दुकान की इतनी चीनी मैने फाँक ली कि मालिक ने मुझे चलता किया। एक हफ्ता कानून की पढाई की, पर वह काम इतना लिखाऊ(प्रोज़ी) और थकाऊ था कि अपुन से नहीं बना। फिर लोहार का काम सीखा। वहाँ धौंकनी नहीं सम्हली और उस्ताद ने बाहर कर दिया। कुछ समय के लिए किताब की दुकान में मुंशी बना। वहाँ कस्टमर इतना परेशान करते थे कि आराम से कोई किताब पढ़ ही नहीं पाता था। एक ड्रग स्टोर में काम किया, वहाँ मेरे नुस्खे अभागे साबित हुए।
अपने अच्छे दिनों में मैं वर्जीनिया डेली टेरीटोरियल एंटरप्राइज़ को लैटर्स लिखता था। जब वे छपते तब मुझे बड़ा विस्मय होता। सम्पादकों के बारे में मेरी अच्छी राय भी बिगड़ने लगी। छापने के लिए उनके पास और कुछ नहीं था क्या। तभी मुझे एक रोज़ चिट्ठी मिली कि वर्जीनिया चले आइए और एंटरप्राइज़ के सिटी एडीटर बन जाइए। सो अपुन वर्जीनिया पहुँच गए, नया काम करने।
अखबार के प्रधान सम्पादक और प्रोपराइटर एम गुडमैन से मैने कहा, मुझे क्या काम करना है और कैसे करना है कुछ बताएं। उन्होंने कहा, शहर में जाओ। तमाम तरह के लोगों से मिलो। उनसे हर तरह के सवाल करो। जो जानकारी मिले उसे नोट करते रहो। दफ्तर आकर उसे लिख दो। उन्होंने फिर कहाः
यह कभी मत लिखना कि ज्ञात हुआ है या जानकारी मिली है या कहा जाता है। सीधे घटनास्थल तक जाओ, पक्की जानकारी लाओ और लिखो ऐसा-ऐसा है। वर्ना लोग तुम्हारी खबर पर विश्वास नहीं करेंगे। पक्की बात से ही किसी अखबार को इज्जत मिलती है।

मैं अपने पहले दिन को कभी नहीं भूलूँगा। मैने हरेक से सवाल पूछे। पूछ-पूछकर बोर कर दिया। मुझे अपने सम्पादक के वचन याद थे, बात पक्की होनी चाहिए। पर यहाँ तो किसी को कुछ पता नहीं था। पाँच घंटे खपाने के बाद भी मेरी नोटबुक खाली थी। मैने मिस्टर गुडमैन को सारी बात बताई। वह बोलेः
तुमसे पहले डैन यह काम करता था। उसका कमाल था कि तब भी जब आगज़नी नहीं होती, या मुकदमों की सुनवाई नहीं होती, कब भी वह सिर्फ भूसा गाड़ियों की खबरें निकाल लाता था। क्या ट्रकी से कोई भूसा गाड़ी तक नहीं आ रही है? आ रही है तो तुम भूसा बाज़ार की एक्टिविटीज़ पर खबर बना सकते हो। यह टॉपिक मज़ेदार नहीं है, पर बिजनेस न्यूज़ तो है।
मैंने शहर का मुआयना फिर किया। किसी ने किसी की हत्या कर दी थी। मैने हत्यारे का शुक्रिया अदा किया। मज़ा आ गया। फिर देखा गाँव की ओर से एक भूसागाड़ी घिसटती चली आ रही है। मैने उसे 16 से गुणा किया। फिर 16 दिशाओं से उसे शहर में प्रवेश दिलाया। इससे 16 अलग-अलग आइटम बनाए। वर्जीनिया में भूसे के कारोबार का कुछ ऐसा नजारा पेश किया जैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ।
इसके बाद मैने कुछ वैगन देखे जो बागी इंडियन इलाकों की तरफ से आ रहे थे। उन्हें कुछ हादसों का सामना करना पड़ा था। मुझे हालात ने जितनी अनुमति दी उतनी बढ़िया रपट बना दी। पर मेरे मुकाबले दूसरे अखबारों के रिपोर्टर भी तो थे। मैं चाहता था कि मेरी रपटों में उनकी रपटों से अलग कुछ और बातें हों, जो अलग नज़र आएं। एक वैगन कैलीफोर्निया की ओर जाता नज़र आया। उसके मालिक से पता करके पहले मैंने यह इतमीनान कर लिया कि अगले रोज यह इस शहर में नहीं होगा। इसके बाद उसमें बैठे यात्रियों के नाम लिखे। अपनी रपट में मैंने उस वैगन को इंडियनों की ऐसी हिंसा का शिकार बनाया जैसी इतिहास में कभी हुई न थी। लोगों के नाम की लिस्ट मेरे पास थी। मेरी खबर में वे हताहत थे।
मेरे दो कॉलम पूरे हो गए। उन्हें जब मैंने पढ़ा तो मुझे लगा कि वह धंधा मुझे मिल गया, जिसकी तलाश थी। खबरें और जोशीली खबरें ही किसी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। और मुझमें ऐसी खबरें लिखने की क्षमता है। इस इलाके के सारे लोगों को अपने पेन से मार सकता हूँ, अगर्चे ज़रूरत पड़ी और अखबार ने माँग की।…..’’

