हालांकि तालिबान ने गत 15 अगस्त को काबुल में
प्रवेश कर लिया था, पर उन्होंने 19 अगस्त को अफगानिस्तान में ‘इस्लामी अमीरात’ की स्थापना
की घोषणा की। इस तारीख और इस घोषणा का प्रतीकात्मक महत्व है। 19 अगस्त अफगानिस्तान
का राष्ट्रीय स्वतंत्रता है। 19 अगस्त, 1919 को एंग्लो-अफगान संधि
के साथ अफगानिस्तान ब्रिटिश-दासता से मुक्त हुआ था। अंग्रेजों और अफगान सेनानियों
के बीच तीसरे अफगान-युद्ध के बाद यह संधि हुई थी।
नाम नहीं काम
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है ‘इस्लामी अमीरात’ की घोषणा।
अभी तक यह देश ‘इस्लामी गणराज्य’ था, अब
अमीरात हो गया। क्या फर्क पड़ा? केवल नाम की बात नहीं
है। गणतंत्र का मतलब होता है, जहाँ राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा चुना जाता है।
अमीरात का मतलब है वह व्यवस्था, जिसमें अपारदर्शी तरीके से राष्ट्राध्यक्ष कुर्सी
पर बैठते हैं। तालिबानी सूत्र संकेत दे रहे हैं कि अब कोई कौंसिल बनाई जाएगी, जो
शासन करेगी और उसके सर्वोच्च नेता होंगे हैबतुल्ला
अखूंदजदा।
कौन बनाएगा यह कौंसिल, कौन होंगे उसके सदस्य, क्या अफगानिस्तान की जनता से कोई पूछेगा कि क्या होना चाहिए? इन सवालों का अब कोई मतलब नहीं है। तालिबान की वर्तमान व्यवस्था बंदूक के जोर पर आई है। सारे सवालों का जवाब है बंदूक। यानी कि इसे बदलने के लिए भी बंदूक का सहारा लेने में कुछ गलत नहीं। इस बंदूक और अमेरिकी बंदूक में कोई बड़ा फर्क नहीं है, पर सिद्धांततः आधुनिक लोकतांत्रिक-व्यवस्था पारदर्शिता का दावा करती है। वह पारदर्शी है या नहीं, यह सवाल अलग है।
पारदर्शिता को लेकर उस व्यवस्था से सवाल किए जा सकते हैं, तालिबानी व्यवस्था से नहीं। आधुनिक लोकतंत्रों में उसके लिए संस्थागत व्यवस्था है, जिसका क्रमशः विकास हो रहा। वह व्यवस्था ‘सेक्युलर’ है यानी धार्मिक नियमों से मुक्त है। कम से कम सिद्धांततः मुक्त है। हमें नहीं पता कि अफगानिस्तान की नई न्याय-व्यस्था कैसी होगी। वर्तमान अदालतों का क्या होगा वगैरह।
सन 1919 की आजादी के
बाद ‘अफगान-अमीरात’ की स्थापना
हुई थी, जिसके अमीर या प्रमुख अमानुल्ला खां थे, जो अंग्रेजों के विरुद्ध चली
लड़ाई के नेता भी थे। इन्हीं अमानुल्ला खां ने 1926 में
स्वयं को ‘पादशाह’ या बादशाह घोषित किया और देश का नया नाम
‘अफगान बादशाहत (किंगडम)’ रखा गया। वह
अफगानिस्तान 29 अगस्त 1946 को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना।
स्कर्टधारी
लड़कियाँ
बीसवीं सदी के
अफगानिस्तान पर नजर डालें, तो पाएंगे कि अपने शुरूआती वर्षों में यह देश
अपेक्षाकृत आधुनिक और प्रगतिशील था। हाल में सोशल मीडिया पर पुराने अफगानिस्तान की
एक तस्वीर वायरल हुई थी, जिसमें स्कर्ट पहने कुछ लड़कियाँ दिखाई पड़ती हैं। उस
तस्वीर के सहारे यह बताने की कोशिश की गई थी कि देखो वह समाज कितना प्रगतिशील था।
इस तस्वीर पर एक सज्जन
की प्रतिक्रिया थी कि छोटे कपड़े पहनना प्रगतिशीलता है, तो लड़कियों को नंगे
घुमाना महान प्रगतिशीलता होगी। यह उनकी दृष्टि है, पर बात इतनी थी कि एक ऐसा समय था,
जब अफगानिस्तान में लड़कियाँ स्कर्ट पहन सकती थीं। स्कर्ट भी शालीन लिबास है। बात नंगे घूमने की नहीं है। जब
सामाजिक-वर्जनाएं इतनी कम होंगी, वहाँ नंगे घूमने पर भी आपत्ति नहीं होगी। दुनिया
में आज भी कई जगह न्यूडिस्ट कैम्प लगते हैं।
शालीनता की परिभाषाएं सामाजिक-व्यवस्थाएं तय करती हैं, पर उसमें सर्वानुमति, सहमति और जबर्दस्ती के द्वंद्व का समाधान भी होना चाहिए। उसके पहले हमें आधुनिकता को परिभाषित करना होगा। बहरहाल विषयांतर से बचने के लिए बात को मैं अभी अफगानिस्तान पर ही सीमित रखना चाहूँगा। फिलहाल इतना ही कि तमाम तरह की जातीय विविधता और कबायली जीवन-शैली के बावजूद वहाँ ‘कट्टरपंथी हवाएं’ नहीं चली थीं।