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Wednesday, November 28, 2012

कुछ भी हो साख पत्रकारिता की कम होगी

ज़ी़ न्यूज़ के सम्पादक की गिरफ्तारी के बारे में सोशल मीडिया में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। इसमें कई तरह की व्यक्तिगत बातें भी हैं। कुछ लोग सुधीर चौधरी से व्यक्तिगत रूप से खफा हैं। वे इसे अपनी तरह देख रहे हैं, पर काफी लोग हैं जो मीडिया और खासकर समूची  पत्रकारिता की साख को लेकर परेशान हैं। इन दोनों सवालों पर हमें दो अलग-अलग तरीकों से सोचना चाहिए।

एक मसला व्यावसायिक है। दोनों कारोबारी संस्थानों के कुछ पिछले विवाद भी हैं। हमें उसकी पृष्ठभूमि अच्छी तरह पता हो तब तो कुछ कहा भी जाए अन्यथा इसके बारे में जानने की कोशिश करनी चाहिए। फेसबुक में एक पत्रकार ने टिप्पणी की कि यह हिसार-युद्ध है। इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक सीडी की सचाई के परीक्षण की बात है, यह वही संस्था है जहाँ से शांति भूषण के सीडी प्रकरण पर रपट आई थी और वह रपट बाद में गलत साबित हुई। फिर यह सीडी एक समय तक इंतज़ार के बाद सामने लाई गई। हम नहीं कह सकते कि कितना सच सामने आया है। पुलिस की कार्रवाई न्यायपूर्ण है या नहीं, यह भी नहीं कह सकते। बेहतर होगा इसपर अदालत के रुख का इंतज़ार किया जाए।

Thursday, November 1, 2012

गौरी भोंसले के नाम पर क्या यह खबर भी सीरियल की पब्लिसिटी थी?

इस बात पर टाइम्स ऑफ इंडिया ने ध्यान दिया। खबर में खास बात नहीं थी, पर लगता है कि कुछ बड़े अखबार इस खबर के लपेटे में आ गए। हाँ इससे एक बात यह भी साबित हुई कि लगभग सभी अखबार पुलिस की ब्रीफिंग का खुले तरीके से इस्तेमाल करते हैं और हर बात ऐसे लिखते हैं मानो यही सच है। पत्रकारिता की ट्रेनिंग के दौरान उन्हें बताया जाता है कि सावधानी से तथ्यों की पुष्टि करने के बाद लिखो, पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं।

पहले आप यह विज्ञापन देखें जो कुछ दिन पहले कई अखबारों में छपा, जिसमें गौरी भोंसले नामक लड़की के लंदन से लापता होने की जानकारी दी गई थी। विज्ञापन देखने से ही पता लग जाता था कि यह किसी चीज़ की पब्लिसिटी के लिए है। इस सूचना की क्लिप्स लगभग खबर के अंदाज़ में एबीपी न्यूज़ में आ रहीं थीं। हालांकि एबीपी न्यूज़ का स्टार टीवी से सम्बन्ध अब नहीं है, पर विज्ञापन क्लिप्स खबर के अंदाज़ में आना क्या गलतफहमी पैदा करना नहीं है? पर स्टार के पास इसका जवाब है कि विज्ञापन को खबर के फॉ्र्मेट में देना मार्केटिंग रण नीति है। बहरहाल पहले से लग रहा था कि स्टार पर कोई सीरियल आने वाला है, जिसमें इस किस्म की कहानी है। अचानक 31 अक्टूबर को दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस, मेल टुडे और हिन्दू ने खबर छापी कि वह लड़की उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक गाँव से बरामद की गई है। हिन्दू ने खबर में लड़की का नाम नहीं दिया, जबकि बाकी दोनों अखबारों ने उसका नाम गौरी भोंसले, वही विज्ञापन वाला नाम।

Thursday, November 3, 2011

बयानबाज़ी के बजाय मीडिया आत्ममंथन करे

हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले साठ वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं। पर अब प्रेस की जगह मीडिया शब्द आ गया है। ‘प्रेस’ शब्द ‘पत्रकारिता’ के लिए रूढ़ हो गया है। टीवी वालों की गाड़ियों पर भी मोटा-मोटा प्रेस लिखा होता है। अखबारों के मैनेजरों की गाड़ियों पर उससे भी ज्यादा मोटा प्रेस छपा रहता है।

इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।

Monday, October 24, 2011

कारोबार और पत्रकारिता के बीच की दीवार कैसे टूटी?

