अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक कई मानों में अपने किस्म की अनोखी है। विनोद मेहता ने पायनियर को नए ढंग का अखबार बनाकर पेश किया था। वह आर्थिक रूप से सफल नहीं हुआ। पर आउटलुक आर्थिक रूप से भी सफल साबित हुआ। बावजूद इसके कि मुकाबला इंडिया टुडे जैसी पत्रिका से था जो उसके बीस साल पहले से बाज़ार में थी। आउटलुक न तो समाचार-केन्द्रित है और न विचार-पत्रिका है। बेशक वह भी बिजनेस के लिए मैदान में है, पर उन गिनी-चुनी पत्रिकाओं में से एक है, जिसके शीर्ष पर एक पत्रकार है। उसकी यूएसपी है विचारोत्तेजक और पठनीय सामग्री। वह सामग्री जिसकी भारतीय मीडिया इन दिनों सायास उपेक्षा कर रहा है। आउटलुक के 15 साल पूरे होने पर जो विशेषांक निकला है, वह हालांकि हिन्दी या भारतीय भाषाओं के पत्रकारों की दृष्टि से अधूरा है, पर पढ़ने लायक है।
भारतीय मीडिया के चालू दौर को विकास और उत्साह का दौर भी कहा जा सकता है और संकट का भी। मीडिया के कारोबार और पाठक-दर्शक पर उसके असर को देखें तो निराश होने की वही वज़ह नहीं है जो पश्चिम में है। यही हैरत की बात है जिसकी ओर सुमीर लाल ने इस अंक में इशारा किया है। पश्चिम में मालिक, पत्रकार और पाठक तीनों गुणात्मक पत्रकारिता के हामी हैं, पर उसका आर्थिक आधार ढह रहा है। हमारे यहाँ आर्थिक आधार बन रहा है, पर गुणात्मक पत्रकारिता का जो भी ढाँचा था वह सायास ढहाया जा रहा है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कंटेंट एंड फिल के जुम्ले को नोम चोम्स्की ने दोहराया है। इसमें कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है, बल्कि विज्ञापन है। और फिल है खबरें। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय इसे लोकर गम्भीरता नहीं है। अखबारों में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। इसमें भी दिक्कत नहीं थी। आखिर खबरें लाने वालों के वेतन का इंतज़ाम भी करना होता है। पर हमने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते।
आउटलुक के इस अंक का शीर्षक है द ग्रेट इंडियन मीडिया क्राइसिस। क्राइसिस माने क्या? पेड न्यूज़ और टीआरपी दो बदनाम शब्द हैं, पर क्या संकट इतना ही है? मीडिया से लोकतांत्रिक समाज बनता है या लोकतांत्रिक समाज अपना विश्वसनीय मीडिया बनाता है? मैकलुहान के अनुसार पहला औद्योगिक कारोबार मीडिया का ही था। यानी विश्वसनीयता का व्यवसाय। एक अर्से तक यह कारोबार ठीक से चला, भले ही उसमें तमाम छिद्र थे। और फिर लोभ और लालच ने पनीली सी विश्वसनीयता को खत्म कर डाला। नोम चोम्स्की के अनुसार अमेरिकी लिबरल के माने हैं स्टेट के समर्थक। राज्य की शक्ति के, राज्य की हिंसा के और राज्य के अपराधों के। नोम चोम्स्की अमेरिकी राज्यशक्ति के आलोचक हैं। उनकी धारणा है कि जो काम तानाशाही हिंसक शक्ति के मार्फत करती है वही काम लिबरल व्यवस्था अपने मीडिया के मार्फत करता है।
