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Wednesday, October 30, 2013

बनता क्यों नहीं तीसरा मोर्चा?

 बुधवार, 30 अक्तूबर, 2013 को 11:22 IST तक के समाचार
तीसरे मोर्चे की संभावनाएं
दिल्ली में बुधवार 30 अक्तूबर को देश के तकरीबन एक दर्जन राजनीतिक दलों के नेता जमा होकर चुनाव के पहले और उसके बाद के राजनीतिक गठबंधन की सम्भावना पर विचार करने जा रहे हैं.
व्यावहारिक रूप से यह तीसरे मोर्चे की तैयारी है, पर बनाने वाले ही कह रहे हैं कि औपचारिक रूप से तीसरा मोर्चा चुनाव के पहले बनेगा नहीं. बन भी गया तो टिकेगा नहीं.
हाल में ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी. यह पेशकश नरेन्द्र मोदी के भूमिका-विस्तार के साथ शुरू हुई. पर वे इस विमर्श में शामिल नहीं होंगी, क्योंकि मेज़बान वामपंथी दल हैं.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को लेकर वोटर उत्साहित नहीं है, पर कोई वैकल्पिक राजनीति भी नहीं है. उम्मीद की किरण उस अराजकता और अनिश्चय पर टिकी है जो चुनाव के बाद पैदा होगा.
ऐसा नहीं कि क्लिक करेंतीसरे मोर्चे की कल्पना निरर्थक और निराधार है. देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है.
पर क्या कारण है कि इसके कर्णधार चुनाव में उतरने के पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम के साथ चुनाव में उतरना नहीं चाहते?

खतरों से लड़ने वाली राजनीति

ममता बनर्जी
ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी.
हमारी राजनीति को ख़तरों से लड़ने का शौक है. आमतौर पर यह ख़तरों से लड़ती रहती है.
1967 के बाद से गठबंधनों की राजनीति को प्रायः उसके मुहावरे क्लिक करेंवामपंथी पार्टियाँदेती रहीं हैं. गठबंधन राजनीति के फोटो-ऑप्स में पन्द्रह-बीस नेता मंच पर खड़े होकर दोनों हाथ एक-दूसरे से जोड़कर ऊपर की ओर करते हैं तब एक गठबंधन का जन्म होता है. यह गठबंधन किसी ख़तरे से लड़ने के लिए बनता है.
जब तक नेहरू थे तब ख़तरा यह था कि वे नहीं रहे तो क्या होगा? इंदिरा गाँधी का उदय देश की बदलाव विरोधी ताकतों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हुआ था. संयोग से वे बदलाव विरोधी ताकतें कांग्रेस के भीतर ही थीं, पर प्रतिक्रियावादी थीं. जेपी आंदोलन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था.

Monday, September 30, 2013

लालू के फैसले के बाद क्या बिहार करवट लेगा?

 सोमवार, 30 सितंबर, 2013 को 09:38 IST तक के समाचार
लालू प्रसाद यादव की आरजेडी पार्टी
पिछले शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में राहुल गांधी की हैरतभरी घोषणा ने केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए ही असमंजस पैदा नहीं किया, बल्कि उत्तर भारत के महत्वपूर्ण प्रदेश बिहार की राजनीति में उलटफेर के हालात भी पैदा कर दिए हैं.
पिछले एक साल से आरजेडी नेता लालू यादव ने जगह-जगह रैलियाँ करके प्रदेश की राजनीति में न सिर्फ अपनी वापसी के हालात पैदा कर लिए हैं, बल्कि एनडीए से टूटे जेडीयू का राजनीतिक गणित भी बिगाड़ दिया है.
मई में पटना की परिवर्तन रैली और जून में महाराजगंज के लोकसभा चुनाव में प्रभुनाथ सिंह को विजय दिलाकर लालू ने नीतीश कुमार के लिए परेशानी पैदा कर दी थी.
उस वक़्त लालू प्रसाद ने कहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में बिहार की सभी 40 सीटों पर आरजेडी की जीत का रास्ता तैयार हो गया है. वह अतिरेक ज़रूर था, पर ग़ैर-वाजिब नहीं. फिलहाल व्यक्तिगत रूप से लालू और संगठन के रूप में उनकी पार्टी की परीक्षा है.