प्रेस की आज़ादी का व्यावहारिक अर्थ है मीडिया के मालिक की आज़ादी। इसमें पत्रकार की जिम्मेदारी उन नैतिक दायित्वों की रक्षा करने की थी जो इस कर्म को जनोन्मुखी बनाते हैं। पर देर सबेर सम्पादक पद से पत्रकार हट गए, हटा दिए गए या निष्क्रिय कर दिए गए। या उनकी जगह तिकड़मियों और दलाल किस्म के लोगों ने ले ली। पर कोई मालिक खुद ऐसा क्यों करेगा, जिससे उसके मीडिया की साख गिरे? इसकी वजह कारोबारी ज़रूरतों का नैतिकताओं पर हावी होते जाना है। मीडिया जबर्दस्त कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में उतर रही हैं और उन सब तिकड़मों को कर रही हैं, जो क्रोनी कैपीटलिज़्म में होती हैं। वे अपने ऊपर सदाशयता का आवरण भी ओढ़े रहती हैं। साख को वे कूड़दान में डाल चुकी हैं। उन्हें अपने पाठकों की नादानी और नासमझी पर भी पूरा यकीन है। इन अंतर्विरोधों के कारण  गड़बड़झाला पैदा हो गया है। इसकी दूरगामी परिणति मीडिया -ओनरशिप को नए ढंग से परिभाषित करने में होगी। ऐसा आज हो या सौ साल बाद। जब मालिक की दिलचस्पी नैतिक मूल्यों में होगी तभी उनकी रक्षा होगी। मीडिया की उपादेयता खत्म हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। क्योंकि वह धंधा नहीं एक मूल्य है।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीवी चैनल पर एक नया कार्यक्रम दिखाई पड़ा ‘सच का सामना।‘ किसी विदेशी कार्यक्रम की नकल पर बने कार्यक्रम का ध्यान देने वाला पहलू था तो उसकी टाइमिंग। कठोर सच सामने आ रहे हैं। उन्हें सुनने, विचार करने और अपने को सुधारने के बाद ही कोई समाज या संस्था आगे बढ़ सकती है। ऐसा पहली बार हुआ जब बड़े लोग जेल जाने लगे और घोटालों की झड़ी लग गई। और इन मामलों की चर्चा से समूचा मीडिया रंग गया। प्रौढ़ होते समाज के बदलाव का रास्ता विचार-विमर्श और सूचना माध्यमों से होकर गुजरता है। पिछले एक दशक में पत्रकारिता शब्द पर मीडिया शब्द हावी हो गया। दोनों शब्दों में कोई टकराव नहीं, पर मीडिया शब्द व्यापक है। सूचना-संचार कर्म के पत्रकारीय, व्यावसायिक और तकनीकी पक्ष को एक साथ रख दें तो वह मीडिया बन जाता है। इसी कर्म के सूचना-विचार पहलुओं की सार्वजनिक हितकारी और जनोन्मुख अवधारणा है पत्रकारिता। वह अपने साथ कुछ नैतिक दायित्व लेकर चलती है। पर मीडिया कारोबार भी है। वह पहले भी कारोबार था, पर हाल के वर्षों में वह यह साबित करने पर उतारू है कि वह कारोबार ही है। कारोबार के भी अपने मूल्य होते हैं। इस कारोबार के भी थे। वे भी क्रमशः कमज़ोर होते जा रहे हैं।

Tuesday, March 8, 2011

पत्रकारीय मर्यादा की स्वर्णिम शपथ

देश के सबसे बड़े बिजनेस अखबार इकोनॉमिक टाइम्स या ईटी ने अपने 7 मार्च के अंक के पहले सफे पर अपने लिए पत्रकारीय मर्यादाओं की आचार संहिता घोषित की है। इसके पहले देश के एक दूसरे बिजनेस डेली मिंट ने भी अपनी आचार संहिता घोषित कर रखी है। कुछ अन्य अखबारों की आचार संहिताएं भी होंगी।
हिन्दी के अखबारों में से किसी ने अपनी आचार संहिता बनाई है इसकी जानकारी मुझे नहीं है। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की आचार संहिता का पता मुझे नहीं है। अलबत्ता उनके एक संगठन एनबीए ने कुछ मर्यादा रेखाएं तय कर रखीं हैं।

