Thursday, March 31, 2016

संसदीय गतिरोध भी साकारात्मक हो सकता है

'बहस इतनी लंबी खींचो, कोई फ़ैसला ही न हो'

  • 28 मार्च 2016
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संसदीय राजनीति में जब कोई विचार, अवधारणा या गतिविधि असाधारण गति पकड़ ले तो उसे धीमी करने के लिए क्या करें? या किसी पक्ष का बहुमत प्रबल हो जाए तो अल्पमत की रक्षा कैसे की जाए?
दुनियाभर की संसदीय परंपराओं ने ‘फिलिबस्टरिंग’ की अवधारणा विकसित की है. इसे सकारात्मक गतिरोध कह सकते हैं. बहस को इतना लम्बा खींचा जाए कि उस पर कोई फ़ैसला ही न हो सके, या प्रतिरोध ज़ोरदार ढंग से दर्ज हो वगैरह.
संयोग से ये सवाल पिछले कुछ समय से भारतीय संसद में जन्मे गतिरोध के संदर्भ में भी उठ रहे हैं. इसका एक रोचक विवरण दक्षिण कोरिया की संसद में देखने को मिलता है, जो भारत के लिए भी प्रासंगिक है.
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दक्षिण कोरिया की संसद में उत्तर कोरिया की आक्रामक गतिविधियों को देखते हुए आतंक विरोधी विधेयक पेश किया गया. इस विधेयक पर 192 घंटे लम्बी बहस चली. नौ दिनों तक लगातार दिन-रात...
विपक्षी सांसदों का कहना था कि यह विधेयक यदि पास हुआ तो नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता ख़तरे में पड़ जाएगी. इस बिल के ख़िलाफ़ 38 सांसदों ने औसतन पाँच-पाँच घंटे लम्बे वक्तव्य दिए. सबसे लम्बा भाषण साढ़े बारह घंटे का था, बग़ैर रुके.
इतने लंबे भाषण का उद्देश्य केवल यह था कि सरकार इस प्रतिरोध को स्वीकार करके अपने हाथ खींच ले. सरकारी विधेयक फिर भी पास हुआ. अलबत्ता एक रिकॉर्ड क़ायम हुआ. साथ ही विधेयक के नकारात्मक पहलुओं को लेकर जन-चेतना पैदा हुई.
‘फिलिबस्टरिंग’ संसदीय अवधारणा है. पर यह नकारात्मक नहीं सकारात्मक विचार है. तमाम प्रौढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में फिलिबस्टरिंग की मदद ली जाती है.

Sunday, March 27, 2016

अंतर्विरोधों से घिरी है जनता-कांग्रेस एकता

बारह घोड़ों वाली गाड़ी

चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज में निरंतर चलने वाला सागर-मंथन पैदा कर दिया है। पाँच साल में एक बार होने वाले आम चुनाव की अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। हर साल किसी न किसी राज्य की विधानसभा का चुनाव होता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हस्तक्षेप बढ़ा है। गठबंधन बनते हैं, टूटते हैं और फिर बनते हैं। यह सब वैचारिक आधार पर न होकर व्यक्तिगत हितों और फौरी लक्ष्यों से निर्धारित होता है। किसी के पास दीर्घकालीन राजनीति का नक्शा नजर नहीं आता।
अगले महीने हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले चारों राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधनों की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है। बंगाल में वामदलों के साथ कांग्रेस खड़ी है, पर तमिलनाडु और केरल में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। यह नूरा-कुश्ती कितनी देर चलेगी? नूरा-कुश्ती हो या नीतीश का ब्रह्मास्त्र राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एक विरोधी कोर ग्रुप जरूर तैयार हो गया है। इसमें कांग्रेस, वामदलों और जनता परिवार के कुछ टूटे धड़ों की भूमिका है। पर इस कोर ग्रुप के पास उत्तर प्रदेश का तिलिस्म तोड़क-मंत्र नहीं है।
ताजा खबर यह है कि जनता परिवार को एकजुट करने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद जदयू, राष्ट्रीय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी (रा) बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में विलय की संभावनाएं फिर से टटोल रहे हैं। नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, रालोद प्रमुख अजित सिंह, उनके पुत्र जयंत चौधरी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की 15 मार्च को नई दिल्ली में इस सिलसिले में हुई बैठक में बिहार के महागठबंधन का प्रयोग दोहराने पर विचार किया गया।

Friday, March 25, 2016

'ओके' शब्द का जन्मदिन

अंग्रेजी का ‘ओके’ अब हिन्दी का ओके भी बन गया है। अक्सर लोग पूछते हैं कि इस शब्द का प्रारंभ किसने, कब और कहां किया?  

