Saturday, February 6, 2021

महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष बने नाना पटोले

काफी खींचतान के बाद महाराष्ट्र कांग्रेस को नाना पटोले के रूप में नया अध्यक्ष मिल गया है। पिछले एक महीने से इस पद को लेकर खींचतान चल रही थी। पटोले की जीत तब लगभग पक्की हो गई थी, जब वे बुधवार को राहुल गांधी से दिल्ली में मिले थे। यह मुलाकात 10, जनपथ में हुई थी। नाना पटोले के साथ कांग्रेस हाईकमान ने 6 कार्यकारी अध्यक्ष और 10 उपाध्यक्ष की मजबूत टीम भी बनाई है। यह टीम राज्य में किस प्रकार से काम करेगी यह देखना दिलचस्प होगा। इसके अलावा कांग्रेस के पार्लियामेंट्री बोर्ड में कुल 35 सदस्यों का समावेश किया गया है।

Friday, February 5, 2021

विदेश सेवा के पूर्व अफसरों ने किसान-आंदोलन पर पश्चिमी देशों को लताड़ा


भारत में आर्थिक सुधारों के पीछे सबसे बड़ा कारण वैश्वीकरण है, जिसे लेकर पश्चिमी देशों का जोर सबसे ज्यादा है। नब्बे के दशक में विश्व व्यापार संगठन बन जाने के बाद वैश्विक कारोबार से जुड़े मसले लगातार उठ रहे हैं। इन दिनों भारत में चल रहा किसान आंदोलन वस्तुतः कारोबार के उदारीकरण की दीर्घकालीन प्रक्रिया का एक हिस्सा है। इसके तमाम पहलू हैं और उन्हें लेकर कई तरह की राय हैं, पर भारत में और भारत के बाहर सारी बहस किसान-आंदोलन के इर्द-गिर्द है। लोग जो भी विचार व्यक्त कर रहे हैं, वो दोनों मसलों को जोड़कर बातें कर रहे हैं।

बहरहाल इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाने के पहले इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक खबर का हवाला देना बेहतर होगा। भारत की विदेश-सेवा से जुड़े  20 पुराने अधिकारियों ने विश्व व्यापार संगठन के नाम एक चिट्ठी लिखी है। इस पत्र में वस्तुतः डब्लूटीओ, अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी देशों के राजनीतिक समूहों को कोसा है। इसका आशय यह है कि आप हमें बाजार खोलने का सुझाव भी देंगे और ऊपर से नसीहत भी देंगे कि ऐसे नहीं वैसे चलो। यह हमारे देश का मामला है। हमें बाजार, खाद्य सुरक्षा और किसानों के बीच किस तरह संतुलन बनाना है, यह काम हमारा है। खेती से जुड़े कानून इस संतुलन को स्थापित करने के लिए हैं। यह तो आपका दोहरा मापदंड है। एक तरफ आप वैश्विक खाद्य बाजार के चौधरी बने हुए हैं और दूसरी तरफ किसान-आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।

Thursday, February 4, 2021

राजेंद्र माथुर का लेख: एक सफेदपोश स्वर्ग

 


आज अचानक मेरे मन में राजेन्द्र माथुर के एक पुराने आलेख को फिर से छापने की इच्छा पैदा हुई है। यह इच्छा निर्मला सीतारमन के बजट पर मिली प्रतिक्रियाओं के बरक्स है। यह लेख  नई दुनिया के समय का यानी सत्तर के दशक का है। इसमें आज के संदर्भों को खोजने की जरूरत नहीं है। इसमें समाजवाद से जुड़ी परिकल्पना और भारतीय मनोदशा का आनंद लेने की जरूरत है। आज वामपंथ एक नए रूप में सामने आ रहा है। राजेंद्र माथुर को पसंद करने वाले काफी हैं, पर काफी  लोग उन्हें नापसंद भी करते हैं। आज वे जीवित होते तो पता नहीं राष्ट्रवाद की उनकी दृष्टि क्या होती, पर उस दौर में भी उन्हें संघी मानने वाले लोग थे। वे नेहरू के प्रशंसक थे, भक्त नहीं। बहरहाल इस आलेख को पढ़िए। कुछ समय बाद मैं कुछ और रोचक चीजें आपके सामने रखूँगा। 

