हाल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ ने लखनऊ में लुलु मॉल का उद्घाटन किया। दो हजार करोड़ रुपये की लागत से
बनाया गया यह मॉल उत्तर भारत में ही नहीं देश के सबसे शानदार मॉलों में एक है।
यूएई के लुलु ग्रुप के इस मॉल से ज्यादा रोचक है लुलु ग्रुप के चेयरमैन युसुफ अली का
जीवन। हालांकि उनका ज्यादातर कारोबार यूएई में है, पर वे खुद भारतीय हैं। उनका
ग्रुप पश्चिमी एशिया,
अमेरिका और यूरोप के 22
देशों में कारोबार करता है।
युसुफ अली व्यापार से ज्यादा चैरिटी के लिए पहचाने
जाते हैं। गुजरात में आए भूकंप से लेकर सुनामी और केरल में बाढ़ तक के लिए
उन्होंने कई बार बड़ी धनराशि दान में दी है। उनके ग्रुप का सालाना टर्नओवर 8
अरब डॉलर का है और उन्होंने करीब 57 हजार
लोगों को रोजगार दिया हुआ है। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया है। भारत
और यूएई की सरकार के मजबूत रिश्तों में उनकी भी एक भूमिका है।
दक्षिण और गुजरात
युसुफ अली के बारे में जानकारियों की भरमार है,
पर यह आलेख भारत के मुस्लिम उद्यमियों, उद्योगपतियों और कारोबारियों के बारे में
है, जिन्होंने देश के आर्थिक-विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और निभा रहे
हैं। मुस्लिम कारोबारियों के बारे में जानकारी जुटाना आसान नहीं है, क्योंकि ऐसी
सामग्री का अभाव है, जिसमें सुसंगत तरीके से अध्ययन किया गया हो।
पहली नज़र में एक
बात दिखाई पड़ती है कि उत्तर भारत के मुसलमानों के मुकाबले दक्षिण भारत और गुजरात
के मुसलमानों ने कारोबार में तरक्की की है। ऐसे मुसलमानों का कारोबार बेहतर साबित
हुआ है, जिनकी शिक्षा या तो यूरोप या अमेरिका में हुई या भारत के आईआईटी या आईआईएम
में।
अलबत्ता असम के कारोबारी बद्रुद्दीन अजमल इस
मामले में एकदम अलग साबित हुए हैं। उन्हें अपने कारोबार और परोपकारी कार्यों से
ज्यादा अब हम उनके राजनीतिक दल ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ)
की वजह से बेहतर जानते हैं।
सफल मुस्लिम-कारोबारियों को ग्राहकों और यहाँ
तक कि अपने प्रबंधकों या कर्मचारियों के रूप में हिंदुओं की जरूरत पड़ती है।
तीसरे, उत्तर के मुसलमान कारोबारी समय के साथ अपने परंपरागत बिजनेस को छोड़ नहीं
पाए, जबकि दक्षिण और गुजरात के मुसलमान-कारोबारियों ने नए बिजनेस पकड़े और उसमें
सफल भी हुए।
सिपला और हिमालय
दुर्भाग्य से भारत में कुछ ऐसे मौके भी आए हैं,
जब मुस्लिम कारोबारियों के बहिष्कार की अपीलें जारी होती हैं। पिछले दिनों दक्षिण
भारत में जब हिजाब को लेकर विवाद खड़ा हो रहा था, तब भी ऐसा हुआ। उन्हीं दिनों नफरती
हैशटैग और प्रचार के बीच खबर यह भी थी कि भारतीय फार्मास्युटिकल्स कंपनी सिपला और
भारत सरकार की कंपनी आईआईसीटी मिलकर कोविड-19 की दवाई विकसित करने जा रहे हैं।
सिपला का भारत में ही नहीं अमेरिका तक में नाम है। 1935 में इसकी स्थापना