मार्क ट्वेन ने यह किताब 1870-71 में लिखी थी। इसमें पत्रकारिता से जुड़े कुछ प्रसंग हैं, जिनमें आज के संदर्भ खोजे जा सकते हैं। उनका स्मित व्यंग्य 140 साल बाद भी प्रासंगिक है। सेंसेशनल, एग्रेसिव, वायब्रेंट, एक्सक्ल्यूसिव और एंटरटेनिंग शब्द आज हवा में हैं। मीडिया में कम्पटीशन है। नया करने की चुनौती है। अखबारों और चैनलों में कुछ डिग्री का फर्क है। इसकी एक वजह है चैनलों का छोटा इतिहास और अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व। हैंगोवर से मुक्त। जो ओपन है और इंडस्ट्री की ज़रूरत को पहचानता है। अखबार उसी रास्ते पर जाना चाहते हैं। कुछ नाटकीय, हैरतंगेज़ और अविश्वसनीय। मीडिया विश्वसनीय रहे या न रहे अपनी बला से।
विश्वसनीयता की फिक्र किसे है? हाल में आर वैद्यनाथन का एक लेख पढ़ने को मिला। वे किसी ऐसी जगह गए, जहां 500 के आसपास पोस्ट ग्रेजुएट छात्र मौज़ूद थे। उन्होंने छात्रों से पूछा, आप में से कितने लोगों को मीडिया पर यकीन है? कोई दसेक हाथ उठे। हो सकता है, इससे ज्यादा लोगों को यकीन हो। कम से कम हिन्दी पाठक को है। वह कम पढ़ा-लिखा है। उसे मीडिया का सहारा है। फिर भी लगता है, इस यकीन में कमी आ रही है। या हम पाठक को धोखा दे रहे हैं। सेंशेनल शब्द आज वैसा अग्राह्य नहीं है, जैसा पहले होता था। हिन्दी में इसका एक पर्याय तेज-तर्रार है। ईमानदारी और सार्वजनिक हित पत्रकारिता की साख बढ़ाने वाले तत्व हैं। तेज़-तर्रारी और सौम्यता उसकी एप्रोच या तौर-तरीका है। पत्रकार संदेशवाहक है। लड़ाई उसकी नहीं है। खबर को सरल, रोचक और सबकी पसंदीदा बनाना एक काम है। ऑब्जेक्टिव, फेयर और एक्यूरेट बनाना दूसरा। दोनों में कोई टकराव नहीं।  
खबरों में रोचकता बढ़ी है, पड़ताल, होमवर्क और संतुलन में कमी आई है। सनसनी का तड़का है। पिछले कुछ दिनों की खबरें देखें। आईपीएल, सानिया-शोएब, भोपाल मामला, रुचिका मामला, हॉरर (या ऑनर) किलिंग्ज़, नितीश-नरेन्द्र मोदी ऐसे मामले हैं, जिन्हें न्याय कामना के बजाय सनसनी की वज़ह से कवर किया गया। बेशक मीडिया की सकारात्मक भूमिका थी, पर इसमें छिद्र हैं। न्याय करने से ज्यादा यह दिखाने की इच्छा है कि हम न्याय कर रहे हैं। हर खबर में सनसनी का न्यूज़-पैग खोजने की कोशिश हो रही है। पिछले पच्चीस साल से भोपाल से जुड़े एक्टिविस्ट अक्सर दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते रहे। किसी को ख्याल नहीं आया कि वहाँ अन्याय हो रहा है। अदालत का फैसला आने के बाद अचानक मीडिया ने तेजी पकड़ी। ऐसा ही नक्सली हिंसा के साथ है। मीडिया-प्रतिनिधि नक्सली इलाकों के भीतर जाकर सच्चाई को सामने लाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।
