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Wednesday, October 30, 2024

केजरीवाल की नाटकीय-राजनीति की परीक्षा

अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की घोषणा से बहुत से लोगों को हैरत हुई है, पर आप गहराई से सोचें तो पाएंगे कि वे इसके अलावा कर ही क्या सकते थे। अगले कुछ महीने वे दिल्ली के कार्यमुक्त मुख्यमंत्री के रूप में अपने पद पर बने रहते, तो जनता के सामने जो संदेश जाता, उसकी तुलना में ऐसी मुख्यमंत्री के संरक्षक के रूप में बने रहना ज्यादा उपयोगी होगा, जिसका ध्येय उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वापस लाना है। बावजूद इसके कुछ खतरे अभी बने हुए हैं, जो केजरीवाल को परेशान करेंगे।

आतिशी की परीक्षा

आतिशी मार्लेना (या सिंह) कार्यकुशल साबित हुईं तब और विफल हुईं तब भी, पहला खतरा उनसे ही है। भले ही वे भरत की तरह कुर्सी पर खड़ाऊँ रखकर केजरीवाल की वापसी का इंतजार करें, पर जनता अब उनके कामकाज को गौर से देखेगी और परखेगी। आतिशी के पास अब भी वे सभी 13 विभाग हैं जो पहले उनके पास थे, जिनमें लोक निर्माण विभाग, बिजली, शिक्षा, जल और वित्त आदि शामिल हैं। इसके विपरीत मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल के पास कोई भी विभाग नहीं था। आतिशी पर काम का जो दबाव होगा, वह केजरीवाल पर नहीं था और वे राजनीति के लिए काफी हद तक स्वतंत्र थे।

Sunday, September 15, 2024

केजरीवाल के नाटकीय फैसले का मतलब


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अचानक इस्तीफा देने की घोषणा करके नाटकीयता तो जरूर पैदा कर दी है, पर इसकी वजह से वे सवालों के घेरे में भी आ गए हैं। पहला सवाल है कि उन्होंने तभी इस्तीफा क्यों नहीं दिया, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था? दूसरा है कि अब दो दिन बाद क्यों, अभी क्यों नहीं? नए मुख्यमंत्री के आने तक उन्हें कार्यवाहक रहना ही है, वैसे ही जैसे वे अब खुद को कार्यवाहक के रूप में पेश कर रहे हैं। केजरीवाल और बातों के अलावा राजनीतिक-नाटकीयता के लिए भी पहचाने जाते हैं। इस मामले में भी भगत सिंह और माता सीता के रूपक जोड़कर उन्होंने मामले को नाटकीय बना दिया है।

अगला सवाल है कि नए मुख्यमंत्री का नाम कौन तय करेगा, केजरीवाल या विधायक दल? पर व्यावहारिक सच यह है कि केजरीवाल पार्टी हाईकमान हैं। नाम किसी का हो, पर फैसला उनका ही होगा।केजरीवाल ने कहा कि मनीष सिसोदिया पर भी वही आरोप हैं, जो मुझ पर हैं। उनका भी यही सोचना है कि वे भी पद पर नहीं रहेंगे, चुनाव जीतने के बाद ही पद संभालेंगे। ऐसा क्यों? वे जल्दी चुनाव चाहते हैं, तो विधानसभा भंग करने की सिफारिश क्यों नहीं कर रहे हैं? बात समझ में आती है कि गिरफ्तारी के समय उन्होंने इस्तीफा इसलिए नहीं दिया, क्योंकि वे एक नैतिक और कानूनी सिद्धांत को साबित करना चाहते थे। और अब इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि उनकी नैतिकता उन्हें अग्निपरीक्षा के लिए प्रेरित कर रही है। इस अग्निपरीक्षा में सिसौदिया को शामिल करना जरूरी क्यों है? उनकी भी अग्निपरीक्षा होनी है, तो इसकी घोषणा उन्होंने खुद क्यों नहीं की?   

