2004 में मणिपुर लिबरेशन आर्मी की सदस्य होने के आरोप में थंगियन मनोरमा की मौत के बाद मणिपुरी महिलाओं का निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन
नगालैंड विधानसभा ने सोमवार 20 दिसंबर को
सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करके केंद्र से उत्तर पूर्व और विशेष रूप से
नगालैंड से सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम यानी अफस्पा को वापस लेने की माँग की।
इस महीने के शुरू में राज्य के मोन जिले में हुई फायरिंग में 14 नागरिकों के मारे
जाने के मामले में भी विधानसभा में निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। नगालैंड पुलिस
ने कहा था कि सेना के 21 पैरा स्पेशल फोर्स ने नागरिकों की हत्या और घायल करने के
इरादे से गोलीबारी की थी। पड़ोसी राज्य मेघालय ने भी इसे हटाने की माँग की है। असम
और मणिपुर में कांग्रेस पार्टी इस आशय की माँग कर रही है।
नगालैंड सरकार का नेतृत्व भाजपा की सहयोगी
नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी कर रही है। प्रस्ताव में अधिकारियों से
हत्याओं पर माफी मांगने और न्याय दिलाने का आश्वासन भी माँगा गया है। उधर असम के
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा है कि हम फिलहाल राज्य में अफस्पा को जारी
रखना चाहेंगे। बाद में कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक रही, तो इसकी समीक्षा करेंगे।
उन्होंने कहा, कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक हो तो कोई भी राज्य अफस्पा को चलाए रखना
नहीं चाहेगा। पर हम इसे वापस ले भी लें, तो क्या आतंकवादी अपनी गतिविधियाँ बंद कर
देंगे? इस कानून की वापसी शांति-व्यवस्था की स्थापना
से जुड़ी है।
उदासीनता क्यों?
ज्यादातर राजनीतिक दलों की माँगे जनता के मिजाज
को देखते हुए होती हैं। नगालैंड में निर्दोष नागरिकों की मौत बहुत दुखद घटना थी। सरकार
के खेद जताने से लोगों का गुस्सा कम नहीं होगा। सेना
कह सकती है कि ऐसी दुखद घटनाएं कभी-कभी हो जाती हैं, पर इसका विश्लेषण करना जरूरी
है कि आखिर इस उदासीनता एवं अभिमान की वजह क्या है।
पूर्वोत्तर के राज्य, खासकर
जिन राज्यों में उग्रवाद सक्रिय है, वे देश के मुख्य
भाग से कटे हैं। इन राज्यों के लोगों के प्रति निष्ठुर रवैये की एक वजह यह हो सकती
है कि वे राष्ट्रीय मीडिया की पहुंच से दूर हैं और ज्यादातर गरीब हैं। अफस्पा भी
इस निष्ठुरता की एक वजह है। पूर्वोत्तर भारत के अधिकतर राजनीतिक दल इस कानून को
समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। मेघालय और नगालैंड में भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री
भी यही मांग कर रहे हैं।
तीन सत्य
वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने हाल में लिखा है
कि इस विशेष कानून के बारे में हम तीन कड़वे सत्य से परिचित हैं? पहला, अगर इस कानून से सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार नहीं मिले होते
तो यह हिंसा कभी नहीं होती। सेना की टुकड़ी को तब स्थानीय प्रशासन और पुलिस को
विश्वास में लेना पड़ता। अगर स्थानीय भाषा की जानकारी होती तो भी हालात यहां तक
नहीं पहुंचते। जिस स्थान या क्षेत्र से आप जितनी दूर होते हैं वहां की भाषा समझना
उतना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
दूसरा सत्य यह है कानून समाप्त करने का अब समय
आ गया है। कम से कम जिस रूप में इस कानून की इजाजत दी गई है वह किसी भी तरीके से
सेना या हमारे राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा में मदद नहीं कर पा रहा है। तीसरा और
सर्वाधिक कड़वा सत्य यह है कि तमाम विरोध प्रदर्शन के बावजूद सरकार यह कानून वापस
नहीं लेगी। अखबारों में इस विषय पर कितने ही आलेख क्यों न लिखे गए हों, पर एक के
बाद एक सरकारों का रवैया ढुलमुल रहा है। इस कानून पर एक बड़ा राजनीतिक दांव लगा
हुआ है।
मोदी-शाह सहित कोई भी सरकार इस विषय पर नरम रुख रखने के लिए तैयार नहीं होगी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में यह हिम्मत नहीं जुटा पाई। चूंकि, यह कानून निरस्त नहीं होगा इसलिए यह गुंजाइश खोजनी होगी कि हम किस तरह जरूरत होने पर ही इस कानून का इस्तेमाल करें।