बर्गर जेनरेशन तेजी से निकल कर आती है। मिनटों में फैसला करती हैं और आगे बढ़ जाती है। हाल में पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ीं हैं। इसका असर क्या होगा, हर पखवाड़े कीमतों में बदलाव किस तरह होगा और सरकार सब्सिडी को घटाकर क्या करने वाली है, इसके बारे में कुछ खास काम दिखाई नहीं पड़ा। बजाय इसके एक सुपर मॉडल की आत्महत्या ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है। हिन्दी के अखबारों मे डिटेल्स एकदम कम हो गए हैं। मौसम और मॉनसून तक के बारे में वैज्ञानिक सामग्री कम है। इस बार अल-नीनो की जगह ला-नीना का असर दिखाई पड़ेगा। क्या है यह ला-नीना?  इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा? ऐसी खबरें नज़र नहीं आतीं।
दो साल पहले बिहार में कोसी की बाढ़ के साथ यही हुआ। अरसा गुज़र जाने के बाद कोसी नज़र आई। कैलीफोर्निया की आपदा फौरन नज़र आती है। अपनी आपदा दिखाई नहीं पड़ती। छोटी खबरें और छोटे पैकेज आसानी से पसंद किए जाते हैं, पर किसी न किसी जगह डिटेल्स भी चाहिए। अक्सर कवरेज एक-तरफा और अपूर्ण लगती है। ऐसा मार्केट की वजह से नहीं शॉर्ट कट्स की वजह से है। पत्रकार मेहनत करना नहीं चाहता। जल्दी स्टार बनना चाहता है। ऐसे में वे पत्रकार हार रहे हैं, जो समय लगाकर क्रेडिबल खबरें लिखना चाहते हैं।
खबर वजनदार तब होती है जब वह हमारे आसपास की हो, काफी लोगों की दिलचस्पी की हो और उसका इम्पैक्ट हो। यानी महत्वपूर्ण व्यक्ति से जुड़ी हो। अक्सर लोग सवाल उठाते हैं कि खबरों से गाँव कहाँ चला गया। एक जवाब है, जहाँ अखबार बिकता है वहाँ की खबरें ही तो होंगी। दिल्ली के अखबार के पास गाँव के लिए जगह कहाँ है। ऐसा है तो दिल्ली के स्लम्स की खबरें क्यों नहीं हैं? क्योंकि स्लम्स में रहने वाले पाठक नहीं हैं। मीडिया और पाठकों का तबका जो इस बिजनेस-सिस्टम से बाहर है, वह खबर के बाहर है।
सनसनी और खबरों की स्लांटिंग के पीछे सिर्फ मार्केट नहीं है। इसके पीछे एक कारण कम समय में कम मेहनत से ज्यादा इम्पैक्ट वाली खबर बनाने की इच्छा भी है। तथ्य संकलन में समय लगाने का वक्त नहीं है। खबर को जाँचने-बाँचने वाले भी नहीं हैं। उससे किसकी प्राइवेसी भंग हो रही है, किसके व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, यह देखने वाले भी नहीं। अपनी ताकत को लेकर एक प्रकार की एरोगैंस पत्रकार के भीतर है। वह न्यायपालिका तक पर प्रहार कर रहा है। यह शुभ लक्षण नहीं है। वह अपने को अब असाधारण मानता है क्योंकि वह बड़े लोगों के सम्पर्क में है। इसमें कोई दोष नहीं बशर्ते वह यह याद रखे कि वह मैसेंजर है, मैसेज नहीं।   