अध्यादेश का क्या होगा?

दाग़ी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता बचाने वाला अध्यादेश अधर में है और अब लगता नहीं कि सरकार इस पर राष्ट्रपति के दस्तख़त कराने पर ज़ोर देगी. अगले हफ़्ते इसके पक्ष में फैसला हुआ भी, तो शायद लालू यादव के लिए देर हो चुकी होगी.
लालू यादव
लालू यादव राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी रहे हैं.
अगले हफ़्ते कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद से जुड़े मामले में भी सज़ा सुनाई जाएगी. बहरहाल उनके मामले का राजनीतिक निहितार्थ उतना गहरा नहीं है, जितना लालू यादव के मामले का है.
राहुल गांधी के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने का जितना मुखर स्वागत नीतीश कुमार ने किया है, वह ध्यान खींचता है. क्या नीतीश कुमार को इसका कोई दूरगामी परिणाम नज़र आ रहा है?
लालू यादव राजनीतिक विस्मृति में गर्त में गए तो तीन-चार महत्वपूर्ण सवाल सामने आएंगे. बिहार में आरजेडी एक महत्वपूर्ण ताक़त है. 2010 के विधानसभा के चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर जीत हासिल की थी.

Sunday, September 22, 2013

तीन सर्वेक्षण तेरह तरह के नतीजे

 शनिवार, 21 सितंबर, 2013 को 11:41 IST तक के समाचार
आगामी विधानसभा चुनावों में चार राज्यों की तस्वीर क्या होगी इसे लेकर क़यास शुरू हो गए हैं.
इन क़यासों को हवा दे रहे हैं चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण जिनपर भले ही यक़ीन कम लोगों को हो पर वे चर्चा के विषय बनते हैं.
हालांकि चुनाव तो पांच राज्यों में होने हैं लेकिन सर्वेक्षण करने वालों ने सारा ध्यान चार राज्यों पर केंद्रित कर रखा है.
हाल में जो सर्वेक्षण सामने आए हैं वे क्लिक करेंकांग्रेस के ह्रास और भारतीय जनता पार्टी के उदय की एक धुंधली सी तस्वीर पेश कर रहे हैं.
सर्वेक्षणों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ़ के बारे में कमोबेश साफ़ लेकिन दिल्ली के बारे में भ्रामक तस्वीर बनाई है.
इसकी एक वजह आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की उपस्थिति है जो एक राजनीतिक समूह है. उसकी ताक़त और चुनाव को प्रभावित करने के सामर्थ्य के बारे में क़यास इस भ्रम को और भी बढ़ा रहे हैं.
तीन सर्वेक्षण तीन तरह के नतीजे दे रहे हैं जिनसे इनकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा होते हैं. सर्वेक्षणों के बुनियादी अनुमानों में इतना भारी अंतर है कि संदेह के कारण बढ़ जाते हैं.
दिल्ली का महत्व
दिल्ली भारत के मध्य वर्ग का प्रतिनिधि शहर है. यहाँ पर होने वाली राजनीतिक हार या जीत के व्यावहारिक रूप से कोई माने नहीं हों पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है. यहाँ से उठने वाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं.
हाल में दिल्ली गैंगरेप के ख़िलाफ़ और उसके पहले अन्ना हज़ारे के आंदोलन की ज़मीन देश-व्यापी नहीं थी पर दिल्ली में होने के कारण उसका स्वरूप राष्ट्रीय बन गया. इसकी एक वजह वह क्लिक करेंख़बरिया मीडिया है, जो दिल्ली में निवास करता है.
भाजपा का लोगो
हाल ही में भाजपा ने दिल्ली में अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा की.
दिल्ली की इसी प्रतीकात्मक महत्ता के कारण यहाँ के नतीजे महत्वपूर्ण होते हैं भले ही वे दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघों के हों या दिल्ली विधानसभा के.
हाल में भाजपा के मंच पर प्रधानमंत्री के प्रत्याशी का नाम घोषित करने की प्रक्रिया पर जो ड्रामा शुरू हुआ था उसका असर दिखाई पड़ने लगा है और इसमें भी पहल दिल्ली की है.
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ ही उनकी रैलियों का कार्यक्रम बन रहा है.

