Sunday, June 23, 2013

पर्यावरण और लोकविश्वास


'नदी किनारे बसने वालों का परिवार नहीं बचता'




अपना पर्यावरण बचाने के लिए हिमालयी समाजों के अपने परंपरागत तौर-तरीक़े रहे हैं. विशेष रूप से उत्तराखंड में प्रकृति के संरक्षण की समृद्ध परंपरा रही है.

आप ऊपर के इलाक़ों में जाएँ तो पाएँगे कि वहाँ गाँवों के बुज़ुर्ग जंगलों और घाटियों में चलते हुए ऊँची आवाज़ों में बोलने से मना करते हैं. कहा जाता है कि इससे वन देवियाँ नाराज़ हो जाती हैं.

हम ऊँचाई में पड़ने वाले बुग्यालों में जूते पहनकर नहीं जाते थे. मौसम से पहले ब्रह्म कमल और फेन कमल जैसे सुंदर फूलों को नहीं तोड़ने की परंपरा रही है.

मनपाई बुग्याल से रुद्रनाथ के रास्ते पर एक बार हम पशुपालकों के छप्परों में उनके साथ रहे. ऐसी ऊंचाई वाली जगहों पर ब्रह्म कमल और फेन कमल पाया जाता है. इसका दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

पूर्णमासी को नंदा देवा या वन देवी की पूजा की जाती है. उसके बाद सुबह ही कमल को तोड़ा जाता है. पशुपालकों के पास कोई दवा तो होती नहीं है. वे दर्द से राहत के लिए कमल की राख पेट पर मलते हैं.

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प्रलय का शिलालेख

अनुपम मिश्र

सन् 77 की जुलाई का तीसरा हफ्ता। चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब सी खामोशी है। यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी बिरही का जलस्तर भी बढ़ता जा रहा है। उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकरा कर गूंज भी रही है।

फिर भी चमोली-बद्रीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को आज सब कुछ शांत सा लग रहा है। आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे, देख चुके थे। इनके घर, खेत व ढोर इस प्रलय में बह चुके थे। उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था। कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएं, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सब के बीच से किसी तरह रास्ता बना कर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है।

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हमारे लालच की शिकार हुई गंगा

वंदना शिवा के भाषण के अंश

देहरादून में जन्मी वंदना शिवा का नाम पर्यावरण आंदोलन के बड़े नेताओं में गिना जाता है। उन्होंने पर्यावरण व वैश्वीकरण पर करीब बीस किताबें लिखी हैं। इलाहाबाद में ‘शक्ति और प्रकृति’ विषय पर बोलते हुए उन्होंने लोगों से गंगा को बचाने का आह्वान किया। भाषण के अंश:

जीवन की प्रेरणा
यह मां गंगा की प्रेरणा है कि आज हम सब यहां एकत्र हुए हैं। गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है, यह एक आध्यात्मिक प्रेरणा है। आज गंगा के प्रदूषण पर बहस हो रही है। हम सब जानते हैं कि प्रकृति कभी प्रदूषण नहीं फैलाती है। गंगा में गंदगी फैलाने वाले हम ही हैं। हम विकास की गलतफहमी में गंगा को बरबाद करने पर तुले हैं। गंगा तो हमेशा से अविरल व निर्मल रही है। हमने बांध के नाम पर गंगा के रास्ते में रुकावटें पैदा कीं। बांध बिल्कुल कोलेस्ट्रॉल की तरह है। जैसे कोलेस्ट्रॉल हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं है, वैसे ही बांध गंगा की सेहत के लिए ठीक नहीं है। उद्गम स्थल से तो गंगा निर्मल ही बहती है, यह तो हम इंसान हैं, जो गंगा में गंदगी फेंककर इसे मैला कर देते हैं।
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आपदा के प्रकोप से बच सकते हैं हम

राधिका मूर्ति स्विट्जरलैंड में ‘डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट’ विशेषज्ञ हैं। फिजी में पली-बढ़ी राधिका का पालन-पोषण ऐसे इलाकों में हुआ जहां अक्सर तूफान और सुनामी आया करते हैं। उनका मानना है कि इंसान सजग रहे तो प्राकृतिक आपदाओं को कम किया जा सकता है। पेश हैं उनके एक भाषण के अंश:

