यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी? काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। रविवार की दोपहर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल में उदयन शर्मा फाउंडेशन के संवाद-2010 में विचार व्यक्त करने और दूसरों को सुनने के लिए जिस तरह से मीडिया से जुड़े लोग जमा हुए उससे इतनी आश्वस्ति ज़रूर होती है कि सब लड़ाई को इतनी आसानी से हारने को तैयार नहीं हैं। गोकि इस मसले को अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से देखते हैं।
खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।
पत्रकारिता एक नोबल प्रोफेशन है। और नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था, इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।
कुछ महीने पहले इसी कांस्टीट्यूशन क्लब में एडीटर्स गिल्ड और वीमेंस प्रेस कोर ने मिलकर एक गोष्ठी की थी, जिसमें टीएन नायनन ने कहा था कि सम्पादक को खड़े होकर ‘ना’ कहना चाहिए। रविवार की गोष्ठी में किसी ने गिरिलाल जैन का उल्लेख किया, जिन्होंने सम्पादकीय विभाग में आए विज्ञापन विभाग के व्यक्ति से कहा कि इस फ्लोर पर सम्पादकीय विभाग की बातों पर चर्चा होती है, बिजनेस की नहीं। कह नहीं सकते कि उस अखबार में आज क्या हालात हैं। पर हमें गिरिलाल जैन के कार्यकाल का अंतिम दौर याद है। उस मसले पर ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में कवर स्टोरी छपी। यह बात उस दौर के मीडिया हाउसों के मालिकों के व्यवहार और उसमें आते बदलाव पर रोशनी डालती है।
सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।
इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने का हमारा अधिकार जाने-अनजाने दुनिया की सबसे अनोखी संवैधानिक व्यवस्था है। अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की तरह यह केवल प्रेस की फ्रीडम नहीं है। अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। ‘राइट टु इनफॉरमेशन’ ही नहीं हमें ‘फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशन’ चाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रवेश अनुचित है। मीडिया की ताकत पूँजी नहीं है। जनता या पाठक-दर्शक है। यदि मीडिया का वर्तमान ढाँचा अपनी साख को ध्वस्त करके सूचना को खरीदने और बेचने लायक कमोडिटी में तब्दील करना चाहता है तो मीडिया की ओनरशिप के बारे में सोचा जाना चाहिए।
चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है। पेड न्यूज समस्या नहीं समस्या का एक लक्षण है। उसे लेकर पब्लिक स्क्रूटनी शुरू हुई है, यह उसके समाधान का लक्षण है।