Thursday, January 27, 2011

वीर सांघवी और बरखा दत्त


लाइफ स्टाइल पत्रिका सोसायटी के जनवरी अंक में वीर सांघवी और बरखा दत्त के इंटरव्यू छपे हैं। इनमें दोनों पत्रकारों ने अपन पक्ष को रखा है। दोनों अपने पक्ष को अपने कॉलमों, वैबसाइट और चैनल पर पहले भी रख चुके हैं। यह पहला मौका है जब दोनों ने एक साथ एक जगह अपनी बात रखी। इसमें ज़ोर इस बात पर है कि राडिया टेप का विवरण छापने के लिए जिन लोगों ने दिया उन्होंने हम दोनों से जुड़े विवरण को साफ-साफ अलग से अंकित किया था। यह लीक हम दोनों को टार्गेट करने के वास्ते थी।

Wednesday, January 26, 2011

भारतीय गणतंत्र का मीडिया



हमारा मीडिया क्या पूरी तरह स्वतंत्र है? 
सन 1757 में जब प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना को ईस्ट इंडिया कम्पनी की मामूली सी फौज ने हराया था, तब इस देश में अखबार या खबरों को जनता तक पहुँचाने वाला मीडिया नहीं था। आधुनिक भारत के लिए वह खबर युगांतरकारी थी। सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी ब्रेकिंग न्यूज़ उंगलियों पर गिनाई जा सकतीं हैं। पर उन खबरों पर सम्पादकीय नहीं लिखे गए। किसी टीवी शो में बातचीत नहीं हुई। पर 1857 की क्रांति होते-होते अखबार छपने लगे थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्यालय कोलकाता में था और वहीं से शुरूआती अखबार निकले। विलियम डैलरिम्पल ने अपनी पुस्तक द लास्ट मुगल में लिखा है कि पूरी बगावत के दौरान दिल्ली उर्दू अखबार और सिराज-उल-अखबार का प्रकाशन एक दिन के लिए भी नहीं रुका। आज इन अखबारों की कतरनें हमें इतिहास लिखने की सामग्री देतीं हैं। 

Monday, January 24, 2011

मीडिया और मनमोहन सरकार


पिछले शुक्रवार को सीएनएन आईबीएन पर करन थापर के कार्यक्रम लास्ट वर्ड में मीडिया की राय जानने के लिए जिन तीन पत्रकारों को बुलाया गया था वे तीनों किसी न किसी तरह से पार्टियों से जुड़े थे। संजय बारू कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार थे। चन्दन मित्रा का भाजपा से रिश्ता साफ है। वे भाजपा के सांसद भी हैं। इसी तरह हिन्दू के सम्पादक एन राम सीपीएम के सदस्य हैं। क्या यह अंतर्विरोध है? क्या मीडिया को तटस्थ नहीं होना चाहिए? ऐसे में मीडिया की साख का क्या होगा? इस बातचीत में संजय बारू ने यह सवाल उठाया भी।

Thursday, January 6, 2011

राष्ट्रपति के फोटो

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल गोवा गईं और बीच पर भी जाकर वहाँ के माहौल को देखा तो इसमें क्या गलत था? और इस बीच भ्रमण के जो फोटोग्राफ छपे उनमें कुछ भी  अभद्र नहीं था। पर गोवा पुलिस ने फोटोग्राफरों को बुलाकर नैतिकता को जो पाठ बढ़ाया वह अभद्र ज़रूर था।

Friday, December 17, 2010

राजदीप सरदेसाई भाग-1




राजदीप इसे मिस-कंडक्ट नहीं मिस-जजमेंट मानते हैं। इसे मानने में दिक्कत नहीं है, पर इसे मानने का मतलब है कि हम इस किस्म की पत्रकारिता से जुड़े आचरण को उचित मानते हैं। इन टेपों को सुनें तो आप समझ जाएंगे कि इन पत्रकारों ने नीरा राडिया से सवाल नहीं किए हैं, बल्कि उनके साथ एक ही नाव की सवारी की है। ये पत्रकार नीरा राडिया से कहीं असहमत नहीं लगते। व्यवस्था की खामियों को वे देख ही नहीं पा रहे हैं। दरअसल पत्रकारिता की परम्परागत समझ उन्हें है ही नहीं और वे अपने सेलेब्रिटी होने के नशे में हैं।

Sunday, December 5, 2010

मशहूर होने की पत्रकारिता


बरखा दत्त की पत्रकारिता शैली और साहस की तारीफ होती है। वे करगिल तक गईं और धमाकों के बीच रिपोर्टिंग की। न्यूयार्क टाइम्स ने इस मामले पर एक रपट प्रकाशित की है जिसमें बरखा दत्त के बारे में जानकारी देते वक्त उस उत्साह का विवरण दिया है जो उन्हें विरासत में मिला है। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार-


Ms. Dutt has followed in the footsteps of her mother, Prabha Dutt, who was a trailblazing female newspaper reporter, barging her way onto the front lines of the battles with Pakistan in 1965 despite her editors’ reluctance to dispatch a woman to cover a war.