Monday, September 16, 2013

मोदीः मसीहा या मुसीबत

 शनिवार, 14 सितंबर, 2013 को 20:16 IST तक के समाचार
भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार आखिरकार घोषित कर दिया. लाल कृष्ण आडवाणी के साथ-साथ कुछ और लोगों के तमाम विरोधों के बावजूद मोदी के नाम की घोषणा क्या बीजेपी में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी.
क्या मोदी की उम्मीदवारी बीजेपी के लिए तुरूप का पत्ता साबित होगी या इससे पार्टी का अंदरूनी झगड़ा और बढ़ जाएगा. आप क्या सोचते हैं बीजेपी की इस राजनैतिक पहल पर.
बीबीसी इंडिया बोल में इस शनिवार इसी मुद्दे पर बहस हुई. इस कार्यक्रम में श्रोताओं के सवाल दिए वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने.

Friday, September 13, 2013

आडवाणी कब तक नाराज रहेंगे?

नीचे प्रकाशित आलेख 13 सितम्बर की सुबह लिखा गया था। चूंकि फैसला हो गया इसलिए अब इसकी कालावधि पूरी हो गई। पर अब यह समझने की जरूरत है कि फैसला जिस तरह से हुआ है, उसका मतलब क्या है। क्या आडवाणी जी हाशिए पर गए? क्या अब मोदी के वर्चस्व का समय आ गया है?  संघ के पूरे दबाव के बावजूद आडवाणी जी ने हार नहीं मानी। ऐसा क्यों हुआ? ऐसी क्या बात हुई कि वे पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में आना चाहकर भी नहीं आ पाए? क्या यह व्यक्तिगत पीड़ा है? मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज की बैठक में उपस्थिति के बावजूद इतना स्पष्ट है कि वे खुश नहीं हैं। ऐसा लगता है कि आडवाणी को यकीन है कि मोदी विफल होंगे। आज विरोध दर्ज कराते हुए वे अपने कल की पेशबंदी कर रहे हैं। ताकि कह सकें कि मैने अपना विरोध दर्ज कराया था। व्यक्तिगत रूप से देखें तो असंतुष्ट नेताओं में सुषमा स्वराज ही ऐसी हैं, जो भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। मुरली मनोहर जोशी भी ज्यादा समय के नेता नहीं हैं। भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के लिए सुयोज्ञ पात्र सुषमा जी हैं, पर इस वक्त कांग्रेस को परास्त करने के लिए मोदी जैसे आक्रामक व्यक्ति की भाजपा को जरूरत है। कांग्रेस जबर्दस्त एंटी इनकम्बैंसी की शिकार है। साथ ही उसके पास लोकप्रिय नेता नहीं है। फिलहाल नरेन्द्र मोदी की परीक्षा चार राज्यों के चुनाव में होगी, पर उसके पहले देखना होगा कि पार्टी संगठन किस प्रकार चुनाव में उतरता है। मोदी को कहीं भितरघात का सामना तो नहीं करना होगा? उसके पहले देखना यह है कि आडवाणी जी मोदी को कैसा आशीर्वाद देते हैं। क्या वे लम्बे समय तक नाराज रह सकेंगे? उनकी नाराजगी मोदी से है या संघ से, जिसने उनकी उपेक्षा की है? मोदी को आगे करने का फैसला कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ गया है।

फैसला मोदी नहीं, आडवाणी के बारे में होना है?

 शुक्रवार, 13 सितंबर, 2013 को 11:26 IST तक के समाचार
भारतीय जनता पार्टी क्या अपने सबसे बड़े कद के नेता को हाशिए पर डालने की हिम्मत रखती है? पार्टी में मतभेदों के सार्वजनिक होने के बाद अपनी फजीहत और कांग्रेस के व्यंग्य-बाणों से खुद को बचाने की क्या कोई योजना उसके पास है? और क्या इस फजीहत का असर चार राज्यों के विधान सभा चुनाव पर नहीं पड़ेगा?
लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के कम से कम तीन-चार बड़े नेताओं का समर्थन हासिल है. पर यह भी लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के फैसले की कद्र करते हुए शायद इनमें से कोई भी नेता अंतिम क्षण तक आडवाणी जी का साथ नहीं देगा.
हो सकता है कि अंततः आडवाणी भी इसे कबूल कर लें, पर क्या वे मोदी के नाम का प्रस्ताव करेंगे? या इस फैसले के बाबत होने वाली प्रेस कांफ्रेस में साथ में खड़े होंगे? या फिर से पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा देंगे?
जून में जब गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया था तब उन्होंने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे दिया था. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत के सीधे हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने हाथ खींचे थे.
उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि प्रधान मंत्री पद का फैसला करते वक्त आपको शामिल किया जाएगा और इसीलिए इस हफ्ते पार्टी के तमाम नेता उन्हें लगातार मनाने की कोशिश करते रहे हैं. क्या अब उन्हें मनाने की कोशिश बंद कर दी जाएगी?

