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Wednesday, November 13, 2024

दक्षिण एशिया की प्रगति के लिए ज़रूरी है ‘आपसी संपर्क’

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर हाल में दो खबरों ने ध्यान खींचा है. पहली है लाहौर के पर्यावरण के संबंध में पाकिस्तान के पंजाब राज्य की कोशिशें और दूसरी दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्तों को फिर से कायम करने के सुझाव से जुड़ी है. एक और खबर भारत-अफगानिस्तान रिश्तों को लेकर भी है.

भारत और पाकिस्तान के बीच दशकों से तनावपूर्ण संबंध हैं, लेकिन जैसे-जैसे ज़हरीली हवा का मुद्दा सामने आ रहा है, दोनों पड़ोसियों को अपनी साझा जिम्मेदारी पर भी विचार करना पड़ रहा है.

Thursday, August 22, 2024

दक्षिण एशिया में भारत पर बढ़ता दबाव


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को भारत की ओर से ‘ग्लोबल साउथ' के लिए कुछ पहलों की घोषणाएं की हैं, वहीं कुछ पर्यवेक्षक बांग्लादेश की परिघटना का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि भारत की भूमिका, दक्षिण एशिया में कमतर हो रही हैं, ऐसे में ‘ग्लोबल साउथ' को कैसे साध पाएंगे

चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव' (बीआरआई) के तहत कई देशों के ‘ऋण-जाल' में फँसने की चिंताओं के बीच पीएम मोदी ने भारत द्वारा आयोजित तीसरे ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ' सम्मेलन में ‘कॉम्पैक्ट' (वैश्विक विकास समझौते) की घोषणा की.

शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में उन्होंने कहा, मैं भारत की ओर से एक व्यापक वैश्विक विकास समझौतेका प्रस्ताव रखना चाहूंगा. इस समझौते की नींव भारत की विकास यात्रा और विकास साझेदारी के अनुभवों पर आधारित होगी.

भारत की पहल

शिखर सम्मेलन में भारत समेत 123 देशों ने हिस्सा लिया और ग्लोबल साउथ की साझा चिंताओं और प्राथमिकताओं पर विचार-विमर्श किया. उल्लेखनीय है कि चीन और पाकिस्तान इस सम्मेलन में शामिल नहीं थे. बांग्लादेश के शासनाध्यक्ष डॉ यूनुस ने इसमें भाग लिया.

सम्मेलन के वैचारिक-पक्ष को विदेशमंत्री डॉ एस जयशंकर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट करते हुए कहा कि इसकी टाइमिंग महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके बाद न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र का समिट ऑफ द फ्यूचर होगा. जिन मुद्दों पर यहां चर्चा हुई है, उन पर वहाँ भी चर्चा होगी.

फिलहाल यह सम्मेलन भारत की पहल और विकासशील देशों के बीच उसकी आवाज़ को रेखांकित करता है. चीन भी इस दिशा में सक्रिय है. ग्लोबल साउथ से ज्यादा इस समय बड़े सवाल दक्षिण एशिया को लेकर पूछे जा रहे हैं.

विस्मृत दक्षिण एशिया

एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक माना है कि दक्षिण एशिया जैसी भौगोलिक-राजनीतिक पहचान अब विलीन हो चुकी है. जैसे पश्चिम एशिया या दक्षिण पूर्व एशिया की पहचान है, वैसी पहचान दक्षिण एशिया की नहीं है. इसका सबसे बड़ा कारण है भारत-पाकिस्तान गतिरोध.

बांग्लादेश में शेख हसीना के पराभव और आसपास के ज्यादातर देशों में भारत-विरोधी राजनीतिक ताकतों के सबल होने के कारण पूछा जाने लगा है कि क्या इस दक्षिण एशिया में भारत का रसूख पूरी तरह खत्म हो गया है? इस इलाके के सर्वाधिक प्रभावशाली देश के रूप में क्या अब चीन स्थापित हो गया है, या हो जाएगा?

ऐसे सवालों का जवाब देने की घड़ी अब आ रही है. जवाब संयुक्त राष्ट्र के सुधार कार्यक्रमों और भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आकार में छिपे हैं. ये दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं.

नेबरहुड फर्स्ट

2014 में नरेंद्र मोदी ने जब पहली बार भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी तो उन्होंने पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों को भारत आने का न्योता देकर चौंकाया था. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी उसमें शामिल हुए थे.

मोदी सरकार पहले दिन से कहती रही है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों को सबसे ज़्यादा महत्व मिलेगा. इसे 'नेबरहुड फ़र्स्ट' का नाम दिया गया है. मतलब यह कि दूर के देशों की तुलना में भारत, पड़ोसी देशों को ज़्यादा अहमियत देगा.

कोरोना महामारी के समय सहायता पहुँचाने और खासतौर से वैक्सीन देते समय ऐसा दिखाई भी पड़ा. बावजूद इसके दक्षिण एशिया में कारोबारी सहयोग का वैसा माहौल नहीं है, जैसा दक्षिण पूर्व एशिया सहयोग संगठन आसियान में है.

वैश्विक राजनीति

इस दौरान भारत ने अपने आर्थिक और सामरिक-संबंधों के लिए अमेरिका, रूस, जापान और इसराइल जैसे देशों को वरीयता दी. दक्षिण एशिया की तुलवा में उसके पश्चिम एशिया में यूएई, सऊदी अरब और ईरान के साथ रिश्ते बेहतर हैं. मोदी सरकार के पहले छह वर्षों में चीन से रिश्ते सुधारने की कोशिशें भी हुई थीं.