Monday, June 5, 2023

विरोधी-एकता के असमंजस


आगामी 12 जून को पटना में प्रस्तावित विरोधी दलों की एकता-बैठक एक बार फिर से स्थगित हो गई है। हालांकि इसकी अगली तारीख तय नहीं है, पर संभावना है कि अब यह बैठक 23 जून को हो सकती है। इसका स्थान भी पटना के बजाय कहीं और हो सकता है। इसे शिमला में भी किया जा सकता है। कांग्रेस पहले से 23 जून की बात कह रही थी, पर जेडीयू ने 12 जून की घोषणा कर दी थी।

विरोधी-एकता की एक परीक्षा संसद के मॉनसून सत्र में होगी, जब दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े अध्यादेश का स्थान लेने वाला विधेयक पेश किया जाएगा। बहरहाल 12 जून की बैठक में शामिल होने के लिए 16 पार्टियों ने सहमति दी थी, जिनमें आम आदमी पार्टी भी शामिल है। इस बैठक को लेकर नीतीश कुमार के अलावा अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार इसे लेकर काफी उत्साहित हैं।

हिंदी बेल्ट

ममता बनर्जी ने एक वीडियो जारी करके पटना आने और बैठक में शामिल होने का बयान भी दिया है। ममता बनर्जी ने कहा कि पटना में होने वाली विपक्ष की एकता की बैठक से हिंदी बेल्ट में बेहतर असर होगा। हालांकि ममता ने इस बात को खुलकर नहीं कहा है, पर जो बातें सामने आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि उन्होंने ही नीतीश कुमार को सलाह दी थी कि आप अपनी तरफ से पहल करें। 12 जून की बैठक उसी पहल का परिणाम थी। ममता बनर्जी सत्तर के दशक में जय प्रकाश नारायण की पहल का इस सिलसिले में उदाहरण देती हैं।

Friday, October 28, 2022

नोटों पर लक्ष्मी-गणेश का सुझाव

इंडोनेशिया का करेंसी नोट

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल करेंसी नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें छापने का जो
सुझाव दिया है, उसके पीछे राजनीति है। अलबत्ता यह समझने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि क्या इस किस्म की माँग से राजनीतिक फायदा संभव है। भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व को जो सफलता मिली है, उसके पीछे केवल इतनी प्रतीकात्मकता भर नहीं है।

बेशक प्रतीकात्मकता का लाभ बीजेपी को मिला है, पर राजनीति के भीतर आए बदलाव के पीछे बड़े सामाजिक कारण हैं, जिन्हें कांग्रेस और देश के वामपंथी दल अब तक समझ नहीं पाए हैं। अब लगता है कि केजरीवाल जैसे राजनेता भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं।

करेंसी पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें लगाने का सांस्कृतिक महत्व जरूर है। जैसे इंडोनेशिया में है, जो मुस्लिम देश है। भारतीय संविधान की मूल प्रति पर रामकथा और हिंदू-संस्कृति से जुड़े चित्र लगे हैं। इनसे धर्मनिरपेक्षता की भावना को चोट नहीं लगती है।

केवल केसरिया रंग की प्रतीकात्मकता काम करने लगेगी, तो केजरीवाल सिर से पैर तक केसरिया रंग का कनस्तर अपने ऊपर उड़ेल लेंगे, पर उसका असर नहीं होगा। ऐसी बातें करके और उनसे देश की समृद्धि को जोड़कर एक तरफ वे अपनी आर्थिक समझ को व्यक्त कर रहे हैं, वहीं भारतीय-संस्कृति को समझने में भूल कर रहे हैं। हिंदू समाज संस्कृतिनिष्ठ है, पर पोंगापंथी और विज्ञान-विरोधी नहीं।

हैरत की बात है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं ने केजरीवाल की मांग का जोरदार तरीके से समर्थन शुरू कर दिया है। केजरीवाल का कहना है कि नोटों पर भगवान गणेश और लक्ष्मी के चित्र प्रकाशित करने से लोगों को दैवीय आशीर्वाद मिलेगा, जिससे वे आर्थिक लाभ हासिल कर सकेंगे। इसके पहले केजरीवाल गुजरात में जाकर कह आए हैं कि मेरे सपने में भगवान आए थे।

हिंदुत्व का लाभ

केजरीवाल ने अप्रेल 2010 से शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी-आंदोलन की पृष्ठभूमि में भी भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए थे। हलांकि ये नारे हिंदुत्व के नारे नहीं हैं और हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इनका इस्तेमाल हुआ है, पर स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में कांग्रेस ने इन नारों का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दिया था। केजरीवाल अलबत्ता हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल इस रूप में करना चाहते हैं, जिससे उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी नहीं माना जाए। पर इतना स्पष्ट है कि वे उस हिंदुत्व का राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, जिसे कांग्रेस ने छोड़ दिया है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति का जिक्र करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि देश अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये के लगातार कमजोर होने के कारण नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। ऐसे में यह जुगत काम करेगी। इस विचार पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में कहा है कि आर्थिक बहस में समझदारी जरूरी है। 

Friday, April 23, 2021

मौके-बेमौके तमाशा क्यों बनते हैं केजरीवाल?