Tuesday, June 22, 2010

सब पर भारी सूचना की बमबारी


विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता चल रही है। साथ ही श्रीलंका में एशियाकप क्रिकेट प्रतियोगिता भी। देश में क्रिकेट की लोकप्रियता मुकाबले फुटबॉल के कहीं ज्यादा है। पर मीडिया की कवरेज देखें तो फुटबॉल की कवरेज क्रिकेट से ऊपर है। वह तब जब इसमें भारतीय फुटबॉल टीम खेल भी नहीं रही है। यों हिन्दी के एक मार्केट सैवी अखबार ने अपने संडे एडीशन के पहले सफे पर हैडिंग दी फुटबॉल पर भारी पड़ा क्रिकेट का रोमांच। उसी अखबार के खेल पन्नों पर फुटबॉल का रोमांच हावी था। शाब्दिक बाज़ीगरी अपनी जगह है, पर सारे रोमांच पाठक तय नहीं करते। फरबरी-मार्च में विश्वकप हॉकी प्रतियोगिता दिल्ली में हुई थी। उसकी कवरेज़ आईपीएल के मुकाबले फीकी थी। अपने अखबारों में आपको हर रोज़ एक न एक खबर फॉर्मूला कार रेस की नज़र आती है। कितना लोकप्रिय है यह खेल हमारे यहाँ? यही हाल गॉल्फ का है। टाइगर वुड हाल तक खबरों पर हावी थे। हिन्दी के कितने पाठकों की दिलचस्पी टाइगर वुड के खेल में है? कितने लोग उसके व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी रखते थे? मीडिया ने तय किया कि आपको क्या पसंद आना चाहिए।

बाजार का सिद्धांत है, जो ग्राहक कहे वह सही। पर मार्केटिंग टीमें यह तय करतीं हैं कि ग्राहक को क्या पसंद करवाना है। फुटबॉल की वैश्विक व्यवस्था क्रिकेट की वैश्विक व्यवस्था से ज्यादा ताकतवर है। यह क्या आसानी से समझ में नहीं आता? मीडिया का कार्यक्षेत्र उतना सीमित नहीं है जितना दिखाई पड़ता है। पाठक को परोसी जाने वाली खबरें और विचार इसका छोटा सा पहलू है। सरकारों, कम्पनियों, संस्थाओं और कारोबारियों के भीतर होने वाला संवाद ज्यादा बड़ा पहलू है। यह हमारे जीवन को परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। हर रोज़ हज़ारों-लाखों पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन आने वाले वक्त के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की रूपरेखा तय करते हैं। वे मीडिया का एजेंडा तय करते हैं। पाठक, दर्शक या श्रोता उसका ग्राहक है सूत्रधार नहीं।

vहमारे पाठक पश्चिमी देशों के पाठकों से फर्क हैं। हम लोग अधिकतर सद्यःसाक्षर हैं, जागृत विश्व से दूर हैं और अपने हालात को बदलने के फेर में फँसे हैं।

vहम पर चारों ओर से सूचना की जबर्दस्त बमबारी होने लगी है। इस सूचना का हमसे क्या रिश्ता है हम जानते ही नहीं। इसमें काफी सूचना हमारे संदर्भों से कटी है, पर हम इसमें कुछ कर नहीं सकते।

vमार्शल मैकलुहान के शब्दों में मीडिया इज़ मैसेज(जो बाद में मसाज हो गया)। यानी सूचना से ज्यादा महत्वपूर्ण है मीडिया। फेसबुक में मेरे अनेक मित्रों की राय है कि यहाँ गम्भीर संवाद संभव नहीं। फेसबुक दोस्त बनाने का टूल है। इसमें मस्ती ज्यादा है। संज़ीदगी डालने की कोशिश करेंगे तो उसे मंज़ूरी नहीं मिलेगी।  

vव्यक्तिगत विचार व्यक्त करने का बेहतर माध्यम ब्लॉग है, पर ब्लॉग में भी चटपटेपन को लोकप्रियता मिलती है। या उन्हें जो हमारे रोज़ के जीवन में उपयोगी हैं।

vएक बदलते समाज को देश-काल की बुनियादी बातों का पता भी होना चाहिए। खबरों के संदर्भों की जानकारी होनी चाहिए। उन्हें बताने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया आपको नहीं बताता तो आप उसका क्या कर लेंगे?

