दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार मीडिया के सहारे आई थी। मीडिया के सहारे ही वह अपनी स्थिति को बनाए रखने में सफल होती रही है। पिछले महीने जब ऑक्सीजन की कमी के कारण कोरोना पीड़ितों को परेशानी हुई, तो सरकार ने जिम्मेदारी केंद्र की ओर सरका दी। 2020 के विधानसभा चुनाव के पहले दिल्ली सरकार के जबर्दस्त ‘चुनाव-प्रचार’ में मोहल्ला क्लिनिकों का शोर था। अब जब अप्रेल और मई त्राहि-त्राहि मची, तब ये क्लिनिकें सीन से नदारद थीं।
केजरीवाल सरकार 2015
से अब तक विज्ञापनों पर 805 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, लेकिन एक नया अस्पताल नहीं
खोला। अब जब वह ‘घर-घर राशन’ पहुँचाने की
प्रतिज्ञा कर रही है, तब उसे बताना चाहिए कि राशन की दुकानों का क्या होगा? कितनी हैं दुकानें? वे कहाँ जाएंगी? राशन कार्डों की स्थिति क्या है? किसके पास जाएगा राशन? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब मिलने
चाहिए। सवाल यह भी है कि केंद्रीय खाद्य सुरक्षा योजना में वह अपना पैबंद क्यों लगाना
चाहती है? अपने पैसे से कोई नया
कार्यक्रम शुरू क्यों नहीं करती?
केजरीवाल
की व्यथा
अरविंद केजरीवाल ने
कहा, मैं बहुत व्यथित हूँ।
अगले हफ़्ते से गरीबों के घर-घर राशन पहुँचाने का काम शुरू होने वाला था। हमारी
सारी तैयारियां हो चुकी थीं और अचानक आपने (यानी मोदी जी ने) दो दिन पहले इसे
क्यों रोक दिया? कहा
गया कि हमने केंद्र सरकार से इसकी मंजूरी नहीं ली। हमने एक बार नहीं पाँच बार आपकी
मंजूरी ली है, जबकि कानूनन किसी मंजूरी की जरूरत नहीं है।
बात-बात पर दिल्ली सरकार की प्रेस कांफ्रेंसें हो रही हैं। गरीबों को अनाज देने की केंद्रीय योजना का श्रेय लेने के लिए उसमें लोकलुभावन ट्विस्ट दिया गया है। जब पिज्जा की होम डिलीवरी हो सकती है, तो राशन की क्यों नहीं? जरूर हो सकती है। शुरू कीजिए ऐसा कार्यक्रम। पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत चलने वाली योजना में 90 प्रतिशत से ज्यादा पैसा केंद्र सरकार खर्च करती है तो राज्य सरकार को इसका श्रेय क्यों लेना चाहिए?