मीडिया के मालिक आखिरकार अमीर लोग होते हैं वैल कनेक्टेड। पब्लिक रिलेशंस उद्योग का लक्ष्य है लोगों की मान्यताओं और व्यवहार को नियंत्रित करना। क्या कोई समाज ऐसा है जो इससे मुक्त हो? आप रोज़-ब-रोज़ एक खास तरह की राय पढ़ते हैं, टीवी पर देखते हैं तो काफी बड़ी संख्या में लोगों की वही राय बनती जाती है। यह बात राजनीति पर भी लागू होती है और उपभोक्ता बाज़ार पर भी। चोम्स्की के पास भारतीय मीडिया की जानकारी काफी सीमित है, पर उनसे इस बात पर असहमति नहीं हो सकती कि भारतीय मीडिया काफी बंदिशों से भरा, संकीर्ण, स्थानीय, जानकारी के मामले में सीमित है और काफी चीजों की उपेक्षा करता है।
आउटलुक के इस अंक में काफी अच्छे नाम हैं। पर सीधे भारतीय संदर्भों में प्रणंजय गुहा ठकुरता, दीपांकर गुप्ता और रॉबिन जेफ्री ही हैं। बल्कि वास्तविक भारतीय संदर्भों में ये तीनों महत्वपूर्ण हैं। या फिर महत्वपूर्ण हैं रवि धारीवाल जिन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के उज्जवल पक्ष को रखा है। वे कहते हैं हमारा अखबार सम्पादक के लिए नहीं जनता के लिए निकलता है। कॉमन मैन के लिए। पर टाइम्स इंडिया का यह कॉमनमैन क्या आरके लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसा है? धारीवाल के अनुसार टाइम्स के सम्पादक पार्टीबाज़ नहीं होते। वे जनता से संवाद करते हैं। कम से कम विचार या सिद्धांत में यह बात अच्छी है। सैद्धांतिक पत्रकारिता भी यही कहती है कि हमारा काम जनता के लिए होता है साधन सम्पन्नों या नेताओं के लिए नहीं।
इस अंक में हैरल्ड इवांस और टिम सेबस्टियन के बेहतरीन लेख भी हैं, पर उनके संदर्भ गैर-भारतीय हैं। भारतीय संदर्भों में पत्रकारिता कुछ अलग है। न जाने क्यों उसके संरक्षक ही उसकी समस्या बन गए हैं। भारतीय व्यवस्था में ऊँच-नीच कुछ ज़्यादा ही है। सुमीर लाल ने कुछ सम्पादकों का ज़िक्र किया है जो ए-लिस्टर होने की वज़ह से ही सम्पादक बने।अंग्रेजी अखबारों की बात की जाय तो शायद सम्पादक बनने की अनिवार्य शर्त राज-व्यवस्था और पार्टी-सर्कल से जुड़े होना है। यह अयोग्यता नहीं। विनोद मेहता भी बेहतर सम्पर्कों वाले और प्रवर वर्ग के हैं। यह लक्ष्मण रेखा हमारे जातीय-समाज को दिखाती है।
आउटलुक के इस अंक में कई बार लगता है कि शायद अखबार के पारिवारिक घरानों को परोक्ष रूप में पत्रकारीय मूल्यों का संरक्षक माना गया है। भारत में तो ज्यादातर अखबार पारिवारिक नियंत्रण में हैं। हो सकता है परिवार अपनी प्रतिष्ठा के लिए ग़म खाते हों, पर इधर तो मुनाफे के लिए सभी में रेस है। इसे गलत भी क्यों माना जाय, पर न्यूज़पेपर ओनरशिप के किसी वैकल्पिक मॉडल की चर्चा नहीं है। भारतीय भाषाओं का काम केवल रॉबिन जेफ्री के लेख से निपटा लिया गया है। मीडिया के तमाम दूसरे फलितार्थ भी इसमें हैं। इसमें संजॉय हज़ारिका, शशि थरूर, मार्क टली वगैरह ने अच्छी टिप्पणियाँ की हैं। आउटलुक के बारे में दो बातों का जिक्र और किया जाना चाहिए। एक तो यह उन विरल पत्रिकाओं में से है, जिनमें पाठकों के पत्रों पर इतनी मेहनत की जाती है। दूसरे इसमें पठनीय लेख छपते हैं भले ही वे काफी लम्बे हों। खासतौर से अरुंधति रॉय के लेख जिनसे लोग कितने ही असहमत हों, पर पढ़ना चाहते हैं। पत्रिका का यह अंक कारोबार के लिहाज़ से भी बेहतर है।