Thursday, August 15, 2013

राष्ट्र के नाम संदेश बनाम राजनीतिक संदेश

राष्ट्रीय संबोधनों का राजनीतिक तमाशा

 गुरुवार, 15 अगस्त, 2013 को 18:42 IST तक के समाचार
narendra modi
साल 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी राज्यस्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह जिला मुख्यालयों पर आयोजित करते आ रहे हैं.
इस बार यह समारोह कच्छ जिला मुख्यालय भुज के लालन कॉलेज कैंपस में हुआ. वे पहले भी प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस भाषणों की समीक्षा इस प्रकार करते रहे हैं, जैसी इस बार की. पर इस बार उन्होंने ख़बरदार करके यह हमला बोला है.
क्या यह एक नई परंपरा पड़ने जा रही है? केंद्र सरकार और केंद्रीय राजनीतिक शक्ति के साथ असहमतियाँ आने वाले समय में कम नहीं बल्कि ज़्यादा ही होंगी. ऐसे में क्या स्वतंत्रता दिवस के संबोधनों को राजनीतिक संबोधनों के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. लेकिन लगता है कि लालकिले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस का संबोधन राजनीति से नहीं बच पाएगा.
मनमोहन सिंह यों भी सार्वजनिक सभाओं के लिहाज़ से अच्छे वक्ता नहीं हैं. ग्रासरूट राजनीति का उनका अनुभव नहीं है. उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी शुरू से जमीन पर काम करते रहे हैं. उनके पास जनता को लुभाने वाले मुहावरे और लच्छेदार भाषा है. वे खांटी देसी अंदाज़ में बोलते हैं.

Wednesday, August 14, 2013

शोर संसदीय कर्म है, पर कितना शोर?

 बुधवार, 14 अगस्त, 2013 को 08:29 IST तक के समाचार
भारतीय संसद
संसद में होने वाले शोर को लेकर अकसर सवाल उठाए जाते हैं
सभी दलों की बैठक शांति से होती है. सदन को ठीक से चलाने पर आम राय भी बनती है. पर जैसे ही सुबह 11 बजे सदन शुरू होता है काम-काज अस्त-व्यस्त हो जाता है.
राजनीतिक विरोध के प्रश्नों पर टकराव स्वाभाविक है, पर वह भी ढंग से नहीं हो पाता. क्लिक करेंमानसून सत्र की अब तक की छह दिन की कार्यवाहियों में सबसे ज्यादा अवरोध तेलंगाना मसले के कारण हुआ.
इसका शिकार कोई न कोई महत्वपूर्ण मसला ही हुआ.क्लिक करेंतेलंगाना का मूल मसला भी इस विरोध प्रदर्शन के चलते पीछे चला गया. सोमवार को राज्यसभा ने विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य बनाने वाले संशोधन विधेयक को पास कर दिया.
संसद में अब 16 अगस्त को अवकाश रहेगा. इसके बदले 24 अगस्त को संसद की बैठक होगी. 14 अगस्त के बाद संसद की अगली बैठक 20 अगस्त को होगी. उसके बदले 21 को अवकाश रहेगा.
शोर भी संसदीय कर्म है. पिछले साल कोयला खानों के आवंटन को लेकर संसद में व्यवधान पैदा करने वाले भाजपा नेताओं का यही कहना था. पर कितना शोर?
अंततः संसद विमर्श का फोरम है जिसके साथ विरोध-प्रदर्शन चलता है. पर संसद केवल विरोध प्रदर्शन का मंच नहीं है.

