Sunday, February 20, 2011

बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?


ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।  

जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश 
गिरिजेश कुमार



“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |

Saturday, February 19, 2011

अब ऑनलाइन वोटिंग के बारे में विचार करें

लखनऊ से श्री यशवंत माथुर ने मेरे पास एक लेख भेजा है ऑनलाइन वोटिंग पर। हालांकि हमारे देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से मतदान हो रहा है। उसे लेकर कुछ आपत्तियाँ भी हैं, पर उसका फायदा साफ देखने को मिला है। 


ऑनलाइन वोटिंग का मतलब है इंटरनेट या किसी दूसरे ज़रिए से वोटिंग। इसमें दिक्कत कुछ भी नहीं है। इस तरीके का इस्तेमाल अब काफी हो रहा है। पिछले दिनों आपने दुनिया के सात आश्चर्यों के बारे में फैसला ऑनलाइन वोटिंग से होता देखा। भारत के रियलिटी शो एसएमएस से वोटिंग कराते हैं। हम इनकम टैक्स रिटर्न जब ऑनलाइन भर सकते हैं तब वोट देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। असली दिक्कत हार्डवेयर की है। अभी न तो उतने नेट कनेक्शन हैं और न उतनी अच्छी ब्रॉडबैंड सेवाएं।

Friday, February 18, 2011

एस्बेस्टस कारखाना

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में लग रहे एस्बेस्टस कारखाने के विरोध के सिलसिले में मेरे इस ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का लेख प्रकाशित हुआ था। इसे मैने अपने फेसबुक स्टेटस पर भी लगाया था। मेरा उद्देश्य विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने का था। जब बात आगे बढ़ती है तब अनेक तथ्य भी सामने आते हैं। हमें नई बातें पता लगतीं हैं। कई बार हम अपनी दृढ़ धारणाओं से हटते भी हैं। फेसबुक पर चर्चाएं बहुत गम्भीर नहीं होतीं। गिरिजेश जी को उम्मीद थी कि उनकी बात का समर्थन करने वाले आगे आएंगे। कुछ लोगों ने समर्थन किया भी, पर एक मित्र उनसे सहमत नहीं हुए। गिरिजेश जी ने मुझे जो मेल लिखा है उसे मैं नीचे दे रहा हूँ। पर उसके पहले दो-एक बातें मैं अपनी तरफ से लिखना चाहता हूँ।

Thursday, February 17, 2011

प्रधानमंत्री के टीवी शो पर अखबारों की राय






हालांकि शो टीवी मीडिया का था पर प्रतिक्रियाएं अखबारों की माने रखतीं हैं। आज के अखबारों पर ध्यान दें प्रतिक्रयाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ अखबारों को प्रधानमंत्री की बात खबर ज्यादा लगी विचारणीय कम। टाइम्स ऑफ इंडिया का चलन है कि खबरों के साथ भी विचार लगा देता है, पर उसने प्रधानमंत्री के सम्पादक सम्मेलन पर टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा। और सम्पादकीय पेज का खात्मा करने वाले डीएनए को आज यह पेज 1 पर सम्पादकीय लिखने लायक मौका लगा। हिन्दू ने परम्परा के अनुरूप इसपर शालीनता के साथ आलोचना से भरपूर सम्पादकीय लिखा। कोलकाता के टेलीग्राफ ने सम्पादकीय नहीं लिखा, पर मानिनी चटर्जी की खबर सम्पादकीय जैसी ही थी। हिन्दी में खास उल्लेखनीय कुछ नहीं था। पढ़ें अखबारों की राय

Wednesday, February 16, 2011

प्रधानमंत्री की प्रभावहीन टीवी कांफ्रेंस


 इसे सम्पादक सम्मेलन कहने को जी नहीं करता। सबसे पहले हिन्दी चैनल आज तक के सम्पादक के नाम पर आए उसके मालिक अरुण पुरी ने अंग्रेजी में सवाल किया। आज सुबह के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर थी कि दो चैनलों के मालिकों को खासतौर पर आने को कहा गया है। दूसरे सम्पादक से उनका आशय बेशक प्रणय रॉय होंगे। प्रणय़ रॉय को हम मालिक कम सम्पादक ज्यादा मानते हैं। आज के सम्मेलन में उन्होंने ही सबसे सार्थक सवाल पूछे। अर्णब गोस्वामी के तेवरों पर ध्यान न दें तो वाजिब सवाल उनके भी थे।