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नेपाल (अगस्त, 2014), श्रीलंका (मार्च, 2015) और बांग्लादेश (जून, 2015) में गर्मजोशी से स्वागत किया गया था. पाकिस्तान के साथ भी कुछ समय तक यह गर्मजोशी रही, पर जनवरी 2016 में पठानकोट हमले के बाद वह बात खत्म हो गई और फरवरी 2019 में पुलवामा और बालाकोट जैसी घटनाओं के बाद बड़े युद्ध की आशंकाओं ने जन्म भी दिया.

अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी ने दोनों देशों के रिश्तों को ऐसा सीलबंद किया है कि उसके खुलने का अबतक इंतज़ार है. पाकिस्तान ने तो औपचारिक रूप से भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते बंद ही कर रखे हैं.

श्रीलंका और मालदीव

भारी आर्थिक संकट के दौर में भारत ने श्रीलंका की काफी मदद की थी, वहां की सरकार ने भी दिल्ली की टेढ़ी निगाहों को नज़रंदाज़ किया और चीन के जासूसी जहाज को अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की अनुमति दी थी. ऐसा ही मालदीव में हुआ, जहाँ इंडिया आउट जैसा अभियान चला.

इस आंदोलन के सहारे भारत-समर्थक सरकार को सत्ता से हटा कर राष्ट्रपति बने मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने अपने देश से भारतीय सैन्यकर्मियों को हटाया और चीनी जासूसी जहाज को लंगर डालने की अनुमति दी, जबकि श्रीलंका तक ने उस जहाज को आने से रोक दिया है.

नेपाल में नए संविधान को लागू करने के दौरान भारत के मौन समर्थन से चलाए गए 'आर्थिक नाकेबंदी' कार्यक्रम को लेकर जो बदमज़गी पैदा हुई थी, वह दोनों देशों की सीमा को लेकर विवाद में बदल चुकी है. नेपाल ने अपने नए आधिकारिक नक्शे के रूप में उस कड़वाहट को स्थायी रूप दे दिया है.

इस क्षेत्र का सबसे शांत देश भूटान सामरिक, विदेशी और आर्थिक, लगभग तमाम मामलों में भारत पर निर्भर है, उसने भी अकेले अपने दम पर चीन के साथ सीमा पर बातचीत शुरू कर दी है. केवल बातचीत ही शुरू नहीं की है, बल्कि राजनयिक स्तर पर रिश्ते बनाने की शुरुआत भी कर दी है.

हसीना का पराभव

इतने देशों के साथ कड़वाहट के बावज़ूद भारत-बांग्लादेश रिश्ते बेहतर स्थिति में थे. अब वहाँ शेख हसीना को अपदस्थ होना पड़ा है और वहाँ ऐसी राजनीतिक शक्तियाँ सक्रिय हो गई हैं, जिन्हें भारत का मित्र नहीं कहा जा सकता.

क्या यह बात भारत की विदेश नीति के दोषों की ओर इशारा कर रही है या ऐसी वैश्विक-परिस्थितियों की ओर इशारा कर रही हैं, जिनमें चीन-अमेरिका और यूरोपीय देशों की भूमिका है? या यह मानें कि दक्षिण एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास और इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक संरचना के कारण इस इलाके के देश भारत की केंद्रीयता को स्वीकार करने में हिचकते हैं?

पहले यह स्वीकार करना होगा कि दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. यहां एक देश से दूसरे देश में आवाजाही या अंतरराष्ट्रीय सीमा संबंध जितने कठिन और जटिल हैं, उतना दुनिया के किसी और इलाक़े में नहीं हैं.

कारोबार की बात करें तो ग़रीब अफ़्रीकी देशों के बीच जितना आपसी व्यापार होता है उसकी तुलना में भी दक्षिण एशिया के देशों का आपसी व्यापार नहीं होता है, जबकि इस क्षेत्र में 200 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं.

भारत की केंद्रीयता

इन देशों के केंद्र में भारत जैसा देश है, जो इस समय दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था है. फिर भी इस इलाके में एकीकरण की भावना गायब है. दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) संभवतः दुनिया का सबसे निष्क्रिय संगठन है. दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है.

भारत के पड़ोस के राजनीतिक माहौल पर एक नज़र डालें. 2021 में म्यांमार और अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुए. 2022 में पाकिस्तान में इमरान सरकार का पराभव हुआ. उसी साल श्रीलंका में भीड़ ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षा को भागने को मज़बूर किया. 2023 में मालदीव में सत्ता परिवर्तन हुआ.

नेपाल में लगातार राजनीतिक अस्थिरता चल रही है. और अब बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ है. यह सब शांतिपूर्ण और सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक तरीके से हुआ होता, तब अलग बात थी. इस बात का श्रेय भारत को मिलना चाहिए, जिसने इस इलाके में अराजकता को फैसले से रोक रखा है. 