प्रकृति का कहर

मुझे आज भी अपने स्कूल का वह पहला दिन याद है। हम सब बच्चे खाली जमीन पर बैठे थे। ऊपर खुला आसमान था। हमारे पीछे दीवार के रूप में बस एक टेंट लगा था। टेंट के उस पार था तूफान का खौफनाक मंजर। तब मैं बहुत छोटी थी, इसलिए तूफान की त्रासदी का अंदाजा नहीं था। लेकिन बड़े होने पर पता चला कि कितना मुश्किल होता है प्रकृति के कहर से जूझना। मेरा पालन-पोषण फिजी में हुआ। फिजी दुनिया भर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। यहां के खूबसूरत समुद्री किनारे, विशाल ताड़ के पेड़ और लोगों केमुस्कुराते चेहरे पर्यटकों को खींच लाते हैं। लेकिन इन लुभावने नजारों के बीच कुछ डरावनी और दिल दहलाने वाली प्रकृति की लीलाएं भी हैं जिनसे हम अक्सर रूबरू होते हैं। तूफान, बाढ़ और भूस्खलन के रूप में डरावने  वाले प्रकृति के रौद्र से लड़ना आसान नहीं होता। सच कहूं तो बचपन में हमारे लिए तूफान और बाढ़ की घटनाएं दिलचस्प किस्से हुआ करते थे। लेकिन धीरे-धीरे मुझे इनकी गंभीरता का अहसास हुआ। मैं अपने माता-पिता की समझदारी और हौंसले को सलाम करती हूं जिन्होंने मुझे ऐसी आपदाओं के कहर से बचाकर रखा।

मानव व्यवहार

प्राकृतिक आपदाओं के लिए मानव व्यवहार कितना जिम्मेदार है? जब मैंने आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में काम शुरु किया तो कई अहम बातें सामाने आईं। सबसे बड़ी बात यह है कि बहुत सारे लोग प्राकृतिक आपदा को ईश्वर का प्रकोप समझते हैं। उनका मानना है कि बाढ़ और तूफान के जरिए ईश्वर हम इंसानों को हमारे पापों के लिए सजा देते हैं। जाहिर है ऐसे में हमारे लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि हमारी किन हरकतों की वजह से प्रकृति को नुकसान हो रहा है और हम खुद को कैसे आपदाओं के कहर से बचा सकते हैं। हमें आपदाओं की असली वजहों को समझना होगा।

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यादों का एक सफा, स्याह और सफेद

दो रोज़ बाद इमर्जेंसी के 38 साल पूरे हो जाएंगे। उस दौर को हम कड़वे अनुभव के रूप में याद करते हैं। पर चाहें तो उसे एक प्रयोग के नाम से याद कर सकते हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का एक पड़ाव। वह तानाशाही थी, जिसे लोकतांत्रिक अधिकार के सहारे लागू किया गया था और जिसका जिसका अंत लोकतांत्रिक तरीके से हुआ। इंदिरा गांधी चुनाव हारकर हटीं थीं। या तो वे लोकतांत्रिक नेता थीं या उनकी तानाशाही मनोकामनाएं इतनी ताकतवर नहीं थी कि इस देश को काबू में कर पातीं। इतिहास का यह पन्ना स्याह है तो सफेद भी है। इमर्जेंसी के दौरान भारतीय और ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का अंतर स्पष्ट हुआ। हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं की ताकत और उनकी प्रतिबद्धता भी उसी आग में तपकर खरी साबित हुई थी। भारत की खासियत है कि जब भी परीक्षा की घड़ी आती है वह जागता है।

सन 1975 के जून महीने में दो बड़ी घटनाएं हुईं। दोनों एक-दूसरे से जुड़ी थीं। 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली से लोकसभा चुनाव को खारिज कर दिया। इसकी परिणति थी 25 जून को इमर्जेंसी की घोषणा। उस दौर ने हमें कुछ सबक दिए थे। लोकतांत्रिक प्रतिरोध किस प्रकार हो। स्वतंत्रता कितनी हो और उसका तरीका क्या होगा। और यह भी कि उसपर बंदिशें किस प्रकार की हों। इन बंदिशों से बचने का रास्ता क्या होगा वगैरह। यह इमर्जेंसी का सबक था कि 1971 में जीत का रिकॉर्ड कायम करने वाली कांग्रेस सरकार 1977ने 1977 में हार का रिकॉर्ड बनाया। सन 1977 के पहले 1967 और 1957 ने भी कुछ प्रयोग किए थे। 1957 में देश में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। पश्चिम के विश्लेषकों के लिए 1957 का वह प्रयोग अनोखा था। चुनाव जीतकर कोई कम्युनिस्ट सरकार कैसे बन सकती है? और 1959 में जब वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह दूसरा अजूबा था। दोनों प्रयोग शुद्ध भारतीय थे। इसके बाद 1967 में गैर-कांग्रेसवाद की दूसरी लहर आई जिसने गठबंधन की राजनीति को जन्म दिया और जिसकी शक्ल आज भी पूरी तरह साफ नहीं हो पाई है।