ओके बोलचाल की अंग्रेज़ी का शब्द है। इसका अर्थ है स्वीकृत, पर्याप्त, ठीक, सही, उचित वगैरह। इसे संज्ञा और क्रिया दोनों रूपों में इस्तेमाल किया जाता है। इंजीनियर ने कार को ओके कर दिया। सेल्स मैनेजर ने इस कीमत को ओके किया है। अमेरिकन स्लैंग में ऑल करेक्ट माने ओके। इस शब्द की शुरूआत को लेकर कई तरह की कहानियाँ हैं। एक कहानी यह है कि उन्नीसवीं सदी में अमेरिका के एक राष्ट्रपति पद के एक उम्मीदवार के गाँव का नाम था ओल्ड किंडरहुक। उनके समर्थकों ने उसी नाम के प्रारंभ के अक्षरों को लेकर एक ओके ग्रुप बनाया और इसी शब्द का प्रचार किया। इसी तरह अमेरिकन रेलवे के शुरू के समय में एक पोस्टल क्लर्क की कहानी सुनाई पड़ी है जिसका नाम ओबेडिया कैली था। कैली साहब हर पार्सल पर निशानी के लिए अपने नाम के दो अक्षर ओके लिख देते थे। इससे यह शब्द प्रसिद्ध हो गया। यह भी कहा जाता है कि ओके किसी रेड इंडियन भाषा से आया है। अमेरिका में रेड इंडियन भाषा के बहुत से शब्द प्रयोग किए जाते हैं। अमेरिकी राज्यों में से आधे नाम रेड इंडियन हैं। मसलन ओकलाहामा, डकोटा, उडाहो, विस्किनसन, उहायो, टेनेसी। कहा जाता है कि एक रेड इंडियन कबीले का सरदार एक दिन अपने साथियों से बात कर रहा था। हर बात पर वह ‘ओके, ओके’ कहता जाता था जिस का अर्थ था ‘हां ठीक है।’ किसी अमेरिकी पर्यटक ने इसे सुना और फिर अपने साथियों में इस शब्द को प्रचलित किया। इतना जरूर लगता है कि यह शब्द अमेरिका से आया है इंग्लैंड से नहीं। 
इधर 23 मार्च 2016 को अमेरिका की टाइम पत्रिका की वैबसाइट ने पुराने संदर्भ खँगालते हुए एक रोचक जानकारी दी है कि इस शब्द का पहला प्रयोग एक अखबार बोस्टन मॉर्निंग पोस्ट ने किया था। इसमें लिखा गया है:-

Here's how a newspaper rivalry inspired one of the most common words in English

The word ‘ok’ first appeared in print 177 years ago on Wednesday, as a jab thrown in a rivalry between Boston and Providence newspapers.
The use of the two letters (or the fully-spelled version, ‘okay’) has spread around the world to indicate varying states of positivity. But the Boston Morning Post writer of a short item firing back at some snark from theProvidence Journal likely had little knowledge that the joke would resonate through the ages.
Here’s first appearance of the word ‘ok’ took place on March 23, 1839, asAtlas Obscura writes today:
“We said not a word about our deputation passing “through the city” of Providence.—We said our brethren were going to New York in the Richmond, and they did go, as per Post of Thursday. The “Chairman of the Committee on Charity Lecture Bells,” is one of the deputation, and perhaps if he should return to Boston, via Providence, he of the Journal, and his train-band, would have his “contribution box,” et ceteras, o.k.—all correct—and cause the corks to fly, likesparks, upward.”
While the word may have survived the test of time, the humor has not. The joke, at the expense of the Providence Journal, is that ‘o.k.’ does not stand for ‘all correct’, but for a misspelled, phonetic version of the phrase.
And just as ‘ok’ is still popular today, so is the environment that gave birth to the Post‘s joke: an “abbreviation craze.”