अराजक राजनीति

दक्षिण एशिया की आर्थिक बदहाली की वजह को खोजने के लिए भारत की नीतियों के अलावा इन सभी देशों की आंतरिक-परिस्थितियों पर भी नज़र डालनी चाहिए. हमारे सभी पड़ोसी देशों में जबर्दस्त उथल-पुथल चल रही है, जिसकी अभिव्यक्ति लगातार बदलते रिश्तों के रूप में होती है. इसके सबसे अच्छे उदाहरण श्रीलंका और मालदीव हैं.

जिस समय बांग्लादेश की उथल-पुथल की खबरें आ रही थी, हमारे विदेशमंत्री एस जयशंकर मालदीव के दौरे पर थे. वहां उन्हें राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू  का जैसा दोस्ताना रवैया दिखा, वह भी विस्मय की बात थी.

पिछले एक साल में मालदीव को भी कई प्रकार के अनुभव हुए हैं, पर भारत ने धैर्य के साथ परिस्थितियों के अनुरूप खुद को बदला और लगता है कि उसे सफलता मिली है. और अब ऐसा ही बांग्लादेश में भी देखने को मिल सकता है.

कुछ दूसरी बातों की ओर भी हमें ध्यान देना होगा. भारत के साथ इन देशों के क्षेत्रफल, सैनिक और आर्थिक शक्ति तथा वैश्विक प्रभाव में भारी अंतर है. केवल पाकिस्तान ही एक बड़ा देश है, जो ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने से घबराता है.

पाकिस्तान की भूमिका

पाकिस्तानी शासक मानते हैं कि भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने का मतलब है विभाजन की निरर्थकता को स्वयंसिद्ध मान लेना. उनके अंतर्विरोध लगातार टकराव के रूप में व्यक्त होते हैं, जो उनके लिए ही घातक साबित होते हैं. पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली में इसी नज़रिए का हाथ है.

भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधरेंगे, तो दक्षिण एशिया का न केवल रूपांतरण होगा, बल्कि उस भू-राजनीतिक पहचान का महत्व भी रेखांकित हो सकेगा, जो हजारों वर्षों में विकसित हुई है. इस बात को स्वीकार करना होगा कि भारतीय भूखंड का सांप्रदायिक आधार पर हुआ कृत्रिम राजनीतिक-विभाजन तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार है.

अमेरिका समेत ज्यादातर पश्चिमी देशों ने भारत के उभार को स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसके स्थान पर चीन को महत्व दिया. वहीं भारतीय राजव्यवस्था ने खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने में कम से कम चीन-चार दशक की देरी की. अब चीन हमारे पड़ोस में बड़े निवेश करने की स्थिति में है, जिससे उसे सामरिक लाभ भी मिलता है.

हिंदू-देश की छवि

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है. शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है. मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिंदू-देश के रूप में देखता है. पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है और भारत को दुश्मन की तरह पेश करती है.

इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं. श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिंदू-व्यवस्था माना जाता है. हिंदू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं. वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिंदुओं को भारत-हितैषी माना जाता है.

दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है. पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है.

चीनी सहयोग

कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि भारत को चीन के साथ मिलकर अपने पड़ोस के साथ रिश्ते बेहतर बनाने चाहिए. शायद मोदी सरकार का पहला इरादा ऐसा ही था, पर 2020 के गलवान प्रकरण के बाद इस रास्ते पर बढ़ना देश की आंतरिक राजनीति के दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं रहा. 

दक्षिण एशिया का आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास तभी संभव है, जब भारत की केंद्रीयता को स्वीकार किया जाएगा. यदि भारत के विरुद्ध चीनी-पाकिस्तानी कार्ड खेले जाते रहेंगे. तब तक इस इलाके में स्थिरता आ भी नहीं पाएगी. यह बात पड़ोसी देशों की समझ में भी आनी चाहिए.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

Saturday, September 30, 2023

मालदीव के चुनाव में भारत बनाम चीन

सोलिह और मुइज़्ज़ु

दक्षिण एशिया में अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बनाने की भारतीय कोशिशों में सबसे बड़ी बाधा चीन की है. पाकिस्तान के अलावा उसने बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव में काफी पूँजी निवेश किया है. पूँजी निवेश के अलावा चीन इन सभी देशों में भारत-विरोधी भावनाओं को भड़काने का काम भी करता है.

इसे प्रत्यक्ष रूप से हिंद महासागर के छोटे से देश मालदीव में देखा जा सकता है. चीन अपनी नौसेना को तेजी से बढ़ा रहा है. वह रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस जगह पर अपनी पहुंच बनाना चाहेगा, उसे भारत रोकना चाहता है. चीन यहां अपनी तेल आपूर्ति की सुरक्षा चाहता है, जो इसी रास्ते से होकर गुजरता है.

आज मालदीव में राष्ट्रपति पद की निर्णायक चुनाव है, जिसे भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा के रूप में देखा जा रहा है. करीब 1,200 छोटे द्वीपों से मिल कर बना मालदीव पर्यटकों का पसंदीदा ठिकाना है. यहां के बीच दुनिया के अमीरों और मशहूर हस्तियों को पसंद आते हैं. सामरिक दृष्टि से भी हिंद महासागर के मध्य में बसा यह द्वीप समूह काफी अहम है, जो पूरब और पश्चिम के बीच कारोबारी जहाजों की आवाजाही का प्रमुख रास्ता है.