vजो हो रहा है वह सब अनाचार ही नहीं है। खेल और फुटबॉल में कोई करिश्मा ज़रूर है, जो इतने लोग उसके दीवाने हैं। उसे समझने और फिर उसे वृहत् स्तर पर मानव कल्याण से जोड़ने वाली समझ हमारे पास होनी चाहिए।

किर्गीज़िस्तान में हिंसा क्यों हो रही है? वहाँ भारतीय क्या करने गए थे? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उस पोस्टर पर क्या आपत्ति थी, जिसमें वे नरेन्द्र मोदी का हाथ पकड़ कर खड़े हैं? भाजपा और जद(यू) एक-दूसरे को पसंद नहीं करते तो मिलकर सरकार क्यों चलाते हैं? भोपाल मामला क्या है? जस्टिस अहमदी ने कानून की सीमा के बारे में जो बात कही है, वह क्या हैमसलन प्रातिनिधिक दायित्व (विकेरियस लायबिलिटी) क्या है? उसकी बारीकियाँ क्या हैं? इस तरह के हादसों से जुड़े कानून बनाने के बारे में क्या हुआ? जाति आधारित जनगणना की माँग क्यों हो रही है? उसके पक्ष में क्या तर्क हैं और उसे न कराने के पीछे क्या कारण हैं?

ऐसे अनेक सवाल एक सामान्य पाठक के मन में उठते होंगे। पर हिन्दी का सामान्य पाठक कौन है? वह विश्वविद्यालय का छात्र है, सरकारी कर्मचारी है, रिटायर कर्मचारी है, छोटा और मझोला व्यापारी है, घरेलू महिला है। इनमें किसान हैं, कुछ मज़दूर भी हैं। प्राइमरी कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक के छात्र इनमें शामिल हैं। काफी बड़ा तबका ऐसा है जो सारी बारीकियों को नहीं समझता। जानकारी उच्चस्तरीय स्पेस साइंस और कानूनी बारीकियों की हो तो दिक्कत और ज़्यादा है। उसे सही संदर्भ में जानकारी चाहिए।

जब सूचना का विस्फोट हो रहा हो, हर मिनट लाखों-करोड़ों शब्द आपकी मुट्ठी में मौज़ूद आईपैड, आईफोन, ब्लैकबैरी या मामूली मोबाइल फोन के रास्ते इधर से उधर हो रहे हों, तो उम्मीद करनी चाहिए कि देखते ही देखते समूचा समाज जानकार हो जाएगा। सब कुछ साफ हो जाएगा। एक सूचना आधारित विश्व होगा। अमर्त्य सेन के शब्दों में अकाल नहीं पड़ेंगे क्योंकि जागरूक जन समुदाय के दबाव में वितरण व्यवस्था दुरुस्त रहेगी। जानकारी पाने के अधिकार ने भी द्वार खोल दिए हैं। पर बुनियादी भ्रम दूर नहीं हो रहा, बल्कि सूचना के बॉम्बार्डमेंट के कारण बढ़ गया है। यह उस मिकैनिज्म के कारण है, जो सूचना-क्रांति को भी अपने पक्ष में मोड़ लेने की ताकत रखता है। यह वैचारिक भ्रम नहीं है। सूचना का भ्रम है।  

पिछली पीढ़ी बताती है कि शुरू में लोग रोज़ चाय पीने के आदी नहीं थे। चाय को लोकप्रिय बनाने के लिए कम्पनियों ने कई तरह के काम किए। ऐसा डालडा के साथ भी हुआ। लोग नूडल्स खाने के आदी नहीं थे, पर मार्केटिंग ने आदी बनाया। पीत्ज़ा, बर्गर और कोक के साथ भी ऐसा ही हुआ। हुक्के की जगह सिगरेट ने ली। देसी की जगह अंग्रेजी शराब ने ली। इसमें दो तत्वों की भूमिका थी। एक संदेश की और दूसरे ग्राहक की। संदेश आधुनिक बनने का है। लोग अपने बच्चों के करियर के लिए अपना पैसा, समय और ऊर्जा खर्च करते हैं। इन बच्चों को टार्गेट बनाकर बाज़ार अपनी मार्केटिंग रणनीति तय करता है।