 प्रजातंत्रीय भारत में समाजवाद क्यों नहीं आ रहा है, इसका उत्तर तो स्पष्ट है। समाजवाद के रास्ते में सबसे बड़ा अड़ंगा स्वयं भारत की जनता है, वह जनता जिसके हाथ में वोट है। यदि जनता दूसरी होती, तो निश्चय ही समाजवाद तुरंत आ जाता। हमने जिस ख्याल को समाजवाद का नाम देकर दिमाग में ठूंस रखा है, उसे मार्क्स, लेनिन, माओ किसी का भी समाजवाद नहीं कह सकते। इस शब्द का अर्थ ही हमारे लिए अलग है।

 समाजवाद का अर्थ इस देश के शब्दकोश में मजदूर किसानों का राज नहीं है, पार्टी की तानाशाही नहीं है, पुरानी व्यवस्था का विनाश नहीं है, नए मूल्यों का निर्माण नहीं है। हमारे लिए समाजवाद का अर्थ एक सफेदपोश स्वर्ग है, जिसमें इस देश का हर नागरिक 21 साल पूरा करते ही पहुंच जाएगा। यह ऐसा स्वर्ग है, जिसमें किसानी और मजदूरी की जरूरत ही नहीं होगी। ऐसा कोई वर्ग ही नहीं होगा, जिसे बदन से मेहनत करनी पड़े। रूस ने अपने संविधान में काम को बुनियादी अधिकार माना है, लेकिन भारत के सफेदपोश स्वर्ग में काम की कुप्रथा का हमेशा के लिए अंत कर दिया जाएगा।

 बेशक जो मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग हैं, वे कोई सफेदपोश स्वर्ग नहीं, बल्कि अपनी नारकीय गरीबी से जार-सी राहत चाहते हैं। वे करोड़ों हैं, शायद 80 प्रतिशत हैं, लेकिन वे बेजुबान, असंगठित और राजनीतिविहीन हैं। शायद वे इस तरह वोट देते हैं, जैसे रोटरी क्लब के अध्यक्ष पद के लिए पूरे इन्दौर की जनता वोट देने लगे। राजनीति का क्लब थोड़े से लोगों का है, लेकिन वोट देने का अधिकार सभी को है। शायद भारत के सबसे गरीब लोग अभी इतने असंतुष्ट भी नहीं हुए हैं कि वर्तमान व्यवस्था को हर कीमत पर तहस-नहस कर डालें।

इंदिरा गांधी और जगजीवन राम गरीबी हटाने की चाहे जितनी बात करें, लेकिन जो गरीबी राजनैतिक रूप से दुखद नहीं है, वह कभी नहीं हटेगी। जिस बच्चे ने चिल्लाना नहीं सीखा है, वह बिना दूध के भूखा ही मरेगा। वह यों भी हमेशा भूखों मरता आया है और तृप्ति को उसने कभी अपना अधिकार नहीं माना है। यह सर्वहारा वर्ग अभी राजनीति से विलग है, इसलिए रूस या चीन जैसा समाजवाद इस देश में नहीं आ सकता।

Wednesday, February 3, 2021

आठ नए शहरों का विकास होगा


शहरी क्षेत्रों के विस्तार की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार आठ नए शहर विकसित करेगी। 15वें वित्त आयोग ने भी आठ राज्यों में आठ नए शहर बसाने के लिए आठ हजार करोड़ रुपये देने की सिफारिश की है। शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी कई मौकों पर कह चुके हैं कि 2030 तक देश की 40 फीसद आबादी के शहरों में निवास करने की संभावना है।

केंद्रीय आवास एवं शहरी मामलों के सचिव दुर्गा शंकर मिश्र ने संवाददाताओं को बताया कि अपने तरह की इस पहली परियोजना के क्रियान्वयन के लिए मंत्रालय जल्द ही विस्तृत रूपरेखा जारी करेगा। यह पूछे जाने पर कि क्या ये शहर ग्रीनफील्ड परियोजना का हिस्सा होंगे, तो मिश्र ने कहा, 'हां, हम नए शहर विकसित करने के बारे में एक प्रणाली बनाएंगे…सरकार इसके लिए एक रूपरेखा तैयार करेगी, जिसमें छह महीने से एक साल तक का समय लग सकता है।'

देश में पिछले कई वर्षों से कोई भी नया शहर नहीं बसाया गया है। वित्त आयोग ने नए शहरों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ रुपये मंजूर किए हैं। हर नए शहर के लिए एक हजार करोड़ रुपये होंगे। देश को नए शहरों की जरूरत है। जब तक हमारे पास नियोजित शहर नहीं होंगे, विकास के नतीजे नहीं मिलेंगे। मिश्र ने शहरों के बाहर के सटे इलाकों को विकसित किए जाने के भी संकेत दिए।