चीन-समर्थक मुइज़्ज़ु

चुनाव में आगे चल रहे मोहम्मद मुइज़्ज़ु की पार्टी ने पिछले कार्यकाल में चीन से नजदीकियां काफी ज्यादा बढ़ा ली हैं. चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए खूब सारा धन बटोरा गया. 45 साल के मुइज़्ज़ु माले के मेयर रहे हैं. पिछली सरकार में मालदीव के मुख्य एयरपोर्ट से राजधानी को जोड़ने की 20 करोड़ डॉलर की चीन समर्थित परियोजना का नेतृत्व उन्हीं के हाथ में था.

मालदीव में चीन के पैसे से बनी इसी परियोजना की सबसे अधिक चर्चा है. यह 2.1 किमी लंबा चार लेन का एक पुल है. यह पुल राजधानी माले को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से जोड़ता है. यह हवाई अड्डा एक अलग द्वीप पर स्थित है. इस पुल का उद्घाटन 2018 में किया गया था. उस समय यामीन राष्ट्रपति थे.

9 सितंबर को हुए पहले दौर में उन्हें 46 फीसदी वोट मिले. दूसरी तरफ निवर्तमान राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को 39 फीसदी वोट ही मिल सके. सोलिह ने भारत से रिश्तों को सुधारने में अपना ध्यान लगाया था.

Wednesday, September 6, 2023

ठंडा क्यों पड़ा दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय-सहयोग?

 


भारत-उदय-05

भारतीय विदेश-नीति की सबसे बड़ी परीक्षा अपने पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते कायम करने में है. दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घूमा है कि दक्षिण एशिया की घड़ी की सूइयाँ अटकी रह गई हैं. भारत ने दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ‘नेबरहुड फर्स्ट नीति’ को अपनाया है. ‘नेबरहुड फर्स्ट’ का अर्थ अपने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने से है.

इस उदार दृष्टिकोण के बावजूद दक्षिण एशिया दुनिया के उन क्षेत्रों में शामिल है, जहाँ क्षेत्रीय-सहयोग सबसे कम है. हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर सकते हैं, पर दक्षिण एशिया में उससे कहीं कमतर समझौता भी पाकिस्तान से नहीं कर सकते. 1985 में बना दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) आज ठंडा पड़ा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कश्मीर.

Friday, March 24, 2023

पानी पर कब्जे की लड़ाई या सहयोग?


जनवरी के महीने में जब भारत ने पाकिस्तान को सिंधु जलसंधि पर संशोधन का सुझाव देते हुए एक नोटिस दिया था, तभी स्पष्ट हो गया था कि यह एक नए राजनीतिक टकराव का प्रस्थान-बिंदु है. सिंधु जलसंधि दुनिया के सबसे उदार जल-समझौतों में से एक है. भारत ने सिंधु नदी से संबद्ध छह नदियों के पानी का पाकिस्तान को उदारता के साथ इस्तेमाल करने का मौका दिया है. अब जब भारत ने इस संधि के तहत अपने हिस्से के पानी के इस्तेमाल का फैसला किया, तो पाकिस्तान ने आपत्ति दर्ज करा दी.

माना जाता है कि कभी तीसरा विश्वयुद्ध हुआ, तो पानी को लेकर होगा. जीवन की उत्पत्ति जल में हुई है. पानी के बिना जीवन संभव नहीं, इसीलिए कहते हैं ‘जल ही जीवन है.’ जल दिवस 22 मार्च को मनाया जाता है. इसके पहले 14 मार्च को दुनिया में एक्शन फॉर रिवर्स दिवस मनाया गया है. नदियाँ पेयजल उपलब्ध कराती हैं, खेती में सहायक हैं और ऊर्जा भी प्रदान करती हैं.

इन दिवसों का उद्देश्य विश्व के सभी देशों में स्वच्छ एवं सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित कराना है. साथ ही जल संरक्षण के महत्व पर भी ध्यान केंद्रित करना है. दुनिया यदि चाहती है कि 2030 तक हर किसी तक स्वच्छ पेयजल और साफ़-सफ़ाई की पहुँच सुनिश्चित हो, जिसके लिए एसडीजी-6 लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो हमें चार गुना तेज़ी से काम करना होगा.

चीन का नियंत्रण

हाल के वर्षों में चीन का एक बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति के रूप में उदय हुआ है. जल संसाधनों की दृष्टि से भी वह महत्वपूर्ण शक्ति है. दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में बहने वाली सात महत्वपूर्ण नदियों पर चीन का प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण है. ये नदियाँ हैं सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावदी, सलवीन, यांगत्जी और मीकांग. ये नदियां भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, लाओस और वियतनाम से होकर गुजरती हैं.

पिछले साल, पाकिस्तान और नाइजीरिया में आई बाढ़, या अमेजन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग से पता लगता है कि पानी का संकट हमारे जीवन को पूरी तरह उलट देगा. हमारे स्वास्थ्य, हमारी सुरक्षा, हमारे भोजन और हमारे पर्यावरण को ख़तरे में डाल देगा.

Thursday, September 8, 2022

शेख हसीना की राजनीतिक सफलता पर निर्भर हैं भारत-बांग्लादेश रिश्ते


शेख हसीना और नरेंद्र मोदी की मुलाकात और दोनों देशों के बीच हुए सात समझौतों से ज्यादा चार दिन की इस यात्रा का राजनीतिक लिहाज से महत्व है. दोनों की कोशिश है कि विवाद के मसलों को हल करते हुए सहयोग के ऐसे समझौते हों, जिनसे आर्थिक-विकास के रास्ते खुलें.