सतीश आचार्य का एक पुराना कार्टून, जो आज भी मौजूं है

आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल की पहचान अराजक मुख्यमंत्री के रूप में पहले से थी, अब उनकी विश्वसनीयता खत्म होने का खतरा पैदा होता जा रहा है। महामारी के दौर में देश के दस सबसे त्रस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों साथ पीएम मोदी की बैठक के दौरान अरविंद केजरीवाल ने जो बातें कहीं, वे टीवी चैनलों पर लाइव दिखाई गईं। यह सब अनायास ही लाइव नहीं हुआ होगा। कहीं न कहीं उनके प्रचार-तंत्र ने चैनलों के साथ मिलकर काम किया होगा।

बहरहाल उन्होंने प्रोटोकॉल को तोड़कर जो किया, उससे उन्हें बदनामी ही मिलेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके व्यवहार से नाराज हुए हैं। सम्भव है केजरीवाल को इससे कोई फर्क न पड़े, पर राजनीतिक रूप से वे विरोधी दलों के बीच भी अविश्वसनीय व्यक्ति बनते जा रहे हैं। केजरीवाल ने पीएम मोदी से कहा कि कोरोना मरीजों के लिए ऑक्सीजन की कमी होने से बहुत बड़ी त्रासदी हो सकती है। हालात से निबटने के लिए राष्ट्रीय योजना की आवश्यकता है। दिल्ली को कम ऑक्सीजन मिल रहा है। साथ ही उन्होंने एक देश एक वैक्सीन प्राइस की बात कही।

सरकारी सूत्रों के अनुसार पहली बार प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की बातचीत को लाइव टीवी पर दिखाया गया। सरकारी सूत्रों का कहना है कि केजरीवाल ने पीएम-सीएम संवाद का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया। केजरीवाल ने तथ्य जानते हुए भी वैक्सीन की कीमत को लेकर झूठ फैलाया। उन्होंने ऑक्सीजन को एयरलिफ्ट करने का मुद्दा उठाया। शायद उन्हें पता नहीं था कि पहले से ही ऑक्सीजन एयरलिफ्ट की जा रही है। उनका पूरा भाषण समस्या के हल को नहीं बता रहा था, बल्कि वह राजनीति से प्रेरित और जिम्मेदारियों से भागने वाला था।

Friday, December 18, 2020

पुराने अंदाज में केजरीवाल

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल करीब दो साल की खामोशी के बाद फिर से अपनी पुरानी शैली में वापस आते नजर आ रहे हैं। इन दिनों दिल्ली में पंजाब से आए किसानों के समर्थन में दिए गए वक्तव्यों के अलावा गत गुरुवार 17 दिसंबर को दिल्ली विधानसभा में उनके बयानों में उनकी पुरानी राजनीति की अनुगूँज थी।

उन्होंने केंद्र सरकार को संबोधित करते हुए कहा, कोरोना काल में क्यों ऑर्डिनेंस पास किया? पहली बार राज्यसभा में बिना वोटिंग के 3 बिल को कैसे पास कर दिया गया? सीएम ने कहा कि दिल्ली विधानसभा केंद्र के कृषि कानूनों को खारिज कर रही है। केंद्र सरकार कानून वापिस ले।

कृषि कानूनों को लेकर दिल्ली विधानसभा में गुरुवार को एक दिन का विशेष सत्र बुलाया गया था। सत्र की शुरुआत होने पर मंत्री कैलाश गहलोत ने एक संकल्प पत्र पेश किया, जिसमें तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की बात कही गई। इसके बाद हर वक्ता को बोलने के लिए पांच मिनट का वक्त दिया गया। बाद में विधानसभा ने कृषि कानूनों को निरस्त करने का एक संकल्प स्वीकार कर लिया।