Saturday, December 4, 2010

राजदीप सरदेसाई भाग-1

राजदीप इसे मिस-कंडक्ट नहीं मिस-जजमेंट मानते हैं। इसे मानने में दिक्कत नहीं है, पर इसे मानने का मतलब है कि हम इस किस्म की पत्रकारिता से जुड़े आचरण को उचित मानते हैं। इन टेपों को सुनें तो आप समझ जाएंगे कि इन पत्रकारों ने नीरा राडिया से सवाल नहीं किए हैं, बल्कि उनके साथ एक ही नाव की सवारी की है। ये पत्रकार नीरा राडिया से कहीं असहमत नहीं लगते। व्यवस्था की खामियों को वे देख ही नहीं पा रहे हैं। दरअसल पत्रकारिता की परम्परागत समझ उन्हें है ही नहीं और वे अपने सेलेब्रिटी होने के नशे में हैं।

राडिया प्रकरण पर विनोद मेहता



मीडियाकर्मी अपनी परम्परागत भूमिका को निभाते रहें तो किसी नए ज्ञान की ज़रूरत नहीं है। आज के विवाद इसलिए उठे हैं क्योंकि पत्रकार अपनी भूमिका को भूल गए हैं। वे या तो नींद में हैं या नशे में।

प्रेस क्लब में राजदीप

Wednesday, December 1, 2010

पुराने स्टाइल का मीडिया क्या परास्त हो गया है?

आईबीएन सीएनएन ने राडिया लीक्स और विकी लीक्स के बाद अपने दर्शकों से सवाल किया कि क्या पुराने स्टाइल के जर्नलिज्म को नए स्टाइल के मीडिया ने हरा दिया हैं? क्या है नए स्टाइल का जर्नलिज्म? सागरिका घोष की बात से लगता है कि नया मीडिया। यानी सोशल मीडिया, ट्विटर वगैरह।

अब यह भी तो पता लगाइए कि टेप किसने जारी किए


पत्रकारिता और कारोबारियों के बीच रिश्तों को लेकर हाल में जो कुछ हुआ है उससे हम पार हो जाएंगे। पर शायद अपनी साख को हासिल नहीं कर पाएंगे। यह बात काफी देर बाद समझ में आएगी कि साख का भी महत्व है। और यह भी कि पत्रकारिता दो दिन में स्टार बनाने वाला मंच ज़रूर है, पर कभी ऐसा वक्त भी आता है जब चोटी से जमीन पर आकर गिरना होता है। बहरहाल अभी अराजकता का दौर है।

Sunday, November 28, 2010

नीरा राडिया टेप मामले से उठे सवाल


रतन टाटा के करीबी सूत्रों के अनुसार सम्भवतः वे इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाएंगे। रतन टाटा देश के सम्मानित उद्योगपति हैं और उनके संस्थान की देश की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका है। वे चाहते हैं कि यह देश बनाना रिपब्लिक न बनने पाए। यानी यहाँ ताकतवर लोग जो मन में आए वह न करा पाएं। वास्तव में एक सभ्हय और सुसंस्कृत देश के रूप में हमारी साख का सवाल है।

Saturday, November 27, 2010

क्या हैं टू जी, थ्रीजी और सीएजी

जेपीसी क्या होती है? और पीएसी क्या होती हैदूरसंचार आयोग क्या काम करता  है? और इन दिनों चल रहे दूरसंचार घोटाले का मतलब क्या है? किसने क्या फैसला किया और क्यों किया? सीएजी क्या करता है? उसे रपट लिखने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? उसकी रपट में क्या है?