 

बांग्लादेश में अगले साल के अंत में आम चुनाव हैं और उसके तीन-चार महीने बाद भारत में. दोनों चुनावों को ये रिश्ते भी प्रभावित करेंगे. दोनों सरकारें अपनी वापसी के लिए एक-दूसरे की सहायता करना चाहेंगी.  

 

पिछले महीने बांग्लादेश के विदेशमंत्री अब्दुल मोमिन ने एक रैली में कहा था कि भारत को कोशिश करनी चाहिए कि शेख हसीना फिर से जीतकर आएं, ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता कायम रहे. दो राय नहीं कि शेख हसीना के कारण दोनों देशों के रिश्ते सुधरे हैं और आज दक्षिण एशिया में भारत का सबसे करीबी देश बांग्लादेश है.

 

विवादों का निपटारा

असम के एनआरसी और हाल में रोहिंग्या शरणार्थियों से जुड़े विवादों और बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के भारत-विरोधी आंदोलनों के बावजूद दोनों देशों ने धैर्य के साथ मामले को थामा है.

 

दोनों देशों ने सीमा से जुड़े तकरीबन सभी मामलों को सुलझा लिया है. अलबत्ता तीस्ता जैसे विवादों को सुलझाने की अभी जरूरत है. इन रिश्तों में चीन की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर बांग्ला सरकार ने बड़ी सफाई से संतुलन बनाया है.

 

बेहतर कनेक्टिविटी

पाकिस्तान के साथ बिगड़े रिश्तों के कारण पश्चिम में भारत की कनेक्टिविटी लगभग शून्य है, जबकि पूर्व में काफी अच्छी है. बांग्लादेश के साथ भारत रेल, सड़क और जलमार्ग से जुड़ा है. चटगाँव बंदरगाह के मार्फत भारत अपने पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिण पूर्व के देशों से कारोबार कर सकता है.

 

इसी तरह बांग्लादेश का नेपाल और भूटान के साथ कारोबार भारत के माध्यम से हो रहा है. बांग्लादेश की इच्छा भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा भी है.

 

शेख हसीना सरकार को आर्थिक मोर्चे पर जो सफलता मिली है, वह उसका सबसे बड़ा राजनीतिक-संबल है. भारत के साथ विवादों के निपटारे ने इसमें मदद की है. इन रिश्तों में विलक्षणता है.

 

सांस्कृतिक समानता

दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं. 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस था, और आज भी दोनों के अंतर्विरोधी रिश्ते हैं. पर ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं.

 

बेशक वहाँ भी भारत-विरोध है, पर सरकार के नियंत्रण में है. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि पिछले एक दशक में शेख हसीना के कारण भारत का बांग्लादेश पर प्रभाव बहुत बढ़ा है. क्या यह मैत्री केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो कभी नेतृत्व बदला तो क्या होगा?

 

यह केवल हसीना शेख तक सीमित मसला नहीं है. अवामी लीग केवल एक नेता की पार्टी नहीं है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और.

 

आर्थिक सफलता

केवल साजिशों की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था.

Sunday, July 17, 2022

क्या से क्या हो गया श्रीलंका?


श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने जनता के दबाव में इस्तीफा दे दिया है। खबरों के मुताबिक वे मालदीव होते हुए सिंगापुर पहुंच गए हैं। प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को अंतरिम राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गई है। देश में जनांदोलन का आज 99वाँ दिन है। शनिवार 9 जुलाई को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा की। देश में राजनीतिक असमंजस है, आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। वहाँ सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। अंतरिम राष्ट्रपति के शपथ लेने से समस्या का समाधान नहीं होगा। संसद को राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है। 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति का चुनाव होगा। इस जनांदोलन के पीछे सकारात्मकता भी दिखाई पड़ी है। भीड़ ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा जरूर किया, पर राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि उसकी रक्षा की। सेना ने भी आंदोलनकारियों के दमन का प्रयास नहीं किया।

अनेक कारण

राजनीतिक स्थिरता के बाद ही आईएमएफ से बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत हो सकती है। सबसे पहले हमें समझना होगा कि समस्या है क्या। समस्या के पीछे अनेक कारण हैं। विदेशी मुद्रा कोष खत्म हो गया है, जिसके कारण जरूरी वस्तुओं का आना बंद हो गया है। 2019 को हुए चर्च में हुए विस्फोट, कोविड-9 के कारण पर्यटन उद्योग को लगा धक्का, खेती में रासायनिक खादों का इस्तेमाल एकमुश्त खत्म करके ऑर्गेनिक खेती शुरू करने की नीति, इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए चीनी कर्ज को चुकाने की दिक्कतें और धीरे-धीरे आर्थिक गतिविधियों का ठप होना। सरकार रास्ते खोज पाती कि जनता का गुस्सा फूट पड़ा। पर समाधान राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियों से ही निकलेगा।