प्रकृति के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि बनाएं

हालांकि हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के खतरों के बारे में एक अरसे से बहस करते रहे हैं, पर उत्तराखंड के हादसे ने पहली बार इतनी गम्भीरता से इस सवाल को उठाया है। और उतनी ही गम्भीरता से इस बात को रेखांकित किया है कि व्यवस्था ऐसे हादसों का सामना करने को तैयार नहीं है।

इस साल मॉनसून समय से काफी पहले आ गया है। मॉनसून आने के ठीक पहले महाराष्ट्र सहित देश के कुछ हिस्से सूखे का सामना कर रहे थे। अचानक पता लगा है कि भारतीय उप महाद्वीप में औसत तापमान चार डिग्री बढ़ गया है। ये बातें इशारा कर रहीं हैं कि अपने आर्थिक विकास और प्राकृतिक संतुलन पर गम्भीरता सेविचार करें।

उत्तराखंड का हादसा क्या केवल अतिवृष्टि के कारण हुआ? अतिवृष्टि तो पहले भी होती रही है। और भविष्य में भी होगी। अतिवृष्टि ने मौसम के बदलाव की ओर संकेत किया है तो भारी संख्या में मौतों ने आपदा प्रबंधन की पोल खोली है। हादसे में मरने वालों की संख्या अभी तक बताई जा रही आधिकारिक संख्या से कहीं ज्यादा और कई गुना ज्यादा है। इसका दुष्प्रभाव सारे अनुमानों से ज्यादा भयावह है।

मदद करने वाली एजेंसियों और सरकार ने इसकी शिद्द्त को समझने में देर की। फिर भी जल्दबाज़ी में निष्कर्ष निकालने के बजाय हमें उन बातों पर ध्यान देने की कोशिश करनी चाहिए जो इसके पीछे हो सकती हैं। साथ ही उन कदमों पर विचार करना चाहिए जो उठाए जाने चाहिए।

Saturday, June 22, 2013

गली-गली तैयार हैं प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी

जनता पार्टी एक प्रकार का गठबंधन था, नहीं चला। जनता दल भी गठबंधन था। राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा भी गठबंधन थे जो साल, डेढ़ साल से ज्यादा नहीं चले। इनके बनने के मुकाबले बिगड़ने के कारण ज्यादा महत्वपूर्ण थे। राजनीतिक गठबंधनों का इतिहास बताता है कि इनके बनते ही सबसे पहला मोर्चा इनके भीतर बैठे नेताओं के बीच खुलता है। पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है। इस उम्मीद ने लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री पद के दो-दो तीन-तीन दावेदार पैदा कर दिए हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ये मोर्चे बनने से पहले ही टूटने लगते हैं। वर्तमान कोशिशें भी उत्साहवर्धक संकेत नहीं दे रहीं हैं।

छत्रप शब्द पश्चिमी लोकतंत्र से नहीं आया है। आधुनिक भारतीय राजनीति पर परम्परागत क्षेत्रीय सूबेदारों के हावी होने की वजह है हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता। एक धीमी प्रक्रिया से क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयता का समागम हो रहा है। प्रमाण है पार्टियों की बढ़ती संख्या। सन 1951 के चुनाव में हमारे यहाँ 14 राष्ट्रीय और 39 अन्य पार्टियाँ थीं। इनमें से 11 राष्ट्रीय पार्टियों के 418, अन्य के 34 और 37 निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में 363 पार्टियाँ उतरीं थीं। इनमें 7 राष्ट्रीय, 34 प्रादेशिक और 242 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं। इनमें से 38 पार्टियों के और 9 निर्दलीय सांसद वर्तमान लोकसभा में हैं।