राष्ट्रवादी मुसलमान ख्वाजा अब्दुल हमीद ने की थी। आज उनके बेटे युसुफ हमीद इसका
काम देखते हैं। सिपला के अलावा भारत की फार्मास्युटिकल कंपनी वॉकहार्ट भी जेनरिक
दवाओं के अग्रणी है। इसके मालिक दाऊदी बोहरा हबील खोराकीवाला हैं।
इसी तरह आयुर्वेदिक औषधियों की प्रसिद्ध कंपनी
हिमालय है, जिसे एक मुस्लिम परिवार चलाता है। इसके खिलाफ भी हाल में दुष्प्रचार
हुआ। हिमालय की स्थापना मुहम्मद मनाल ने 1930 में की। देहरादून में इनामुल्लाह
बिल्डिंग से इस कंपनी की छोटी सी शुरुआत हुई थी। मुहम्मद मनाल के पास कोई
वैज्ञानिक डिग्री नहीं थी, पर उन्होंने आयुर्वेदिक औषधियों के वैज्ञानिक परीक्षण
का सहारा लिया।
हालांकि भारत के लोग परंपरागत दवाओं पर ज्यादा
भरोसा करते हैं, पर पश्चिमी शिक्षा के कारण उनका मन आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं से
हट रहा था। ऐसे में हिमालय का जन्म हुआ। एक अरसे तक कारोबार के बाद 1955 में इसके
लिवर-रक्षक प्रोडक्ट लिव-52 ने चमत्कार किया। यह दवाई दुनियाभर में प्रसिद्ध हो गई
और आज भी देश में सबसे ज्यादा बिकने वाली 10 दवाओं में शामिल है। मुहम्मद मनाल के
पुत्र मेराज मनाल 1964 में कंपनी में शामिल हुए। अपने जन्म के 92 साल बाद यह कंपनी
दुनिया में भारत की शान है।
भारत में 22 से 24 करोड़ के बीच मुस्लिम आबादी
है। इनमें काफी बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से कमज़ोर है। उनकी कमज़ोरी अक्सर मीडिया
का विषय बनती हैं, पर उद्योग और बिजनेस में मुसलमानों की सकारात्मक भूमिका अक्सर
दबी रह जाती है। इन उद्यमियों ने भारत के युवा मुसलमानों को इंजीनियरी, चार्टर्ड
एकाउंटेंसी, आईटी, मीडिया तथा अन्य आधुनिक कारोबारों में आगे आने को प्रोत्साहित
किया है।
परंपरागत कारोबार
उत्तर भारत में मुसलमान अपेक्षाकृत कमजोर और
पिछड़े हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि उत्तर के काफी समृद्ध मुसलमान पाकिस्तान चले
गए। उत्तर में भी मुसलमान कारोबारी दस्तकारी से जुड़े कामों में ज्यादा सक्रिय थे।
जैसे कि मुरादाबाद का पीतल उद्योग, फिरोजाबाद का काँच उद्योग, वाराणसी का सिल्क
उद्योग, सहारनपुर में लकड़ी का काम, अलीगढ़ में ताले, खुर्जा में मिट्टी के बर्तन, मिर्जापुर और भदोही में कालीन का काम वगैरह। इन उद्योगों में कई
कारणों से मंदी आई है। इलाहाबाद में शेरवानी परिवार के जीप फ्लैशलाइट का नाम अब
सुनाई नहीं पड़ता।
उत्तर भारत के सुन्नी मुसलमान-उद्योगपतियों में
हमदर्द के हकीम अब्दुल हमीद खां का नाम बेशक लिया जा सकता है। हमदर्द दवाखाना की
स्थापना 1906 में हमीद अब्दुल मज़ीद ने की थी। विभाजन के बाद इस परिवार का भी
विभाजन हो गया और अब्दुल हमीद के भाई हकीम मुहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए। भारतीय
रूह अफ्ज़ा के मुकाबले पाकिस्तानी रूह अफ्ज़ा भी दुनिया के बाजारों में बिकता है।