टाइम पत्रिका की वैबसाइट में यह आलेख भी पढ़ें
और यहाँ भी 
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Wednesday, March 23, 2016

Backgrounder of Islamic State



Introduction
The self-proclaimed Islamic State is a militant movement that has conquered territory in western Iraq and eastern Syria, where it has made a bid to establish a state in territories that encompass some six and a half million residents. Though spawned by al-Qaeda’s Iraq franchise, it split with Osama bin Laden’s organization and evolved to not just employ terrorist and insurgent tactics, but the more conventional ones of an organized militia.

In June 2014, after seizing territories in Iraq’s Sunni heartland, including the cities of Mosul and Tikrit, the Islamic State proclaimed itself a caliphate, claiming exclusive political and theological authority over the world’s Muslims. Its state-building project, however, has been characterized more by extreme violence, justified by references to the Prophet Mohammed’s early followers, than institution building. Widely publicized battlefield successes have attracted thousands of foreign recruits, a particular concern of Western intelligence.

भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ?'

ताकि सनद रहे : भगतसिंह (1931)
                       

यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर की उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।

एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?

Sunday, March 20, 2016

पंजाब में पानी की खतरनाक राजनीति

सतलुज-यमुना लिंक नहर के विवाद में पानी सिर के ऊपर जाए इससे पहले ही केंद्र सरकार को अब अपनी भूमिका निभानी चाहिए। पंजाब विधानसभा ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना करते हुए यह कहते हुए नहर के निर्माण के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है कि उसके पास हरियाणा को देने के लिए पानी नहीं है। पंजाब विधानसभा के चुनाव करीब होने के कारण इसे पंजाब का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है, पर यह बात राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है और इसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे।

पंजाब के तकरीबन सभी राजनीतिक दल इस मामले को चुनाव के नजरिए से देख रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल ने कांग्रेस से यह मुद्दा छीन लिया है। अकाली दल विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कराने में कामयाब हुआ है। उसका सहयोगी दल होने के नाते भारतीय जनता पार्टी ने भी उसका साथ दिया है। पर हरियाणा में भी उसकी सरकार है। उधर आम आदमी पार्टी भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जल्दबाजी में इस विवाद का रुख हरियाणा-दिल्ली के विवाद के रूप में मोड़ दिया था। अलबत्ता उन्होंने फौरन ही अपने रुख को बदला।

Friday, March 18, 2016

'माँ' का रूपक भाजपाई क्यों है?

बीबीसी हिंदी के पत्रकार जुबैर अहमद ने लिखा है, ‘बचपन में मेरे एक दूर के मामा ने मेरे गाल पर ज़ोरदार तमाचा लगाया, क्योंकि मैं अपने कमरे में अकेले 'जन गण मन अधिनायक जय हे' गा रहा था। तमाचा लगाते समय वो डांट कर बोले, "अबे, हिंदू हो गया है क्या?" मेरे मामा कोई मुल्ला नहीं थे लेकिन उनकी सोच मुल्लों वाली थी। असदुद्दीन ओवेसी की बातों से मुझे अपने दूर के मामा की याद आ जाती है। भारत माता की जय कहने से इनकार करना उनका अधिकार ज़रूर है लेकिन केवल इसीलिए इसका विरोध करना कि मोहन भागवत ने इसकी सलाह दी है, सही नहीं है।’ 

दूसरी ओर यह भी सही है कि देश के गैर-हिन्दुओं पर यह बात जबरन लादी नहीं जा सकती। देखना यह भी होगा कि हमारी भारतमाता देश को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहती है या धार्मिक राज्य बनाने का संदेश देती है। साथ ही यह भी कि क्या हमारे राष्ट्र-राज्य को हिन्दू प्रतीकों और मुहावरों से मुक्त किया जा सकता है? 

Tuesday, March 15, 2016

सवाल विज्ञान-मुखी बनने का है

विजय माल्या के पलायन, देश-द्रोह और भक्ति से घिरे मीडिया की कवरेज में विज्ञान और तकनीक आज भी काफी पीछे हैं. जबकि इसे विज्ञान और तकनीक का दौर माना जाता है. इसकी वजह हमारी अतिशय भावुकता और अधूरी जानकारी है. विज्ञान और तकनीक रहस्य का पिटारा है, जिसे दूर से देखते हैं तो लगता है कि हमारे जैसे गरीब देश के लिए ये बातें विलासिता से भरी हैं. नवम्बर 2013 में जब हमारा मंगलयान अपनी यात्रा पर रवाना हुआ था तब कई तरह के सवाल किए गए थे. उस साल के आम बजट से आँकड़े निकालकर सवाल किया गया था कि माध्यमिक शिक्षा के लिए पूरा खर्च 3,983 करोड़ रुपए और अकेले मंगलयान पर 450 करोड़ रुपए क्यों? इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते थे. 