मैं अपने आपको एक आम हिन्दी पाठक की जगह रखकर देखता हूँ तो ऐसे तमाम सवाल मेरे मन में उठते हैं। उसके बाद सुबह का अखबार उठाता हूँ तो कुछ और सवाल जन्म ले लेते हैं। टीआरएआई, जीओएम, एडीएजी, एफसीएफएस, 2जी, 3जी वगैरह-वगैरह के ढेर के बीच एक बात समझ में आती है कि कोई घोटाला हो गया है। मामला करोड़ों का नहीं लाखों करोड़ का है।

Thursday, October 28, 2010

मीडिया-संकट पर एक आउटलुक


अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक कई मानों में अपने किस्म की अनोखी है। विनोद मेहता ने पायनियर को नए ढंग का अखबार बनाकर पेश किया था। वह आर्थिक रूप से सफल नहीं हुआ। पर आउटलुक आर्थिक रूप से भी सफल साबित हुआ। बावजूद इसके कि मुकाबला इंडिया टुडे जैसी पत्रिका से था जो उसके बीस साल पहले से बाज़ार में थी। आउटलुक न तो समाचार-केन्द्रित है और न विचार-पत्रिका है। बेशक वह भी बिजनेस के लिए मैदान में है, पर उन गिनी-चुनी पत्रिकाओं में से एक है, जिसके शीर्ष पर एक पत्रकार है। उसकी यूएसपी है विचारोत्तेजक और पठनीय सामग्री। वह सामग्री जिसकी भारतीय मीडिया इन दिनों सायास उपेक्षा कर रहा है। आउटलुक के 15 साल पूरे होने पर जो विशेषांक निकला है, वह हालांकि हिन्दी या भारतीय भाषाओं के पत्रकारों की दृष्टि से अधूरा है, पर पढ़ने लायक है।
 
भारतीय मीडिया के चालू दौर को विकास और उत्साह का दौर भी कहा जा सकता है और संकट का भी। मीडिया के कारोबार और पाठक-दर्शक पर उसके असर को देखें तो निराश होने की वही वज़ह नहीं है जो पश्चिम में है। यही हैरत की बात है जिसकी ओर सुमीर लाल ने इस अंक में इशारा किया है। पश्चिम में मालिक, पत्रकार और पाठक तीनों गुणात्मक पत्रकारिता के हामी हैं, पर उसका आर्थिक आधार ढह रहा है। हमारे यहाँ आर्थिक आधार बन रहा है, पर गुणात्मक पत्रकारिता का जो भी ढाँचा था वह सायास ढहाया जा रहा है। 

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कंटेंट एंड फिल के जुम्ले को नोम चोम्स्की ने दोहराया है। इसमें कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है, बल्कि विज्ञापन है। और फिल है खबरें। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय इसे लोकर गम्भीरता नहीं है। अखबारों में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। इसमें भी दिक्कत नहीं थी। आखिर खबरें लाने वालों के वेतन का इंतज़ाम भी करना होता है। पर हमने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते। 

आउटलुक के इस अंक का शीर्षक है द ग्रेट इंडियन मीडिया क्राइसिस। क्राइसिस माने क्या? पेड न्यूज़ और टीआरपी दो बदनाम शब्द हैं, पर क्या संकट इतना ही है? मीडिया से लोकतांत्रिक समाज बनता है या लोकतांत्रिक समाज अपना विश्वसनीय मीडिया बनाता है? मैकलुहान के अनुसार पहला औद्योगिक कारोबार मीडिया का ही था। यानी विश्वसनीयता का व्यवसाय। एक अर्से तक यह कारोबार ठीक से चला, भले ही उसमें तमाम छिद्र थे। और फिर लोभ और लालच ने पनीली सी विश्वसनीयता को खत्म कर डाला। नोम चोम्स्की के अनुसार अमेरिकी लिबरल के माने हैं स्टेट के समर्थक। राज्य की शक्ति के, राज्य की हिंसा के और राज्य के अपराधों के। नोम चोम्स्की अमेरिकी राज्यशक्ति के आलोचक हैं। उनकी धारणा है कि जो काम तानाशाही हिंसक शक्ति के मार्फत करती है वही काम लिबरल व्यवस्था अपने मीडिया के मार्फत करता है। 

