मोदी सरकार के आम बजट को लेकर अखबारों की कवरेज इस बार काफी मतभ्रम की शिकार नजर आई। हिन्दी अखबार तो यों ही ज्यादातर शाब्दिक बाजीगरी का सहारा लेते रहे हैं, अंग्रेजी के अखबार भी फीके नजर आए। अलबत्ता अखबारों के सम्पादकीय पेजों पर बजट को समझने की कोशिश की गई है। अमर उजाला के पहले सफे के शीर्षक और सम्पादकीय पेज की सामग्री में विसंगति दिखाई पड़ती है। नवभारत टाइम्स विश्वकप क्रिकेट के प्रोमो 'मौका-मौका' से प्रभावित है। हिन्दुस्तान ने अपने ही कई साल पुराने क्रिकेट के रूप का इस्तेमाल किया है। इन कोशिशों में विषय को समझने की गम्भीरता नजर नहीं आती। बजट पर मीडिया का नजरिया पेश हैः-
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Sunday, March 1, 2015
बड़ी आर्थिक तस्वीर बनाने की कोशिश
अरुण जेटली के बजट को आर्थिक उदारीकरण और टैक्स प्रणाली के
सुधार और राजकोषीय घाटे को काबू में लाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका
उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाना है। इस बार की आर्थिक
समीक्षा में आशा व्यक्त की गई है कि अगले कुछ वर्ष में विकास दर 10 फीसदी के स्तर
से ऊपर भी जा सकती है। यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दुनिया की सबसे तेज
अर्थ-व्यवस्था बन जाएगी। उस स्तर पर आने के पहले हमारी आंतरिक व्यवस्थाएं इतनी
पुख्ता होनी चाहिए कि वे किसी वैश्विक दुर्घटना की स्थिति में बड़े से बड़े झटके को बर्दाश्त कर सके।
हमें केवल इनकम टैक्स और उपभोक्ता सामग्री के सस्ता या
महंगा होने पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए। आम बजट केवल इतने भर के लिए नहीं होता। वह
देश की वृहत आर्थिक तस्वीर (मैक्रो इकोनॉमिक पिक्चर) को भी पेश करता है। इस बार का
बजट इसी लिहाज से देखा जाना चाहिए। महत्वपूर्ण है उदारीकरण की दिशा को समझना जो
रोजगार पैदा करने, आधार ढाँचे को बनाने और आर्थिक संरचना को परिभाषित करने का काम करेगी।
कुछ लोग इसे कॉरपोरेट सेक्टर को फायदा पहुँचाने वाला बजट मान रहे हैं, जबकि बजट
घोषणाओं के बाद शेयर बाजार में गिरावट आने लगी। दिन में कई उतार-चढ़ाव देखने के बाद शेयर बाजार मामूली बढ़त के साथ बंद हुआ। इससे समझ में आता है कि कॉरपोरेट सेक्टर भी
इसका मतलब समझने की कोशिश कर रहा है। बहरहाल यह बजट देशी-विदेशी निवेशकों को स्थिर, विश्वसनीय और
निष्पक्ष टैक्स प्रणाली मुहैया कराने की कोशिश करता नजर आता है।
इस साल जनवरी में दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में वित्त
मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि सुधार प्रक्रिया और अन्य नीतिगत पहलों का कुल असर
बिग-बैंग से भी बढ़कर होगा। उनके बजट से बिग बैंग सुधारों की आशा थी, पर ऐसा हुआ
नहीं। बजट के एक दिन पहले पेश किए गए आर्थिक सर्वे के अनुसार भारत में फिलहाल बड़े
आर्थिक सुधारों के लिए न तो माहौल है और न ही जरूरत। फिलहाल अर्थ-व्यवस्था में
सरलीकरण की प्रक्रिया चल रही है।
Sunday, February 22, 2015
बहुत कुछ नया होगा अबके बजट में
सोमवार से शुरू होने
वाला बजट सत्र मोदी सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा साबित होगा। उसके राजनीतिक पहलुओं
के साथ-साथ आर्थिक पहलू भी हैं। पिछले साल मई में नई सरकार बनने के एक महीने बाद
ही पेश किया गया बजट दरअसल पिछली सरकार के बजट की निरंतरता से जुड़ा था। उसमें
बुनियादी तौर पर नया कर पाने की गुंजाइश नहीं थी। इस बार का बजट इस माने में मोदी
सरकार का बजट होगा। एक सामान्य नागरिक अपने लिए बजट दो तरह से देखता है। एक उसकी
आमदनी में क्या बढ़ोत्तरी हो सकती है और दूसरे उसके खर्चों में कहाँ बचत सम्भव है।
इसके अलावा बजट में कुछ नई नीतियों की घोषणा भी होती है। इस बार का बजट बदलते भारत
का बजट होगा जो पिछले बजटों से कई मानों में एकदम अलग होगा। इसमें टैक्स रिफॉर्म्स
की झलक और केंद्रीय योजनाओं में बदलाव देखने को मिलेगा। एक जमाने में टैक्स बढ़ने
या घटने के आधार पर बजट को देखा जाता था। अब शायद वैसा नहीं होगा।
इस बार के बजट में
व्यवस्थागत बदलाव देखने को मिलेगा। योजना आयोग की समाप्ति और नीति आयोग की स्थापना
का देश की आर्थिक संरचना पर क्या प्रभाव पड़ा इसका पहला प्रदर्शन इस बजट में देखने
को मिलेगा। पहली बार केंद्रीय बजट पर राज्यों की भूमिका भी दिखाई पड़ेगी। पिछली
बार के बजट से ही केंद्रीय योजनाओं की राशि कम हो गई थी, जो प्रवृत्ति इस बार के
बजट में पूरी तरह नजर आएगी। चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप अब राज्यों
के पास साधन बढ़ रहे हैं। पर केंद्रीय बजट में अनेक योजनाओं पर खर्च कम होंगे।
आर्थिक सर्वेक्षण का भी नया रूप इस बार देखने को मिलेगा। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार
अरविंद सुब्रह्मण्यम ने आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बनाई
है। अब सर्वेक्षण के दो खंड होंगे। पहले में अर्थ-व्यवस्था का विवेचन होगा। साथ ही
इस बात पर जोर होगा कि किन क्षेत्रों में सुधार की जरूरत है। दूसरा खंड पिछले
वर्षों की तरह सामान्य तथ्यों से सम्बद्ध होगा।
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