Saturday, February 15, 2020

केजरीवाल की चतुर रणनीति


दिल्ली के चुनाव परिणामों ने आम आदमी पार्टी को एकबार फिर से सत्तानशीन कर दिया है, साथ ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को आत्ममंथन का एक मौका दिया है। इसके अलावा इन परिणामों का एक और संदेश है। वह है शहरी वोटर की महत्वपूर्ण होती भूमिका। बीजेपी और कांग्रेस के अलावा उसमें आप के लिए भी कुछ संदेश छिपे हैं। यों तो आप और बीजेपी दोनों सफलता क दाव कर सकती हैं, पर यह केजरीवाल की चतुर रणनीति की जीत है।  
बेशक आप की सरकार लगातार तीसरी बार बनेगी और केजरीवाल मुख्यमंत्री बनेंगे, पर उसकी सीटें कम हुई हैं और वोट प्रतिशत भी कुछ घटा है। ऐसा तब हुआ है, जब कांग्रेस का काफी वोट आप को ट्रांसफर हुआ। बीजेपी की सीटों और वोट प्रतिशत दोनों में वृद्धि हुई है, पर वह आप को अपदस्थ करने में विफल हुई है। सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस का हुआ है, जो वोट प्रतिशत के आधार पर इतिहास के सबसे निचले स्तर पर आ गई है। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस ने बीजेपी को हराने के लिए जानबूझकर खुद को मुकाबले से अलग कर लिया। ऐसा है, तो यह आत्मघाती सोच है।

Tuesday, March 20, 2018

माफ़ियों के बाद अब ‘आप’ का क्या होगा?

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
आम आदमी पार्टी का जन्म पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2012 में हुआ था. लगता था कि शहरी युवा वर्ग राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए उठ खड़ा हुआ है. वह भारतीय लोकतंत्र को नई परिभाषा देगा.
सारी उम्मीदें अब टूटती नज़र आ रही हैं.
संभव है कि अरविंद केजरीवाल माफी-प्रकरण के कारण फंसे धर्म-संकट से बाहर निकल आएं. पार्टी को क़ानूनी माफियां आसानी से मिल जाएंगी, पर नैतिक और राजनीतिक माफियां इतनी आसानी से नहीं मिलेंगी.
क्या वे राजनीति के उसी घोड़े पर सवार हो पाएंगे जो उन्हें यहां तक लेकर आया है? अब उनकी यात्रा की दिशा क्या होगी? वे किस मुँह से जनता के बीच जाएंगे?
ख़ूबसूरत मौका खोया
दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश से एक आदर्श नगर-केंद्रित राजनीति का मौक़ा आम आदमी पार्टी को मिला था.
 उसने धीरे-धीरे काम किया होता तो इस मॉडल को सारे देश में लागू करने की बातें होतीं, पर पार्टी ने इस मौक़े को हाथ से निकल जाने दिया.
उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का कैनवस इतना बड़ा था कि उसपर कोई तस्वीर बन ही नहीं सकती थी.
ज़ाहिर है कि केजरीवाल अब बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ बड़े आरोप नहीं लगाएंगे. लगाएँ भी तो विश्वास कोई नहीं करेगा.
उन्होंने अपना भरोसा खोया है. पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती अब यह है कि वह अपनी राजनीति को किस दिशा में मोड़ेगी.
चंद मुट्ठियों में क़ैद और विचारधारा-विहीन इस पार्टी का भविष्य अंधेरे की तरफ़ बढ़ रहा है.
समर्थकों से धोखा
केजरीवाल की बात छोड़ दें, पार्टी के तमाम कार्यकर्ता ऐसे हैं जिन्होंने इस किस्म की राजनीति के कारण मार खाई है, कष्ट सहे हैं.
बहुतों पर मुक़दमे दायर हुए हैं या किसी दूसरे तरीक़े से अपमानित होना पड़ा. वे फिर भी अपने नेतृत्व को सही समझते रहे. धोखा उनके साथ हुआ.
संदेश यह जा रहा है कि अब उन्हें बीच भँवर में छोड़कर केजरीवाल अपने लिए आराम का माहौल बनाना चाहते हैं. क्यों?
बात केवल केजरीवाल की नहीं है. उनकी समूची राजनीति का सवाल है. ऐसा क्यों हो कि वे चुपके से माफी मांग कर निकले लें और बाकी लोग मार खाते रहें?