दिवालिया देश

महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने कहा था कि देश दिवालिया हो चुका है। पेट्रोल और डीजल खत्म हो चुका है। परिवहन तकरीबन ठप है। शहरों तक भोजन सामग्री नहीं पहुँचाई जा सकती है। दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। अस्पतालों में सर्जरी बंद हैं। विदेश से चीजें मंगवाने के लिए पैसा नहीं है। अच्छे खासे घरों में फाके शुरू हो गए हैं। स्कूल बंद हैं। सरकारी दफ्तरों तक में छुट्टी है। निजी क्षेत्र काम ही नहीं कर रहा है। इसके पहले अप्रेल के महीने में श्रीलंका सरकार ने कहा था कि वह 51 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। विदेश से पेट्रोल, दवाएं और जरूरी सामग्री खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं है।

विदेशी मुद्रा

जनवरी में लगने लगा था कि विदेशी-मुद्रा कोष के क्षरण के कारण श्रीलंका में डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो जाएगी। राजपक्षे परिवार ने चीन और भारत से मदद माँगी। 15 जनवरी को विदेशमंत्री एस जयशंकर ने श्रीलंका के वित्तमंत्री बासिल राजपक्षे के साथ बातचीत की, जिससे स्थिति बिगड़ने से बची। दिसंबर में पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने श्रीलंका के साथ 1.5 अरब डॉलर का करेंसी स्वैप किया। 13 जनवरी को भारत ने फौरी तौर पर 90 करोड़ डॉलर के ऋण की घोषणा की थी, ताकि श्रीलंका खाद्य-सामग्री का आयात जारी रख सके। इस दोनों वित्तीय पैकेजों ने कुछ समय के लिए उसे बड़े संकट से बचा लिया, पर यह स्थायी समाधान नहीं था।

अनुशासनहीनता

वर्तमान बदहाली के पीछे राजनीतिक अनुशासनहीनता का हाथ है। 2019 में गोटाबाया राजपक्षा के राष्ट्रपति बनने के बाद आईएमएफ की उन मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों को त्याग दिया गया, जो उसके तीन साल पहले इसी किस्म का संकट पैदा होने पर अपनाई गई थीं। श्रीलंका में सत्ता-परिवर्तन के पीछे लंबी जद्दो-जहद थी। नई सरकार ने आते ही तैश में या लोकप्रियता बटोरने के इरादे से टैक्सों और ब्याज में कमी कर दी। यह देखे बगैर की जरूरत किस बात की है। ऊपर से कोविड-19 ने परिस्थिति को बदल दिया। अब आईएमएफ के पास जाना भी राजनीतिक रूप से तमाचा होता। आईएमएफ की शर्तों की वे खुली आलोचना कर चुके थे और इसे संप्रभुता में हस्तक्षेप मानते रहे।  

देखते ही देखते तबाही

संकट तब पैदा हुआ, जब हालात सुधरने की आशा थी। महामारी के दौरान अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाओं पर लगी रोक के कारण पर्यटन-कारोबार ठप हो गया था। पर्यटक अब आने लगे हैं, पर पहले के मुकाबले 20 फीसदी भी नहीं हैं। निर्यात बढ़ा, कंपनियों की आय बढ़ी, फिर भी अर्थव्यवस्था लंगड़ा गई। पुराने कर्जों को निपटाने में विदेशी मुद्रा का भंडार खत्म होने लगा। इससे पेट्रोल, रसोई गैस, गेहूँ और दवाओं के आयात पर असर पड़ा। रुपये की कीमत घटती गई, जिससे विदेशी सामग्री और महंगी हो गई। संकट पिछले साल के अंत में ही नजर आने लगा था। नवंबर 2021 में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.2 अरब डॉलर रह गया। दिसंबर में एक महीने के आयात के लायक एक अरब डॉलर की मुद्रा हाथ में थी। 18 जनवरी को 50 करोड़ डॉलर के इंटरनेशनल सॉवरिन बॉण्ड की अदायगी अलग से होनी थी, जिसके डिफॉल्ट की स्थिति पैदा हो गई थी। इससे बचने के लिए बाहरी मदद की जरूरत पड़ी।

Monday, April 18, 2022

दक्षिण एशिया में उम्मीदों की सरगर्मी


इस हफ्ते तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे भारत की विदेश-नीति और भू-राजनीति पर असर पड़ेगा। सोमवार को भारत और अमेरिका के बीच चौथी 'टू प्लस टू' मंत्रिस्तरीय बैठक हुई, की, जिसमें यूक्रेन सहित वैश्विक-घटनाचक्र पर बातचीत हुई। पर सबसे गम्भीर चर्चा रूस के बरक्स भारत-अमेरिका रिश्तों, पर हुई। इसके अलावा पाकिस्तान में हुए राजनीतिक बदलाव और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी गतिविधियों के निहितार्थ को समझना होगा। धीरे-धीरे एक बात साफ होती जा रही है कि यूक्रेन के विवाद का जल्द समाधान होने वाला नहीं है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब रूस को निर्णायक रूप से दूसरे दर्जे की ताकत बनाने पर उतारू हैं। भारत क्या रूस को अपना विश्वस्त मित्र मानकर चलता रहेगा? व्यावहारिक सच यह है कि वह अब चीन का जूनियर सहयोगी है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं, जिनमें ऊर्जा से जुड़ी सुरक्षा सबसे प्रमुख हैं। हम किधर खड़े हैं? रूस के साथ, या अमेरिका के? किसी के साथ नहीं, तब इस टकराव से आग से खुद को बचाएंगे कैसे? स्वतंत्र विदेश-नीति के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था और सामरिक-शक्ति की जरूरत है। क्या हम पर्याप्त मजबूत हैं? गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने अपनी तटस्थता का परिचय जरूर दिया, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है।

भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे। म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है।

हिन्द महासागर में चीन

हिन्द महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है। हाल में विदेशमंत्री एस जयशंकर बिम्स्टेक के कार्यक्रम के सिलसिले में श्रीलंका के दौरे पर भी गए, और मदद की पेशकश की। श्रीलंका के आर्थिक-संकट के पीछे कुछ भूमिका नीतियों की है और कुछ परिस्थितियों की। महामारी के कारण श्रीलंका का पर्यटन उद्योग बैठ गया है। उसे रास्ते पर लाने के लिए केवल भारत की सहायता से काम नहीं चलेगा। इसके लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाना होगा।

भारत को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक-शक्ति को बढ़ाने की जरूरत है, वहीं अपने पड़ोस में चीनी-प्रभाव को रोकने की चुनौती है। पड़ोस में भारत-विरोधी भावनाएं एक अर्से से पनप रही हैं। पिछले कई महीनों से मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान चल रहा है, जिसपर हमारे देश के मीडिया का ध्यान नहीं है। बांग्लादेश में सरकार काफी हद तक भारत के साथ सम्बंध बनाकर रखती है, पर चीन के साथ उसके रिश्ते काफी आगे जा चुके हैं।

इतिहास का बोझ

अफगानिस्तान में सत्ता-परिवर्तन के बाद भारतीय-डिप्लोमेसी में फिर से कदम बढ़ाए हैं। वहाँ की स्थिति स्पष्ट होने में कुछ समय लगेगा। बहुत कुछ चीन-अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों पर भी निर्भर करेगा। इतना स्पष्ट है कि अंततः अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों में खलिश पैदा होगी, जिसका लाभ भारत को मिलेगा। ऐसा कब होगा, पता नहीं। भारत को नेपाल और भूटान के साथ अपने रिश्तों को बेहतर आधार देना होगा, क्योंकि इन दोनों देशों में चीन की घुसपैठ बढ़ रही है।

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है। शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है। मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिन्दू-देश के रूप में देखता है। पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है। इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं। श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिन्दू-व्यवस्था माना जाता है। हिन्दू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं। वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिन्दुओं को भारत-हितैषी माना जाता है। दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है। पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है।

पाकिस्तान में बदलाव

पाकिस्तान में सत्ता-परिवर्तन हो गया है। नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की बात कही है, साथ ही कश्मीर के मसले का उल्लेख भी किया है। नवाज शरीफ के दौर में भारत-पाकिस्तान बातचीत शुरू होने के आसार बने थे। जनवरी 2016 में दोनों देशों के विदेश-सचिवों की बातचीत के ठीक पहले पठानकोट कांड हो गया। उसके बाद से रिश्ते बिगड़ते ही गए हैं। यह भी पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। फिलहाल हमें इंतजार करना होगा कि वहाँ की राजनीति किस रास्ते पर जाती है। अच्छी बात यह है कि पिछले साल नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता अभी तक कारगर है।

दक्षिण एशिया का हित इस बात में है कि यहाँ के देशों को बीच आपसी-व्यापार और आर्थिक-गतिविधियाँ बढ़ें। भारत और पाकिस्तान का टकराव ऐसा होने से रोकता है। संकीर्ण धार्मिक-भावनाएं वास्तविक समस्याओं पर हावी हैं। पाकिस्तान के राजनीतिक-परिवर्तन से बड़ी उम्मीदें भले ही न बाँधें, पर इतनी उम्मीद जरूर रखनी चाहिए कि समझदारी की कुछ हवा बहे, ताकि ज़िन्दगी कुछ आसान और बेहतर बने। 

नवजीवन में प्रकाशित

Monday, December 27, 2021

भारत-बांग्ला रिश्तों के खट्टे-मीठे पचास साल


भारत-बांग्लादेश रिश्तों में विलक्षणता है। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं। 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस के रूप में उभरा था, और आज भी खुद को भारत के विपरीत साबित करना चाहता है। अपने ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें ऐसी एकता पसंद नहीं, हमारे यहाँ और उनके यहाँ भी। बांग्लादेश के कुछ विश्लेषक, शेख हसीना के विरोधी खासतौर से मानते हैं कि पिछले एक दशक में भारत का प्रभाव कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। तब इन दिनों जो मैत्री नजर आ रही है, वह क्या केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो उनके बाद क्या होगा?

विभाजन की कड़वाहट

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है।

लोकतांत्रिक अनुभव

शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विरोधी-दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे। भारत ने समर्थन किया था, इसलिए कि बांग्लादेश में अस्थिरता का भारत पर असर पड़ता है।

उस विवाद से सबक लेकर भारत ने 2018 के चुनाव में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे लगे कि हम उनकी चुनाव-व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं। उस चुनाव में अवामी लीग ने कुल 300 में से 288 सीटों पर विजय पाई। दुनिया के मुस्लिम-बहुल देशों में बांग्लादेश का एक अलग स्थान है। वहाँ धर्मनिरपेक्षता बनाम शरिया-शासन की बहस है। बांग्लादेश इस अंतर्विरोध का समाधान करने में सफल हुआ, तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता माना जाएगा।