मीडिया के मालिक आखिरकार अमीर लोग होते हैं वैल कनेक्टेड। पब्लिक रिलेशंस उद्योग का लक्ष्य है लोगों की मान्यताओं और व्यवहार को नियंत्रित करना। क्या कोई समाज ऐसा है जो इससे मुक्त हो? आप रोज़-ब-रोज़ एक खास तरह की राय पढ़ते हैं, टीवी पर देखते हैं तो काफी बड़ी संख्या में लोगों की वही राय बनती जाती है। यह बात राजनीति पर भी लागू होती है और उपभोक्ता बाज़ार पर भी। चोम्स्की के पास भारतीय मीडिया की जानकारी काफी सीमित है, पर उनसे इस बात पर असहमति नहीं हो सकती कि भारतीय मीडिया काफी बंदिशों से भरा, संकीर्ण, स्थानीय, जानकारी के मामले में सीमित है और काफी चीजों की उपेक्षा करता है। 

आउटलुक के इस अंक में काफी अच्छे नाम हैं। पर सीधे भारतीय संदर्भों में प्रणंजय गुहा ठकुरता, दीपांकर गुप्ता और रॉबिन जेफ्री ही हैं। बल्कि वास्तविक भारतीय संदर्भों में ये तीनों महत्वपूर्ण हैं। या फिर महत्वपूर्ण हैं रवि धारीवाल जिन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के उज्जवल पक्ष को रखा है। वे कहते हैं हमारा अखबार सम्पादक के लिए नहीं जनता के लिए निकलता है। कॉमन मैन के लिए। पर टाइम्स इंडिया का यह कॉमनमैन क्या आरके लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसा है? धारीवाल के अनुसार टाइम्स के सम्पादक पार्टीबाज़ नहीं होते। वे जनता से संवाद करते हैं। कम से कम विचार या सिद्धांत में यह बात अच्छी है। सैद्धांतिक पत्रकारिता भी यही कहती है कि हमारा काम जनता के लिए होता है साधन सम्पन्नों या नेताओं के लिए नहीं। 

इस अंक में हैरल्ड इवांस और टिम सेबस्टियन के बेहतरीन लेख भी हैं, पर उनके संदर्भ गैर-भारतीय हैं। भारतीय संदर्भों में पत्रकारिता कुछ अलग है। न जाने क्यों उसके संरक्षक ही उसकी समस्या बन गए हैं। भारतीय व्यवस्था में ऊँच-नीच कुछ ज़्यादा ही है। सुमीर लाल ने कुछ सम्पादकों का ज़िक्र किया है जो ए-लिस्टर होने की वज़ह से ही सम्पादक बने।अंग्रेजी अखबारों की बात की जाय तो शायद सम्पादक बनने की अनिवार्य शर्त राज-व्यवस्था और पार्टी-सर्कल से जुड़े होना है। यह अयोग्यता नहीं। विनोद मेहता भी बेहतर सम्पर्कों वाले और प्रवर वर्ग के हैं। यह लक्ष्मण रेखा हमारे जातीय-समाज को दिखाती है। 

आउटलुक के इस अंक में कई बार लगता है कि शायद अखबार के पारिवारिक घरानों को परोक्ष रूप में पत्रकारीय मूल्यों का संरक्षक माना गया है। भारत में तो ज्यादातर अखबार पारिवारिक नियंत्रण में हैं। हो सकता है परिवार अपनी प्रतिष्ठा के लिए ग़म खाते हों, पर इधर तो मुनाफे के लिए सभी में रेस है। इसे गलत भी क्यों माना जाय, पर न्यूज़पेपर ओनरशिप के किसी वैकल्पिक मॉडल की चर्चा नहीं है। भारतीय भाषाओं का काम केवल रॉबिन जेफ्री के लेख से निपटा लिया गया है। मीडिया के तमाम दूसरे फलितार्थ भी इसमें हैं। इसमें संजॉय हज़ारिका, शशि थरूर, मार्क टली वगैरह ने अच्छी टिप्पणियाँ की हैं। आउटलुक के बारे में दो बातों का जिक्र और किया जाना चाहिए। एक तो यह उन विरल पत्रिकाओं में से है, जिनमें पाठकों के पत्रों पर इतनी मेहनत की जाती है। दूसरे इसमें पठनीय लेख छपते हैं भले ही वे काफी लम्बे हों। खासतौर से अरुंधति रॉय के लेख जिनसे लोग कितने ही असहमत हों, पर पढ़ना चाहते हैं। पत्रिका का यह अंक कारोबार के लिहाज़ से भी बेहतर है।    