Sunday, March 13, 2016

‘रेरा’ के दाँत पैने करने होंगे

रियल एस्टेट विधेयक इस हफ्ते गुरुवार को राज्यसभा में पारित हो गया। विधेयक में रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण (रेरा) के गठन की व्यवस्था है। सरकार ने इस विधेयक के पारित होने से पहले राज्यसभा की प्रवर समिति द्वारा सुझाए गए 20 संशोधनों को स्वीकार किया। विधेयक को अब लोकसभा में पेश किया जाएगा। पूरी तरह कानून बन जाने के बाद यह कानून मकान खरीदने वालों का मददगार साबित होगा। अलबत्ता इस दिशा में हमें और ज्यादा विचार करने की जरूरत है। खासतौर से ‘रेरा’ के दाँत पैने करने होंगे। 

‘भूमि’ चूंकि राज्य विषय है, इसलिए इस सिलसिले में राज्यों के कानून लागू होते हैं। इस बिल का दायरा खरीदार और प्रमोटर के बीच समझौते और सम्पत्ति के हस्तांतरण तक सीमित है। ये दोनों मामले समवर्ती सूची में आते हैं। इसके वास्तविक प्रभाव को देखने के लिए केंद्रीय कानून को राज्यों के अपार्टमेंट एक्ट के साथ मिलाकर देखना होगा। यह कानून भविष्य के निर्माणों पर लागू होने वाला है। जरूरत इस बात की भी है कि जो योजनाएं पूरी हो चुकी हैं और जिन्हें लेकर ग्राहकों को शिकायतें है उनके बारे में भी कोई व्यवस्था हो।

Thursday, March 10, 2016

सवाल माल्या का ही नहीं, बीमार बैंकों का भी है

विडंबना है कि जब देश के 17 सरकारी बैंकों के कंसोर्शियम ने सुप्रीम कोर्ट में रंगीले उद्योगपति विजय माल्‍या के देश छोड़ने पर रोक लगाने की मांग की तब तक माल्या देश छोड़कर बाहर जा चुके थे. अब सवाल इन बैंकों से किया जाना चाहिए कि उन्होंने क्या सोचकर माल्या को कर्जा दिया था? हाल में देश के 29 बैंकों से जुड़े कुछ तथ्य सामने आए तो हैरत हुई कि यह देश चल किस तरह से रहा है. विजय माल्या पर जो रकम बकाया थी, उसकी वसूली शायद अब कभी नहीं हो सकेगी. कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण ने जिस राशि को रोका है वह ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है. अफसोस इस बात का है कि व्यवस्था बहुत देर से जागी है. अपराधी आसानी से निकल कर भाग गया. साबित यह हुआ कि बीमार माल्या नहीं हमारे बैंक है.

Sunday, March 6, 2016

संसद की बेहतर भूमिका

संसद के बजट सत्र के पहले दो हफ्तों का अनुभव अपेक्षाकृत बेहतर रहा है। पिछले दो सत्रों को देखते हुए अंदेशा था कि यह सत्र भी निरर्थक रहेगा। इस अंदेशे के पेशे नजर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने अभिभाषण में प्रतीकों के सहारे कहा था कि लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में रोचक नोक-झोंक तो हुई, पर सदन का समय खराब नहीं हुआ। इस हफ्ते पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखें भी घोषित हो गईं हैं। संसद का यह सत्र चुनावों के साथ-साथ चलेगा, इसलिए चुनाव की प्रतिध्वनि इसमें सुनाई देगी।

संसद के बजट सत्र और बाहरी राजनीति को मिलाकर देखें तो कुछ बातें दिखाई पड़ेंगी

· देश की अर्थ-व्यवस्था नाजुक दौर से गुजर रही है। बेशक हम दुनिया की सबसे तेज अर्थ-व्यवस्था बनते जा रहे हैं, पर उस गति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक संस्थागत सुधार अभी हम नहीं कर पाए हैं।