Sunday, March 18, 2018

अपने ही बुने जाले में फंसते जा रहे हैं केजरीवाल

कार्टून साभार सतीश आचार्य
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
17 मार्च 2018


सिर्फ़ चार साल की सक्रिय राजनीति में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो गए हैं. और ऐसे दर्ज़ हुए हैं कि उन पर चुटकुले लिखे जा रहे हैं.


उनका ज़िक्र होने पर ऐसे मकड़े की तस्वीर उभरती है, जो अपने बुने जाले में लगातार उलझता जा रहा है.
इस पार्टी ने जिन ऊँचे आदर्शों और विचारों का जाला बुनकर राजनीति के शिखर पर जाने की सोची थी, वे झूठे साबित हुए. अब पूरा लाव-लश्कर किसी भी वक़्त टूटने की नौबत है. जैसे-जैसे पार्टी और उसके नेताओं की रीति-नीति के अंतर्विरोध खुल रहे हैं, उलझनें बढ़ती जा रही हैं.


ठोकर पर ठोकर
केजरीवाल के पुराने साथियों में से काफ़ी साथ छोड़कर चले गए या उनके ही शब्दों में 'पिछवाड़े लात लगाकर' निकाल दिए गए. अब वे ट्वीट करके मज़ा ले रहे हैं, 'हम उस शख़्स पर क्या थूकें जो ख़ुद थूक कर चाटने में माहिर है!'

अकाली नेता बिक्रम मजीठिया से केजरीवाल की माफ़ी के बाद पार्टी की पंजाब यूनिट में टूट की नौबत है. दिल्ली में पहले से गदर मचा पड़ा है. 20 विधायकों के सदस्यता-प्रसंग की तार्किक परिणति सामने है. उसका मामला चल ही रहा था कि माफ़ीनामे ने घेर लिया है.

मज़ाक बनी राजनीति
सोशल मीडिया पर केजरीवाल का मज़ाक बन रहा है. किसी ने लगे हाथ एक गेम तैयार कर दिया है. पार्टी के अंतर्विरोध उसके सामने आ रहे हैं. पिछले दो-तीन साल की धुआँधार राजनीति का परिणाम है कि पार्टी पर मानहानि के दर्जनों मुक़दमे दायर हो चुके हैं. ये मुक़दमे देश के अलग-अलग इलाक़ों में दायर किए गए हैं.


पार्टी प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अदालतों में पड़े मुक़दमों को सहमति से ख़त्म करने का फ़ैसला पार्टी की क़ानूनी टीम के साथ मिलकर किया गया है, क्योंकि इन मुक़दमों की वजह से साधनों और समय की बर्बादी हो रही है. हमारे पास यों भी साधन कम हैं.

माफियाँ ही माफियाँ
बताते हैं कि जिस तरह मजीठिया मामले को सुलझाया गया है, पार्टी उसी तरह अरुण जेटली, नितिन गडकरी और शीला दीक्षित जैसे मामलों को भी सुलझाना चाहती है. यानी माफ़ीनामों की लाइन लगेगी. पिछले साल बीजेपी नेता अवतार सिंह भड़ाना से भी एक मामले में माफ़ी माँगी गई थी.


केजरीवाल ने उस माफ़ीनामे में कहा था कि एक सहयोगी के बहकावे में आकर उन्होंने आरोप लगाए थे. पार्टी सूत्रों के अनुसार हाल में एक बैठक में इस पर काफ़ी देर तक विचार हुआ कि मुक़दमों में वक़्त बर्बाद करने के बजाय उसे काम करने में लगाया जाए.


सौरभ भारद्वाज ने पार्टी के फ़ैसले का ज़िक्र किया है, पर पार्टी के भीतरी स्रोत बता रहे हैं कि माफ़ीनामे का फ़ैसला केजरीवाल के स्तर पर किया गया है.

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Tuesday, May 16, 2017

खामोश क्यों हैं केजरीवाल?

दिल्ली सरकार से हटाए गए कपिल मिश्रा आम आदमी पार्टी के गले की हड्डी साबित हो रहे हैं. पिछले दसेक दिनों में वे पार्टी और व्यक्तिगत रूप से अरविंद केजरीवाल पर आरोपों की झड़ी लगा रहे हैं. और केजरीवाल उन्हें सुन रहे हैं.