Tuesday, July 27, 2010

मीडिया का काम नाटकबाज़ी नहीं


दिल्ली के हंसराज कॉलेज में एक अखबार का फोटोग्राफर पहुँचा। उसने कॉलेज के पुराने छात्रों को जमा किया। फिर उनसे कहा, नए छात्रों की रैगिंग करो। फोटोग्राफी शुरू हो गई। इस बात की जानकारी कॉलेज प्रशासन के पास पहुँची। उन्होंने पुलिस बुला ली। फोटोग्राफी रोकी गई और कैमरा से खींचे गए फोटो डिलीट किए गए। यह जानकारी मीडिया वैबसाइट हूट ने छात्रों के हवाले से दी है। इस जानकारी पर हमें आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि ऐसा होता रहता है।

हाल में बिहार असेम्बली में टकराव हुआ। मीडिया की मौजूदगी में वह सब और ज्यादा हुआ, जो नहीं होना चाहिए। एक महिला विधायक के उत्साह को देखकर लगा कि इस जोश का इस्तेमाल बिहार की समस्याओं के समाधान में लगता तो कितना बड़ा बदलाव सम्भव था। वह उत्साह विधायक का था, पर मीडिया में कुछ खास दृश्यों को जिस तरह बारम्बार दिखाया गया, उससे लगा कि मीडिया के पास भी कुछ है नहीं। उसकी दृष्टि में ऐसा रोज़-रोज़ होता रहे तो बेहतर।

पिछले हफ्ते एक चैनल पर रांची के सज्जन के बारे में खबर आ रही थी, जो आठवीं शादी रचाने जा रहे थे। उन्हें कुछ महिलाओं ने पकड़ लिया। महिलाओं के हाथों उनकी मरम्मत के दृश्य मीडिया के लिए सौगात थे। किसी की पिटाई, रगड़ाई, धुलाई और अपमान हमारे यहाँ चटखारे लेकर देखा जाता है। मीडिया को देखकर व्यक्ति जोश में आ जाता है और आपा भूलकर सब पर छा जाने की कोशिश में लग जाता है। मीडिया के लोग भी उन्हें प्रेरित करते हैं।

कुछ साल बिहार में एक व्यक्ति ने आत्मदाह कर लिया। उस वक्त कहा गया कि उसे पत्रकारों ने प्रेरित किया था। ऐसा ही पंजाब में भी हुआ। अक्सर खबरें बनाने के लिए पत्रकार कुछ नाटक करते हैं, जबकि उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सच को सामने लाएंगे। पर होता कुछ और है। मीडिया को देखते ही आंदोलनकारी, बंद के दौरान आगज़नी करते या बाढ़-पीड़ितों की मदद करने गए लोग अपने काम को दूने वेग से करने लगते हैं। पूड़ी के एक पैकेट की जगह चार-चार थमाने लगते हैं। अब तो चलन ही यही है कि आंदोलन बाद में शुरू होता है, पहले मीडिया का इंतज़ाम होता है। सारा आंदोलन पाँच-दस मिनट के मीडिया सेशन में निबट जाता है।

सीबीएसई परीक्षा परिणाम देखने गई लड़कियों के एक ही झुंड, बल्कि अक्सर एक ही लड़की की तस्वीर सभी अखबारों में छपती है। इसे फाइव सेकंड्स फेम यानी पाँच सेकंड की प्रसिद्धि कहते हैं। इसमें ऑब्जेक्टिविटी वगैरह धरी की धरी रह जाती है। आमतौर पर सभी समाचार चैनल समाचार के साथ-साथ सामयिक संदर्भों पर बहस चलाते हैं। इस बहस को चलाने वाले एंकरों का ज़ोर इस बात पर नहीं होता कि तत्व की बात सामने लाई जाय, बल्कि इस बात पर होता है कि उनके बीच संग्राम हो। पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है यह तो हर पत्रकार अपने तईं तय कर सकता है। पर इतना सार्वभौमिक रूप से माना जाता है कि हम संदेशवाहक हैं। जैसा हो रहा है, उसकी जानकारी देने वाले। हम इसमें पार्टी नहीं हैं और हमें कोशिश करनी चाहिए कि बातों को तोड़े-मरोड़े बगैर तटस्थता के साथ रखें। 