Friday, July 16, 2021

सवालों के घेरे में अफगानिस्तान और भारतीय विदेश-नीति की परीक्षा


अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के साथ ही तालिबान हिंसा के सहारे फिर से अपने पैर पसार रहा है। करीब बीस साल से सत्ता से बाहर रह चुके इस समूह की ताकत क्या है, उसे हथियार कौन दे रहा है और उसका इरादा क्या है, और अफगानिस्तान क्या एकबार फिर से गृहयुद्ध की आग में झुलसने जा रहा है? क्या अफगानिस्तान में फिर से कट्टरपंथी तालिबानी-व्यवस्था की वापसी होगी, जिसमें नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार शून्य थे? स्त्रियों के बाहर निकलने पर रोक और उनकी पढ़ाई पर पाबंदी थी। उन्हें कोड़े मारे जाते थे। पिछले बीस वर्षों में वहाँ व्यवस्था सुधरी है। कम से कम शहरों में लड़कियाँ पढ़ने जाती हैं। काम पर भी जाती हैं। उनके पहनावे को लेकर भी पाबंदियाँ नहीं हैं।

हम क्या करें?

ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब पाने की हमें कोशिश करनी चाहिए, पर फिलहाल हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल है कि इस घटनाक्रम से भारत के ऊपर क्या प्रभाव पड़ने वाला है और हमें करना क्या चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान बुनियादी तौर पर पाकिस्तान की देन हैं। अस्सी के दशक में पाकिस्तानी मदरसों ने इन्हें तैयार किया था और उसके पीछे अफगानिस्तान को पाकिस्तान का उपनिवेश बनाकर रखने का विचार है। पिछले बीस वर्षों में अफगानिस्तान सरकार ने अपने देश को पाकिस्तान की भारत-विरोधी गतिविधियों का केंद्र बनने से रोका है। भारत ने इस दौरान करीब तीन अरब डॉलर की धनराशि से वहाँ के इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए प्रयास किए हैं। भारत ने वहाँ बाँध, पुल, सड़कें, रेल लाइन, पुस्तकालय और यहाँ तक कि देश का नया संसद भवन भी बनाकर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं।

इन सबकी तुलना में ईरान के चाबहार के रास्ते मध्य एशिया तक जाने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की आधार-शिला भी भारत ने डाली है। यह कॉरिडोर चीन और पाकिस्तान के सी-पैक के समानांतर होगा और यह अंततः हमें यूरोप से सीधा जोड़ेगा। चूंकि पाकिस्तान ने सड़क के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से भारत को जोड़ने की योजनाओं में अड़ंगा डाल रखा है, इसलिए यह एक वैकल्पिक-व्यवस्था थी। दुर्भाग्य से अमेरिका और ईरान के बिगड़ते रिश्तों के कारण इस कार्यक्रम को आघात लगा है। पाकिस्तान की कोशिश लगातार भारतीय हितों को चोट पहुँचाने की रही है और अब भी वह येन-केन प्रकारेण चोट पहुँचाने का प्रयास कर रहा है।

रूस और चीन की भूमिका

अफगानिस्तान में इस समय वैश्विक स्तर पर दो धाराएं सक्रिय हैं। एक है अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों की और दूसरी रूस और चीन के नेतृत्व में मध्य एशिया के देशों की। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान में चीन अब ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए। उसकी आड़ में उसे अपनी गतिविधियाँ चलाने का मौका मिलेगा। चीन चाहता है कि उसके शिनजियांग प्रांत में सक्रिय वीगुर उग्रवादी अफगानिस्तान में सक्रिय न होने पाएं। पाकिस्तान ने पिछले दो वर्षों में चीन और तालिबान के बीच तार बैठाए हैं। चीन ने अफगानिस्तान में पूँजी निवेश का आश्वासन भी दिया है।

चीन ने रूस में भी पूँजी निवेश किया है और वह रूसी पेट्रोलियम भी खरीद रहा है, जिसके कारण रूस का झुकाव चीन की तरफ है। अमेरिका के साथ रूसी रिश्ते भी बिगड़े हैं, जिस कारण से ये दोनों देश करीब हैं। इसके अलावा रूस इस बात को भूल नहीं सकता कि अस्सी के दशक में अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूसी कब्जे के खिलाफ लड़ाई में मुजाहिदीन का साथ दिया था। उधर अमेरिकी शक्ति क्षीण हो रही है। वह अफगानिस्तान से हटना चाहता है। पिछले दो साल से वह तालिबान के साथ बातचीत चला रहा था। इस बातचीत के निहितार्थ को समझते हुए रूस और चीन ने भी तालिबान के साथ सम्पर्क स्थापित किया था। इसका ज्यादा स्पष्ट रूप अब हमें देखने को मिल रहा है।

अस्सी के दशक में भारत और रूस के रिश्ते बेहतर थे, अब हम अमेरिका के करीब हैं। इस साल 18 मार्च को मॉस्को में अफगानिस्तान को लेकर एक बातचीत हुई, जिसमें रूस, चीन, अमेरिका की तिकड़ी के अलावा पाकिस्तान, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें भारत को नहीं बुलाया गया, जबकि फरवरी 2019 में हुई मॉस्को-वार्ता में भारत भी शामिल हुआ था। बहरहाल कई कारणों से रूस अब भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता। पर भारत को हाशिए पर रखने की पाकिस्तानी कोशिशें लगातार जारी हैं।