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Monday, November 9, 2020

इक्कीसवीं सदी की कट्टर हवाएं

फ्रांस में केवल हाल की घटनाओं पर ध्यान देने के बजाय पिछले आठ साल के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो साफ नज़र आता है कि दुनिया एक ऐसे टकराव की ओर बढ़ रही है, जिसकी उम्मीद कम से कम इक्कीसवीं सदी से नहीं की जा रही थी। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के शुरूआती बयानों और तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद की प्रतिक्रियाओं ने आग में घी का काम किया है। जरूरत इस बात की है कि इसे भड़कने से रोका जाए।

दो बातों पर विचार करने की जरूरत है। एक, धार्मिक आस्था पर हमले करते समय क्या कोई मर्यादा रेखा नहीं चाहिए? दूसरे यह कि क्या धार्मिक आस्था पर हुए सायास हमले का जवाब निर्दोष लोगों की हत्या से दिया जाना चाहिए? हिंसक कार्रवाई का समर्थन किसी रूप में नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति मैक्रों ने शुरूआती कठोर रुख अपनाने के बाद अल जज़ीरा के साथ बातचीत में अपेक्षाकृत सावधानी के साथ अपनी बात रखी है। उनका कहना है कि मैं दुनिया के मुसलमानों की भावनाओं की कद्र करता हूँ। पर आपको समझना होगा कि मेरी दो भूमिकाएं हैं। पहली है हालात को शांत करने की और दूसरी लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने की।

धार्मिक आवेश

गले काटने की घटनाओं पर दुनियाभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो ने पुराने कार्टूनों को फिर से छापने का फैसला किया, जिसके कारण यह विरोध और उग्र हुआ है। फ्रांस में ईशनिंदा अपराध नहीं माना जाता। वहाँ इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में रखा जाता है। इस वजह से पिछले आठ साल से फ्रांस में आए दिन हिंसक घटनाएं हो रही हैं। इनमें 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। फ्रांस में करीब 85 लाख मुसलमान रहते हैं, जो यूरोप में इस समुदाय की सबसे बड़ी आबादी है।

Monday, January 12, 2015

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावना की रक्षा?

शार्ली एब्दो हत्याकांड के विरोध में रविवार को पेरिस में जबर्दस्त रैली हुई। पूरा यूरोप इस घटना के बाद उठ खड़ा हुआ है, पर इस घटना ने एक नई बहस को जन्म भी दिया है। आतंकवाद पर चर्चा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर केंद्रित हो गई है। दुनियाभर के अखबार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर विचार-विमर्श में लगे हैं। भारत में यह सवाल उठ रहा है कि शार्ली एब्दो जैसी स्वतंत्रता क्या हम अपने कार्टूनिस्टों को दे सकते हैं? मकबूल फिदा हुसेन को निर्वसन में रहने को किसने मजबूर किया? संयोग से शार्ली एब्दो के एक कार्टूनिस्ट जॉर्जेस वोलिंस्की यहूदी थे। इसरायली अखबार 'हारेट्ज़' में प्रकाशित लेख में वहाँ के कलाकार इदो अमीन ने लिखा है कि शार्ली एब्दो का प्रकाशन इसरायल में सम्भव नहीं था, क्योंकि वहाँ के कानून धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के खिलाफ हैं। अमीन ने लिखा है,
Georges Wolinski, the leading caricaturist at Charlie Hebdo, was among those murdered in the terror attacks in Paris last week. He was one of my cultural heroes when I was starting out.
Neither Superman, Charlie Brown, Asterix nor "The Adventures of Tintin" spoke to me the way Wolinski’s black-and-white sketches did — with his distorted, exaggerated figures openly revealing their dark urges. This half-Polish, half-Tunisian Jew possessed an anarchist spirit that left no sacred cow standing.
Every community was insulted by his brush. His position toward readers was this: Does it bother you? So don’t read it! And if you want to ridicule me back, I won’t sue you.”
After the terrible massacre at Charlie Hebdo and the murders that followed at the Jewish market, concerned people have spoken out over the fate of France’s Jews. Don’t they see the time has come to move to Israel, as Prime Minister Benjamin Netanyahu told them after the murder at the Toulouse school?
And the sooner the better! But if Wolinski had moved to Israel and opened a Charlie weekly here, he would have had a problem.In France, freedom of speech is considered a universal right, while in Israel such a weekly would not be able to exist because of the Israeli law that bans “offending religious sensibilities.” During my years as a cartoonist I have had to become familiar with the laws restricting the Israeli press.
पूरा लेख यहाँ पढ़ें 

इस सिलसिले में कुछ और लेख पठनीय हैं।

पाकिस्तानी अखबार एक्प्रेस ट्रिब्यून में आकार पटेल का लेख Should the right to speech be absolute?

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नायनन का लेख A right to offend


जनसत्ता में प्रकाशित

इस सिलसिले में मनीषा सेठी की एक किताब काफ्कालैंड इन दिनों आई है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में नहीं है, पर वह आतंकवाद का पड़ताल से जुड़ी है। मनीषा सेठी से बीबीसी हिन्दी रेडियो की बातचीत को सुनना रोचक होगा। यहाँ सुने उनसे बातचीत

Sunday, January 11, 2015

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं

पेरिस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के माने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है। भारत में हाल के वर्षों में असीम त्रिवेदी के मामले में और फिर उसके बाद आम्बेडकर के कार्टून को लेकर यह सवाल उठा था। कुछ लोगों की मान्यता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती। उसकी सीमा होनी चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या यह सीमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही लागू होती है? क्या धार्मिक या आस्था की स्वतंत्रता की सीमा भी नहीं होनी चाहिए? हाल में सिडनी के एक कैफे और पाकिस्तान के पेशावर में बच्चों की हत्या से जुड़े सवाल भी हमें इसी दिशा में लाते हैं? सवाल है कितनी आजादी? और किसकी आज़ादी?