पुराने वक्त में पत्रकारिता प्रशिक्षण विद्यालय नहीं होते थे। ज्यादातर लोग काम पर आने के बाद चीजों को सीखते थे। रोज़मर्रा बातों से धीरे-धीरे अपने नैतिक दायित्व समझ में आते थे। अब तो पत्रकार मीडिया स्कूलों से आते हैं। उन्हें तो पत्रकारीय आदर्श पढाए जाते हैं। लगता है जल्दबाज़ी में मीडिया अपने कानूनी, सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्वों का ध्यान नहीं रखता। जब रैगिंग होती है तो ज़मीन-आसमान एक कर देता है और जब नहीं होती तब रैगिंग करने वालों के पास जाता है कि भाई ठंडे क्यो पड़ गए। उसके पास नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर शायद कोई आचरण संहिता नहीं है। या यों कहें कि किसी किस्म की आचरण संहिता नहीं है।

आचरण संहिता व्यापक अवधारणा है। अक्सर सरकारें आचरण संहिता के नाम पर मीडिया की आज़ादी पर बंदिशें लगाने की कोशिश करती हैं, इसलिए हम मानते हैं कि मीडिया को अपने लिए खुद ही आचरण संहिता बनानी चाहिए। सामूहिक रूप से देश भर के पत्रकारों ने अपने लिए कोई आचार संहिता नहीं बनाई है। कुछ अखबार अपने कर्मचारियों के लिए गाइड बुक्स बनाते हैं, पर वे भी स्टाइल बुक जैसी हैं। हाल में गठित न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने कुछ मोटे दिशा-निर्देश तैयार किए हैं, जो उसकी वैबसाइट पर उपलब्ध हैं। इनकी तुलना में बीबीसी की गाइड लाइन्स को देखें जो काफी विषद हैं। हमारे देश में किसी मीडिया हाउस ने ऐसी व्यवस्था की हो तो इसका मुझे पता नहीं है। अलबत्ता हिन्दू एक ऐसा अखबार है, जिसने एक रीडर्स एडीटर की नियुक्ति की है जो नियमित रूप से अखबार की गलतियों या दूसरी ध्यान देने लायक बातों को प्रकाशित करता है। हाल में हिन्दू के रीडर्स एडीटर एस विश्वनाथन ने अपने पाठकों को जानकारी दी कि 1984 में हिन्दू ने भोपाल त्रासदी को किस तरह कवर किया। अखबार में पाठक के दृष्टिकोण को उभारना भी बाज़ार-व्यवस्था है। राजेन्द्र माथुर जब नवभारत टाइम्स में सम्पादक थे, तब टीएन चतुर्वेदी ओम्बड्समैन बनाए गए थे। पता नहीं आज ऐसा कोई पद वहाँ है या नहीं।

जैसे-जैसे हमारे समाज के अंतर्विरोध खुलते जा रहे हैं, वैसे-वैसे मीडिया की ज़रूरत बढ़ रही है। यह ज़रूरत तात्कालिक खबरें या सूचना देने भर के लिए नहीं है। यह ज़रूरत समूची व्यवस्था से नागरिक को जोड़ने की है। समूचा मीडिया एक जैसा नहीं हो सकता। कुछ की नीतियाँ समाजवादी होंगी, कुछ की दक्षिणपंथी। कांग्रेस समर्थक होंगे, भाजपाई भी। जो भी हो साफ हो। चेहरे पर ऑब्जेक्टिव होने का सर्टिफिकेट लगा हो और काम में छिछोरापन हो तो पाठक निराश होता है।
हम आमतौर पर सारी बातों के लिए बाज़ार-व्यवस्था को दोषी मानते हैं। बाज़ार व्यवस्था का दोष है भी तो इतना कि वह अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं जानती। पाठक-श्रोता या दर्शक ही तो हमारा बाज़ार है। वह हमें खारिज कर दे तो हम कहाँ जाएंगे। हम अपने पाठक को भूलते जा रहे हैं। नैतिक रूप से हमारी जिम्मेदारी उसके प्रति है और व्यावसायिक रूप से अपने मालिक के प्रति। इधर स्वार्थी तत्व मीडिया पर हावी हैं। ऐसा हमारी कमज़ोर राजनैतिक व्यवस्था के कारण है।

सनसनी, अफवाहबाज़ी और घटियापन को पसंद करने वाला पाठक-वर्ग भी है। उसे शिक्षित करने वाली समाज-व्यवस्था को पुष्ट करने का काम जागरूक मीडिया कर सकता है। हम क्या जागरूक और जिम्मेदार बनना नहीं चाहेंगे? सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था और मीडिया के रिश्तों पर पड़ताल की ज़रूरत आज नहीं तो कल पैदा होगी। कहते हैं चीनी समाज कभी अफीम के नशे में रहता था। आज नहीं है। हमारा नशा भी टूटेगा।