सोमवार 8 और मंगलवार 9 नवंबर को राष्ट्रपति भवन में हुए पद्म पुरस्कार वितरण समारोह में इसबार कुछ ऐसी हस्तियाँ थीं, जिन्हें देखकर हर्ष और विस्मय दोनों होते हैं। इनमें एक थे इसमें एक थे कर्नाटक से आए हरेकला हजब्बा। साधारण कपड़े पहने हजब्बा पद्मश्री पुरस्कार लेने नंगे पाँव आए थे। जब उन्हें सम्मान-पत्र दिया गया, तब पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। वे सड़क के किनारे संतरे बेचते थे। जिस गांव में पैदा हुए वहां स्कूल नहीं था, इसलिए पढ़ नहीं पाए। उन्होंने ठान लिया कि अब इस वजह से गांव का कोई भी बच्चा अशिक्षित नहीं रहेगा। संतरा बेचकर पाई-पाई जुटाए पैसों से उन्होंने गांव में स्कूल खोला, जो आज 'हजब्बा आवारा शैल' यानी हजब्बा का स्कूल के नाम से जाना जाता है।
इसी समारोह में कर्नाटक की 72 वर्षीय आदिवासी
महिला तुलसी गौडा पद्मश्री पुरस्कार लेने नंगे पाँव आई थीं। तुलसी गौडा पिछले छह
दशक से पर्यावरण-संरक्षण का अलख जगा रही हैं। कर्नाटक के एक गरीब आदिवासी परिवार
में जन्मीं तुलसी कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन उन्हें जंगल के वाले पेड़-पौधों,
जड़ी-बूटियों के बारे में इतनी जानकारी है कि उन्हें 'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फॉरेस्ट' कहा जाता है।
हलक्की जनजाति से ताल्लुक रखने वाली तुलसी गौडा ने 12 साल की उम्र से अबतक कितने
पेड़ लगाए गिनकर वे बता नहीं सकतीं। अंदाज़ा लगाती हैं शायद चालीस हजार, पर असली संख्या शायद एक लाख से भी ऊपर है। उनके सम्मान में हॉल में
उपस्थित प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से लेकर तमाम उपस्थित अतिथि हाथ जोड़े खड़े थे।
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की आदिवासी महिला राहीबाई
सोमा पोपेरे भी पद्मश्री ग्रहण करने आईं। उन्हें 'सीड
मदर' के नाम से जाना जाता है। 57 साल की पोपेरे
स्वयं सहायता समूहों के जरिए 50 एकड़ जमीन पर 17 से ज्यादा देसी फसलों की खेती
करती हैं। दो दशक पहले उन्होंने बीजों को इकट्ठा करना शुरू किया। आज वे सैकड़ों
किसानों को जोड़कर वैज्ञानिक तकनीकों के जरिए जैविक खेती करती हैं।
सम्मानित होने वालों में अयोध्या से आए मोहम्मद
शरीफ भी थे, जो अपने ढंग से समाज सेवा में लगे हैं। हजारों लावारिस शवों का अंतिम
संस्कार कर चुके समाजसेवी मोहम्मद शरीफ को निस्वार्थ सेवा के लिए राष्ट्रपति भवन
में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बताया जाता है कि पिछले 25 वर्षों में 25,000
से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार किया है। 30 वर्ष पूर्व उनके एक जवान बेटे
की कहीं सड़क दुर्घटना से मौत हो गई थी। घरवालों को इस बात की जानकारी भी नहीं हो
पाई और पुलिस ने लावारिस मानकर अंतिम संस्कार कर दिया। उसके बाद से मोहम्मद शरीफ
ने निश्चय किया कि लावारिसों का वारिस मैं बनूँगा। आर्थिक तंगी के बावजूद वे इस
जिम्मेदारी को निभाते रहे हैं।
अभिजात्य से हटकर
पुरस्कारों और सम्मानों की बात जब होती है, तब सम्मानित लोगों की जो छवि हमारे मन में बनी है, उससे कुछ अलग किस्म के लोगों का सम्मान देखकर मन प्रफुल्लित होता है। यह असली भारत का सम्मान है, साथ ही बदलते भारत की तस्वीर। यह उन लोगों का सम्मान है, जो अपनी धुन और लगन से काम करते चले आ रहे हैं। ये हैं इस देश के वास्तविक नायक। आम धारणा रही है कि पद्म पुरस्कार ज्यादातर उन्हीं को मिलते हैं जिनकी सत्ता के गलियारों तक पहुंच हो। पर भारत सरकार के इस नए चलन से धारणा बदलेगी। देश के वास्तविक नायकों को खोजना और उन्हें सम्मानित करना बड़ी बात है। अभिजात्यवाद से हटकर उन ज़मीनी लोगों को खोजना जो इस देश के वास्तविक रत्न हैं। ऐसे रत्नों की कमी नहीं है। उन्हें खोजने की जरूरत भर है।