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Monday, February 11, 2013

फाँसी की राजनीति


भारत में किसी भी बात पर राजनीति हो सकती है। अफज़ल गुरू को फाँसी देने के सवाल पर और उससे जुड़ी तमाम पेचीदगियों पर भी। और अब अफज़ल गुरू के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह तथा राजीव गांधी की हत्या के अभियुक्तों को फाँसी की मसला राजनीति का विषय बनेगा।  
फेसबुक पर कानपुर के पत्रकार ज़फर इरशाद का स्टेटस था, कांग्रेस के लोगों के पास ज़बरदस्त दिमाग है..जैसे ही उसने देखा कुम्भ में बहुत मोदी-मोदी हो रहा है, उसने अफज़ल को फाँसी देकर सारी ख़बरों को डाइवर्ट कर दिया..अब कोई बचा है क्या फाँसी के लिए?” अजमल कसाब की तरह अफज़ल गुरू की फाँसी न्यायिक प्रक्रिया से ज़्यादा राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा नज़र आती हैं। इस सिलसिले में अभी कुछ और पात्र बचे हैं, जिनकी सज़ा राजनीतिक कारणों से रुकी है। बहरहाल एक और टिप्पणी थी फ्रॉम सॉफ्ट टु एक्शन टेकिंग स्टेट। यानी सरकार अपनी छवि बदलने की कोशिश में है। यह भाजपा के हिन्दुत्व को दिया गया जवाब है। लम्बे अरसे से कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में ही नहीं, हमारे दो बड़े राजनीतिक दलों के बीच रस्साकशी चलती रही है। और यह बात कश्मीर समस्या और भारत-पाकिस्तान रिश्तों को परिभाषित करने में बड़ी बाधा है। अजमल कसाब और अफज़ल गुरू को फाँसी देने में जिस किस्म की गोपनीयता बरती गई वह इस अंतर्विरोध को रेखांकित करती है। हमारी  आंतरिक राजनीति पर विभाजन की छाया हमेशा रही है। और ऐसा ही पाकिस्तान में है। दोनों देशों में चुनाव की राजनीति इस प्रवृत्ति को बजाय कम करने के और ज्यादा बढ़ाती है। दोनों देशों के चुनाव करीब है।