चेंज या बदलाव नई जेनरेशन जल्दी स्वीकार करती है। इसलिए तकरीबन हर प्रोडक्ट में मस्ती का भाव है। यह मस्ती युवा वर्ग का एक सहज गुण है। पर यही एक गुण नहीं है। युवा वर्ग में उत्कंठा या जिज्ञासा भी होती है। वह आदर्शों से प्रेरित होता है और रोमांचकारी काम करने को तैयार रहता है। नूडल्स और टूथपेस्ट बेचने के पीछे व्यावसायिक प्रवृत्ति है। पूँजी को बढ़ाने की इच्छा है। सही संदर्भ में जानकारी देना, सामाजिक बदलाव के लिए तैयार करना और देश-दुनिया की व्यापक समझ बनाना उसकी प्राथमिकता नहीं है। तब फिर किसकी प्राथमिकता है? इस रासते पर बढ़ने के लिए हमारे पास इंसेंटिव क्या हैं?  और हम किसी को ज़िम्मेदार-जागरूक बनाना ही क्यों चाहते हैं?

सामाजिक जीवन में निजी प्रॉफिट-लॉस एक तरफ हैं और सार्वजनिक प्रॉफिट-लॉस दूसरी तरफ। सार्वजनिक हित भी किसीकी जिम्मेदारी है, खासकर मीडिया के संदर्भ में। कौन है जिसे सार्वजनिक हित के बारे में सोचना चाहिए? या तो पाठक को या सरकार को। आर्थिक विकास के वर्तमान मॉडल को आप न मानें तब भी चलना उसके ही साथ है। कोई विकल्प सामने नहीं है। इसलिए जो है उसके अंतर्विरोध ही बेहतर परिस्थिति का निर्माण करेंगे। ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति चेतना उस सार्वजनिक संकट से उपजी है, जो सबके सामने खड़ा है। बेहतर शिक्षा-व्यवस्था की ज़रूरत आर्थिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं को है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए शिक्षित और जागरूक जन-समूह चाहिए। यह शिक्षित जन-समूह बेहतर मीडिया के सहारे शक्ल लेता है और फिर बेहतर मीडिया को शक्ल देता है। विकसित और शिक्षित समाजों में ऐसा ही हुआ है।

हमारे मीडिया में जो भ्रम है वह सारी दुनिया के मीडिया में नहीं है। पश्चिमी देशों के टेबलॉयड अखबारों और संजीदा अखबारों में जो अंतर है वह हमारे यहाँ नहीं है। हमारे ब्रॉडशीट अखबार टेबलॉयड का काम भी कर रहे हैं। टीवी पर बीबीसी की खबरें वैसी ही हैं, जैसी होती थीं। बीबीसी से तुलना न करें, फॉक्सन्यूज़ भी भारतीय चैनलों के मुकाबले सोबर है। इसकी वजह दर्शक की उदासीनता भी है। शायद ही कोई दर्शक अपनी नाराज़गी मीडिया हाउस तक लिख कर भेजता है। वह अपनी जानकारी को लेकर उदासीन है। या प्राप्त जानकारी से संतुष्ट। अभी इस मीडिया के अंतर्विरोध उभरे नहीं हैं। फिलहाल हमारे सामने दो विकल्प हैं या तो हम समानांतर मीडिया तैयार करें, जिसके लिए पूँजी चाहिए। या फिर सूचना के सही संदर्भों से जुड़े बाज़ार के विकसित होने का इंतज़ार करें। ये सूचना-संदर्भ लोकतांत्रिक-व्यवस्था का कच्चा माल है। यह इस बाज़ार-व्यवस्था का विरोधी भी नहीं है। लोकतंत्र अपने आप में एक बड़ी बाज़ार व्यवस्था है।