Friday, June 21, 2013

ग्लोबल वॉर्मिंग ने बदला मॉनसून का स्‍वरूप


भारत के लिए चेतावनी है भीषण बाढ़ : ग्रीनपीस

पिछले दिनों हुइ मूसलाधार बारिश से भारत के उत्तरी राज्यों में बाढ़ की तबाही और विश्‍व बैंक की ओर से जारी रिपोर्ट- पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ग्रीनपीस ने भारत सरकार से अपील की है कि वह जलवायु परिवर्तन के चलते हो रही आपदाओं को गंभीरता से ले क्योंकि भारत और दक्षिण एशिया क्षेत्र में इसके जलवायु परिवर्तन का असर बेहद चौंकाने वाला हो सकता है।

ग्रीनपीस की जलवायु और ऊर्जा मामलों की कैंपेन मैनेजर विनूता गोपाल कहती हैं, “तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी भारत सहन नहीं कर सकता। उत्तरी भारत में बाढ़ और महाराष्ट्र के सूखा यह दर्शाता है कि हमारे मानसून का जीवन ख़तरे में है. विकास और संपन्नता के नाम पर जीवाश्म ईंधनों का जमकर दोहन किया जा रहा है, लेकिन तेजी से इनका विपरीत असर देखने को मिल रहा है। अगर हम जलवायु परिवर्तन को नजरअंदाज करते रहे तो अल्प अवधि के लिए होने वाले आर्थिक लाभ का कोई मूल्य नहीं होता। इससे हम कई दशक पीछे चले जाते हैं और लाखों लोग गरीबी की चपेट में आ जाते हैं।”

वर्ल्ड बैंक की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से जल संसाधनों पर पड़ने वाले विपरीत असर से ऊर्जा सुरक्षा पर संकट गहराता जा रहा है। भारत अपनी ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए थर्मल और हाइड्रो प्वार प्लांट पर निर्भर है। नए पावर प्लांटों में करीब 80 फ़ीसदी प्लांट कोयले से चलने वाले हैं और महाराष्ट्र में इस साल के सूखे के चलते थर्मल प्वार प्लांट को चलाने के लिए जलापूर्ति का होना मुश्किल दिख रहा है। इसके अलावा इलाके के लोगों के सामने पेय जल और सिंचाई का संकट भी है।

महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के वर्धा और वेनगंगा नदी पर ग्रीनपीस के अध्ययन से ये बात पहले ही सामने आ चुकी है कि सामान्य बारिश के बावजूद इलाके के थर्मल पावर प्लांटों में हर कुछ साल बाद जलापूर्ति का संकट होता है और इसके चलते उन्हें बंद करने की नौबत आ जाती है।

विनूता गोपाल कहती हैं, “कोयले पर बढ़ती हमारी निर्भरता की कीमत ना केवल पर्यावरण को चुकानी पड़ी रही है बल्कि स्थानीय समुदायों पर इसका असर पड़ रहा है और कोयलते के बढ़ते आयात से अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो रही है। अधकचरे जीवाश्म ईंधनों पर निवेश को कम कर और अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल करने संबंधी क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा दें तो हम अपनी ऊर्जा संबंधी जरूरतों को हासिल कर सकते हैं. इतना ही नहीं इससे वायुमंडल का तापमाना 2 डिग्री सेल्सियस तक नीचे लाने में मदद मिलेगी। इसके जरिए हम जलवायु परविर्तन के भयावह परिणामों पर अंकुश लगा सकते हैं।”

विनूता गोपाल ने उम्मीद जताई है कि वर्ल्ड बैंक अब इस दिशा में पहल करेगा और अपनी ऊर्जा क्षेत्र में अपने अनुदान का पूरा हिस्सा अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने के लिए जारी करेगा जिसेस गरीबों को वास्तविकता में मदद मिल पाए।

यह जाहिर है कि अक्षय ऊर्जा का विकल्प ही ऊर्जा संकट का समाधान और सतत विकास का रास्ता है। ऐसे में सरकार को इस दिशा में पहल करनी होगी। भारत सरकार को 2020 तक अपनी कुल ऊर्जा का 20 फ़ीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र से हासिल करने को राष्ट्रीय लक्ष्य बनाना चाहिए। वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस कम करने के लिए दुनिया को साफ सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल की ओर तेजी से कदम बढ़ाने की जरूरत है।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें 
विनुता गोपाल, जलवायु व ऊर्जा  अभियान संचालक ग्रीनपीस, +919845535418]vinuta.gopal@greenpeace.org
सीमा जावेद, मीडिया अधिकारी, +919910059765seema.javed@greenpeace.org

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