आश्चर्य इन आरोपों पर नहीं है. आरोप लगाने से केजरीवाल बेईमान साबित नहीं हो जाते हैं. सवाल है कि केजरीवाल खामोश क्यों हैं? क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कपिल मिश्रा का सारा गोला-बारूद खत्म हो जाए? या उन्हें राजनीति में किसी नए मोड़ का इंतजार है?

Sunday, July 31, 2016

केजरीवाल की बचकाना राजनीति

अरविंद केजरीवाल सायास या अनायास खबरों में रहते हैं। कुछ बोलें तब और खामोश रहें तब भी। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आग लगाने वाले बयान देकर वे दस दिन की खामोशी में चले गए हैं। शनिवार को उन्होंने नागपुर के अध्यात्म केंद्र में 10 दिन की विपश्यना के लिए दाखिला लिया है, जहाँ वे अखबार, टीवी या मीडिया के संपर्क में नहीं रहेंगे। हो सकता है कि वे सम्पर्क में नहीं रहें, पर यकीन नहीं आता कि उनका मन मुख्यधारा की राजनीति से असम्पृक्त होगा।

Sunday, December 20, 2015

इतनी तेजी में क्यों हैं केजरीवाल?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि केंद्र सरकार उन सभी विरोधियों के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल करने जा रही है जो बीजेपी की बात नहीं मानते। ट्वीट में केजरीवाल ने दावा किया कि यह बात उन्हें एक सीबीआई अधिकारी ने बताई है। प्रधानमंत्री कार्यालय के राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने इन आरोपों को नकारते हुए कहा, केजरीवाल को सीबीआई के अधिकारी का नाम बताना चाहिए और सबूत देने चाहिए, पर नाम कौन बताता है? यह बात सच हो तब भी यह राजनीतिक बयान है। इसका उद्देश्य मोदी विरोधी राजनीति और वोटों को अपनी तरफ खींचना है।

केजरीवाल धीरे-धीरे विपक्षी एकता की राजनीति की अगली कतार में आ गए हैं। इस प्रक्रिया में एक बात तो यह साफ हो रही है कि केजरीवाल ‘नई राजनीति’ की अपनी परिभाषाओं से बाहर आ चुके हैं। वे अपने अंतर्विरोधों को आने वाले समय में किस तरह सुलझाएंगे, इसे देखना होगा। फिलहाल उनकी अगली परीक्षा पंजाब में है। शायद वे असम की वोट-राजनीति में भी शामिल होने की कोशिश करेंगे।

Sunday, November 22, 2015

खांटी राजनेता बनकर उभरे केजरीवाल..?

प्रमोद जोशी



Image copyrightAFP GETTY

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ट्विटर प्रोफाइल पर उनका सूत्र वाक्य लिखा है, ‘भारत जल्दी बदलेगा.’ आंदोलनकारी नेता से खांटी राजनेता के रूप में उनका तेज़ रूपांतरण उनके सूत्र वाक्य की पुष्टि करता है.
पिछले दो साल में केजरीवाल ने अपनी राजनीति और अपने सहयोगियों को जितनी तेज़ी से बदला है वह उनकी परिवर्तनशील-प्रतिभा का प्रतीक है.
मीडिया कवरेज के मुताबिक पटना में महागठबंधन सरकार के शपथ-समारोह में अरविंद केजरीवाल को बेमन से लालू यादव के गले लगना पड़ा.
व्यावहारिक बात यह है कि केजरीवाल लालू से गले मिले और यह जाहिर करने में कामयाब भी रहे कि चाहते नहीं थे... इस बीच सोशल मीडिया पर केजरीवाल के कुछ पुराने ट्वीट उछाले गए जिनमें उन्होंने लालू की आलोचना की थी. पर उससे फर्क क्या पड़ता है?