Tuesday, February 2, 2021

बजट की कवरेज


देश के पत्रकारों और उनके संस्थानों की राजनीतिक समझ को लेकर अतीत में जो धारणाएं थीं, वे समय के साथ बदल रही हैं। मैं यहाँ मीडिया शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया भी आ जाते हैं, जिन्हें मैं यहाँ शामिल करना नहीं चाहता। प्रिंट मीडिया के पास अपेक्षाकृत सुगठित मर्यादा और नीति-सिद्धांत रहे हैं, भले ही उनमें कितनी भी गिरावट आई हो, पर खबरें और विचार लिखने का एक साँचा बना हुआ है। दूसरी तरफ अखबारों के दृष्टिकोण भी झलकते रहे हैं, भले ही वे संपादकों के व्यक्तिगत रुझान-झुकाव के कारण हों या मालिकों के कारण। मसलन इन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों को एक हद तक तटस्थ और मौका पड़ने पर सरकार की तरफ झुका हुआ माना जाता है। इंडियन एक्सप्रेस प्रायः सरकार से दूरी रखता है, पर आर्थिक नीतियों में सरकार का समर्थन भी करता है।

हिन्दू पर वामपंथी होने का बिल्ला है और टेलीग्राफ पर बुरी तरह मोदी-विरोधी होने की छाप है। यह छवि सायास ग्रहण की गई है। यह प्रबंधन के समर्थन के बगैर संभव नहीं है, पर इसी कंपनी के एबीपी न्यूज की कवरेज बताती है कि मीडिया कंपनियाँ किस तरह अपने बाजार और ग्राहकों का ख्याल रखती हैं।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों पर भले ही गोदी मीडिया की छाप लगी हो, पर प्रिंट में ज्यादातर पत्रकार आपको सत्ता-विरोधी मिलेंगे। इस अर्थ में मोदी-विरोधी। कभी दूसरी सरकार आएगी, तो उसके भी विरोधी। यह उनकी सहज दृष्टि है। आप दिल्ली के या किसी और शहर के प्रेस क्‍लब में इस बात का जायजा ले सकते हैं। बहरहाल आज की बजट कवरेज में आपको केवल बजट की कवरेज ही नहीं मिलेगी, बल्कि अखबारों का रुझान भी दिखाई पड़ेगा। इन बातों की विसंगतियों पर भी ध्यान दीजिएगा। मसलन हिंदू की कवरेज में कॉरपोरेट हाउसों के विचार को काफी जगह दी गई है। पर संपादकीय पेज पर अपनी परंपरागत विचारधारा से जुड़े रहने का आग्रह है। फिर भी संपादकीय के रूप में अखबार का आधिकारिक वक्तव्य सीपी चंद्रशेखर के लीड आलेख से अलग लाइन पर है।

ये कुछ मोटे बिंदु हैं। बजट पर व्यापक चर्चा मैं सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबलिटी (सीबीजीए) की वैबसाइट पर जाकर पढ़ता हूँ, जो 4 फरवरी को होगी। फिलहाल आज की कवरेज की कुछ तस्वीरों को शेयर करने के साथ कुछ संपादकीय टिप्पणियाँ पढ़ने का सुझाव दूँगा, जो इस तरह हैं:-

बिजनेस स्टैंडर्ड का संपादकीय

व्यापक यथास्थिति, कुछ सुधार

यदि महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात की जाए तो प्रथमदृष्ट्या बजट में कुछ खास बदलाव नहीं नजर आता। हां, सरकार के राजकोषीय रूढ़िवाद और उसकी व्यय नीति तथा कई मोर्चों पर सुधार को लेकर उसकी सकारात्मक इच्छा में अवश्य परिवर्तन नजर आया। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को लेकर व्यापक बदलाव, बीमा कंपनियों में विदेशी स्वामित्व बढ़ाने, सरकारी परिसंपत्तियों का स्वामित्व परिवर्तन, सरकारी बैंकों का निजीकरण और नई परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी (बैड बैंक) जैसा पहले खारिज किया गया वित्तीय क्षेत्र सुधार और विकास वित्त संस्थान शामिल हैं। इनमें से अंतिम दो उपाय तो ऐतिहासिक रूप से नाकाम रहे हैं लेकिन शेष का स्वागत किया जाना चाहिए। शेयर बाजार उत्साहित है क्योंकि सुधारों का प्रस्ताव रखा गया और एकबारगी उपकर भी नहीं लगा है जबकि इसकी आशंका थी। स्थिर कर नीति अपने आप में एक बेहतर बात है लेकिन बजट को लेकर किए गए वादों से इतर उसके वास्तविक प्रस्ताव शायद उत्साह को कम कर दें।