'अराजकता का संघ'

शोर के अलावा मर्यादा का मसला भी है. पिछले साल दिसंबर में राज्य सभा के सभापति हामिद अंसारी को लेकर बसपा नेता मायावती की टिप्पणी के कारण राज्य सभा में में असमंजस की स्थिति पैदा हो गई थी.
"हरेक नियम, हरेक शिष्टाचार का उल्लंघन हो रहा है. अगर माननीय सदस्य इसे ‘अराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं तो दीगर बात है."
हामिद अंसारी, राज्यसभा के सभापति
मंगलवार को भी सभापति हामिद अंसारी को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, जिसे भाजपा के वरिष्ठ सदस्यों ने पसंद नहीं किया, बल्कि उन्होंने वो टिप्पणी वापस लेने की माँग की.
सदन में भाजपा सांसद सभापति के आदेशों की अनसुनी कर रहे थे. तभी हामिद अंसारी ने कहा, "हरेक नियम, हरेक शिष्टाचार का उल्लंघन हो रहा है. अगर माननीय सदस्य इसे ‘अराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं तो दीगर बात है."
इसके बाद भी हंगामा रुका नहीं और सदन स्थगित हो गया. बाद में जब फिर से सदन शुरू हुआ तो भाजपा के नेता अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सभापति यह टिप्पणी बिना शर्त वापस लें.

Sunday, August 11, 2013

क्या मोदी की मंच कला राहुल से बेहतर है?

 सोमवार, 8 अप्रैल, 2013 को 16:04 IST तक के समाचार
नरेंद्र मोदी
फिक्की के मंच से मोदी ने स्त्री सशक्तिकरण के मुद्दे पर भाषण दिया. (फाइल फोटो)
कई बार लगता है कि मोदी ज़मीन से आते हैं और राहुल पाठ्य पुस्तकों के सहारे बोलते हैं. राहुल कवि हैं तो मोदी मंच के कवि.
वे मंच का लाभ उठाना जानते हैं. फिक्की की महिला शाखा की सभा का पूरा फायदा मोदी ने उठाया, बल्कि पूरी बहस को स्त्रियों के सशक्तिकरण से जोड़कर वे एक कदम आगे चले गए हैं.
पिछले चुनाव के दौरान गुजरात से आने वाले बताते थे कि मोदी स्त्रियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं. सोमवार की सभा में यह बात समझ में आई कि वे क्यों लोकप्रिय हैं.
चार दिन पहले राहुल गांधी का भाषण विचारों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था. लेकिन राहुल इस सवाल को छोड़ गए कि यह सब हासिल कैसे होगा.
मोदी के भाषण में वे बातें थीं, जो हो चुकी हैं. जो किया है उसके सहारे यह बताना आसान होता है कि क्या सम्भव है.
नरेन्द्र मोदी के सोमवार के भाषण में राजनीतिक संदर्भ केवल दो जगह आए और उन्होंने संकेत में बात कह कर इसका फायदा उठाया.
एक जगह उन्होंने राज्यपाल के दफ्तर में अटके स्त्रियों को आरक्षण देने वाले विधेयक का जिक्र किया और दूसरी जगह दूसरों के खोदे गड्ढों को भरने की बात कही.
"अभिनय में राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के मुकाबले हल्के बैठते हैं. नरेन्द्र मोदी के भाषण में नाटकीयता होती है. फिक्की की महिला शाखा के समारोह में नरेन्द्र मोदी ने मातृशक्ति के साथ अपनी बात को जिस तरह जोड़ा वह राहुल गांधी के भाषणों में नहीं मिलता. "
प्रमोद जोशी
इसके अलावा जस्सू बेन के पीज्जा का जिक्र करते हुए उन्होंने कलावती का नाम लेकर राहुल पर चुटकी ली. बेशक गुजरात में मानव विकास को लेकर तमाम सवाल है, पर वे इस सभा में उठाए नहीं जा सकते थे.
मोदी को इस मंच पर घेरना सम्भव ही नहीं था. इस सभा में उपस्थित लोग उद्यमिता और कारोबार की भाषा समझते हैं. और गुजरात की ताकत उद्यमिता और कारोबार हैं.
यह लेख अप्रेल 2013 का है. सिर्फ रिकॉर्ड के लिए यहाँ लगाया है.