Image copyrightAP

मोदी-विरोधी राजनीति के साथ केजरीवाल ने अब राष्ट्रीय राजनीति की ओर कदम बढ़ाए हैं. बिहार में महागठबंधन की विजय इसका पहला पड़ाव है और पटना में केजरीवाल की उपस्थिति पहला प्रमाण.
केजरीवाल मोदी-विरोधी ताकतों के साथ आगे बढ़ना और शायद उसका नेतृत्व भी करना चाहते हैं. इसीलिए उन्होंने वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था.
केन्द्र से टकराव का नया बिन्दु अब वे दिल्ली जन लोकायुक्त विधेयक को बनाएंगे. उनके कैबिनेट ने हाल में विधेयक के प्रारूप को स्वीकार किया है.
फरवरी 2014 में उनके कैबिनेट ने इसी तरह का विधेयक मंजूर किया था. उसे विधान सभा में रखे जाने के पहले ही उप राज्यपाल ने आपत्ति व्यक्त की थी कि उनसे स्वीकृति नहीं ली गई है. अब भाजपा के सूत्रों का कहना है कि सरकार ने उप राज्यपाल से मंजूरी नहीं ली है.

Image copyrightEPA. MANISH SHANDILYA

आम आदमी पार्टी के सूत्रों का कहना है कि यह विधेयक उत्तराखंड के 2011 के क़ानून जैसा है. उस बिल को तैयार करने में केजरीवाल का हाथ बताया गया था. यह बात केन्द्र सरकार को असमंजस में डालेगी. क्या भाजपा सरकार ऐसे कानून का विरोध करेगी?
उप राज्यपाल की अनुमति के संदर्भ में भी परिस्थितियाँ फरवरी 2014 जैसी हैं. फर्क केवल यह है कि विधानसभा में पार्टी का भारी बहुमत है. बिल पास होने के बाद उप राज्यपाल उसे स्वीकार करें या न करें, वह टकराव का बिन्दु बनेगा.
केजरीवाल की राजनीति भीतरी और बाहरी टकरावों की मदद से बढ़ रही है. कुछ महीने पहले पार्टी के भीतर पहला टकराव इस बात को लेकर हुआ था कि दिल्ली के बाहर दूसरे राज्यों में जाना चाहिए या नहीं.

Saturday, April 25, 2015

इतना शर्मिंदा क्यों होते हैं केजरीवाल?

केजरीवाल बार-बार माफ़ी पर क्यों आ जाते हैं?


केजरीवाल

किसान गजेंद्र सिंह की आत्महत्या पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी ग़लती को माना है.
उनका कहना है कि, "हमें उस दिन अपनी सभा ख़त्म कर देनी चाहिए थी." इस ग़लती का एहसास उन्हें बाद में हुआ.
ग़ालिब का शेर है, "की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा, हाय उस ज़ूद-पशेमां (गुनाहगार) का पशेमां (शर्मिंदा) होना."
केजरीवाल का ग़लती मान लेना मानवीय नज़रिए से सकारात्मक और ईमानदार फ़ैसला है. उनकी तारीफ़ होनी चाहिए.
पर पिछले दो साल में वे कई बार ग़लतियों पर शर्मिंदा हो चुके हैं.

क्या यह भी कोई प्रयोग था?


केजरीवाल की किसान रैली

सवाल है कि वे ठीक समय पर पश्चाताप क्यों नहीं करते? देर से क्यों पिघलते हैं? इसलिए शक़ पैदा होता है कि यह शर्मिंदगी ‘रियल’ है या ‘टैक्टिकल?’
क्या आम आदमी पार्टी प्रयोगशाला है? और क्यों जो हो रहा है वह प्रयोग है?
दिसम्बर 2013 में पहले दौर की सरकार बनाने और 49 दिन बाद इस्तीफ़ा देनेके ठोस कारण साफ़ नहीं हुए थे कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में उतरने का फैसला कर लिया.
उसमें फ़ेल होने के बाद फिर से दिल्ली में सरकार बनाने की मुहिम छेड़ी.
इधर, इस साल जब से उन्हें विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त सफलता मिली है, पार्टी को ‘अंदरूनी’ बीमारी लग गई है.

Friday, January 3, 2014

दिल्ली विधानसभा में अरविंद केजरीवाल का भाषण

विश्वास मत  पर दिल्ली विधानसभा में हुई चर्चा  का जवाब देते हुए अरविंद केजरीवाल ने जो बातें कहीं उन्हें विस्तार से आज दैनिक भास्कर ने इस रूप में प्रकाशित किया हैः-
दैनिक भास्कर में प्रकाशित