सन 2013 में साल की शुरुआत नौजवानों, खासकर महिलाओं की
नाराजगी के साथ हुई थी। दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ वह आंदोलन किसी भी नज़रिए से राजनीतिक
नहीं था। पर उस आंदोलन ने बताया कि भारतीय राजनीति में युवाओं और महिलाओं की
उपस्थिति बढ़ रही है। राजनीति का समुद्र मंथन निरंतर चलता रहता है। साल का अंत
होते-होते सागर से लोकपाल रूपी अमृत कलश निकल कर आया है। रोचक बात यह है कि पार्टियों
की कामधेनु बने वोटर को यह अमृत तब मिला जब वह खुद इसके बारे में भूल चुका था। संसद
के इस सत्र में लोकपाल विधेयक पास करने की योजना नहीं थी। पर उत्तर भारत की चार
विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने सरकार को इतना भयभीत कर दिया कि आनन-फानन यह
कानून पास हो गया।
बावजूद इसके इस साल की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना लोकपाल
विधेयक का पास होना नहीं है। बल्कि आम आदमी पार्टी का उदय है। विडंबना है कि जिस
लोकपाल कानून के नाम पर ‘आप’ का जन्म हुआ, वही इसकी सबसे बड़ी विरोधी है। ‘आप’ किसी सकारात्मक राजनीति का परिणाम न होकर विरोध की देन है। दिसंबर 2011
के अंतिम सप्ताह में लोकपाल विधेयक को लोकसभा से पास करके जिस तरह राज्यसभा में
अटका दिया गया, उससे अन्ना हजारे को नहीं देश की जनता के मन को ठेस लगी थी। अन्ना
के आंदोलन के साथ यों भी पूरा देश नहीं था। वह आंदोलन दिल्ली तक केंद्रित था और
मीडिया के सहारे चल रहा था। पर भ्रष्टाचार को लेकर जनता की नाराजगी अपनी जगह थी।
इस साल मार्च में पवन बंसल और अश्विनी कुमार को अलग-अलग कारणों से जब पद छोड़ने
पड़े तब भी ज़ाहिर हुआ कि जनता के मन में यूपीए सरकार के खिलाफ नाराज़गी घर कर
चुकी है। उन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘तोता’ नाम से विभूषित किया था।