· संसद के भीतर और बाहर राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो रही हैं। भारतीय जनता पार्टी अभी पूरी तरह जम नहीं पाई है और कांग्रेस अभी पूरी तरह परास्त नहीं है। अगले दो महीने में देश निर्णायक विजय-पराजय की और बढ़ेगा।

· भारतीय जनता पार्टी को सन 2016 में जिन कारणों से विजय मिली उन्हें लेकर पार्टी के भीतर अभी स्पष्टता दिखाई नहीं पड़ती। आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक सवाल गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। हाल में जाट-आरक्षण आंदोलन और जेएनयू प्रकरण ने इस असमंजस को बढ़ाया है।

Thursday, March 3, 2016

राज्य सभा से सन 2016 में रिटायर होने वाले सदस्यों की सूची

The Modi government can breathe easy – not just yet. After struggling to push through its legislative agenda in the Rajya Sabha for want of numbers, the Bharatiya Janata Party and its partners are set to improve on their tally in the Upper House. However, the equations will change considerably not during the Rajya Sabha elections in March, but in July.

Of the 76 Rajya Sabha members whose terms are ending this year, 12 are retiring in April. The election to these seats will not alter the composition of the 250-member Upper House. The government tally will go up – and the Congress strength dip – when the elections of the remaining 64 seats are held in July.

Of the 12 members being elected on March 21, five are from Punjab where the position of the parties remains unaltered. The Congress has retained its two seats for which it chose former Punjab Congress chiefs Pratap Singh Bajwa and Shamsher Singh Dullo with an eye on next year’s state assembly elections. The Shiromani Akali Dal has also kept its two seats, having given another term to its sitting members Naresh Gujral and Sukhdev Dhindsa. The BJP has replaced Avinash Rai Khanna by Shwet Malik, a former mayor of Amritsar.

Of the three seats which fell vacant in Kerala, the Congress has retained one – former minister AK Antony has got another term – while the Communist Party of India (Marxist) has been able to hold on to only one of the two seats it had. It lost its second seat to the United Democratic Front, which nominated Veerendra Kumar of the Janata Dal (United).

The Congress had one seat in Himachal Pradesh for which it nominated deputy leader in the Rajya Sabha Anand Sharma. Sharma has won unopposed. Similarly, the picture has not changed in Assam either – the Congress is keeping the two seats for which elections are to be held on Monday. The CPM has retained the lone seat from Tripura.

Changing equations

The National Democratic Alliance government is anxious to improve its numbers in the Rajya Sabha. Its floor managers were able to demonstrate in the first half of the on-going budget session of Parliament that it can do business by dividing the opposition and co-opting regional parties. But this success is not easy as it involves long back-channel parleys.

However, their burden is going to become lighter.

For starters, the government can improve its numbers from 48 to 55 immediately by filling the seven vacancies of nominated members who retired recently. While two members in this category, HK Dua and Ashok Ganguly, completed their terms last November, five more – Javed Akhtar, Mrinal Miri, Bhalchandra Mungekar, Mani Shankar Aiyar and B Jayashree – retired this month. Nominated members are theoretically free to vote according to their conscience but they usually go along with the party which nominates them.

Another breakthrough will come the ruling alliance’s way during the election for 64 Rajya Sabha seats in July. By then the Congress’s present tally of 66 is likely to fall by 14, which includes seven nominated members, while the BJP and its allies will pick up more seats, because of their increased numbers in the state assemblies of Haryana, Rajasthan, Maharashtra, Jharkhand and Madhya Pradesh.

Wrangling for seats

For starters, the BJP will be able to win all the four seats from Rajasthan, while the Congress has little chance of retaining its two seats in view of its virtual decimation in the last assembly election. Similarly, the Congress cannot hope to get a single seat in the states of Telangana and Andhra Pradesh. As a result, its members – Jairam Ramesh, JD Seelam and Hanumanth Rao will not be returning to the Upper House. Ramesh is said to be lobbying for a seat from Karnataka where the Congress can get two clear winners. The party has already announced that sitting member Oscar Fernandes will be repeated.

Several Union ministers, including Piyush Goel, Nirmala Sitharaman, M Venkaiah Naidu, Suresh Prabhu, Chaudhry Birender Singh, YS Chowdhary and Mukhtar Abbas Naqvi, are retiring this year but the government will not have any problems in getting them re-elected.

While Goyal and Prabhu will sail through from their home state Maharashtra, the BJP will have to do some hard bargaining with the Telugu Desam Party to accommodate Sitharaman. Naidu was elected from Karnataka last time along with Aayyamur Manjunath but the BJP can win only one seat from here. MJ Akbar is likely to be nominated from Jharkhand again as he had only got a one-year term last time.

The situation in Bihar is also interesting as five Janata Dal (United) will be retiring this year but the party can only get two members re-elected as it will now have to accommodate the Rashtriya Janata Dal and the Congress in view of their strength in the state assembly. Bihar Chief Minister Nitish Kumar has a tough task as he has to choose from Sharad Yadav, KC Tyagi, Pawan Verma, Ghulam Rasool Baliyawi and RCP Singh.

Sno
Name
State
Date of Notification
Date of Retirement
1
Nominated
22-03-10
21-03-16
2
Nominated
22-03-10
21-03-16
3
Nominated
22-03-10
21-03-16
4
Nominated
29-06-12
21-03-16
5
Nominated
22-03-10
21-03-16
6
Kerala
03-04-10
02-04-16
7
Tripura
03-04-10
02-04-16
8
Kerala
03-04-10
02-04-16
9
Assam
16-12-11
02-04-16
10
Assam
03-04-10
02-04-16

Wednesday, March 2, 2016

क्या हो सकते हैं पिछड़ेपन के नए आधार?

पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी  कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता।
आजाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने सामाजिक अंतर्विरोधों को दुरुस्त करने की है। दुनिया के तमाम देश ‘एफर्मेटिव एक्शन’ के महत्व को स्वीकार करते हैं। ये कार्यक्रम केवल शिक्षा से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें किफायती आवास, स्वास्थ्य और कारोबार से जुड़े कार्यक्रम शामिल हैं। अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में ऐसे सकारात्मक कार्यक्रम चल रहे हैं। इनके अच्छे परिणाम भी आए हैं।

इरोम शर्मीला और हमारा असमंजस

देश का मीडिया जिस रोज आम बजट पर चर्चा कर रहा था उसी दिन एक खबर थी जो चैनलों और अखबारों के किनारे पर रही हो तो अलग बात है, सुर्खियों में नहीं थी। मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मीला को इम्फाल की एक अदालत के आदेश के बाद सोमवार को न्यायिक हिरासत से रिहा कर दिया गया। खबर यह भी थी कि अस्पताल के वॉर्ड से निकल कर शर्मीला शहीद मीनार में फिर से अनशन पर जा बैठीं।

सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को खत्म करने की मांग को लेकर उनके अनशन के 15 साल पिछले नवम्बर में पूरे हुए हैं। अनोखा है उनका आंदोलन और अनोखी है उनकी प्रतिबद्धता। पर दूसरी ओर इस आंदोलन से जुड़े मसले भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। क्या दोनों बातों के बीच कोई समझौता हो सकता है? सवाल यह भी है कि हम पूर्वोत्तर को लेकर कितने संवेदनशील हैं। पूर्वोत्तर के साथ मुख्यधारा के भारत का यह द्वंद कई सौ साल पुराना है।

Tuesday, March 1, 2016

ग्रामीण भारत को ‘मेगापुश’

मोदी सरकार ने चार राज्यों के चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जरूरतों का पूरा करने वाला बजट पेश किया है. इसमें सबसे ज्यादा जोर ग्रामीण क्षेत्र, इंफ्रास्ट्रक्चर, रोजगार और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर है. राजकोषीय घाटे को 3.5 प्रतिशत रखने के बावजूद सोशल सेक्टर के लिए धनराशि का इंतजाम किया गया है. अजा-जजा उद्यमियों के लिए प्रोत्साहन कार्यक्रम भी इसका संकेत देते हैं. बजट का संदेश है कि अमीर ज्यादा टैक्स दें, जिसका लाभ गरीबों को मिले. हालांकि सरकार ने पूँजी निवेश के लिए प्रोत्साहन योजनाओं की घोषणा की है, पर कॉरपोरेट जगत में कोई खास खुशी नजर नहीं आती.