बाबा
रामपाल प्रकरण के बाद भारतीय समाज में बाबाओं और संतों की भूमिका को लेकर कई तरह
के सवाल खड़े होते हैं। तेजी से आधुनिक होते देश में संतों-बाबाओं की उपस्थिति
क्या किसी विसंगति की और संकेत कर रही हैं? क्या
बाबाओं, संतों,
साधु-साध्वियों,
आश्रमों
और डेरों की बेहतर सामाजिक भूमिका हो सकती है या वह खत्म हो गई?
एक
ओर इन संस्थाओं का आम जनता के जीवन में गहरा प्रभाव नजर आता है वहीं इनके
नकारात्मक रूप को उभार ज्यादा मिल रहा है। नई पीढ़ी और खासतौर से लड़कियों के
पहनावे, मोबाइल फोन के
इस्तेमाल और शादी-विवाह को लेकर ये परम्परागत संस्थाएं मीडिया के निशाने पर हैं।
क्या वास्तव में इनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं बची?
सन
1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ तमाम सामाजिक आंदोलन इन परम्परागत
संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। अलीगढ़ मुस्लिम विवि, काशी
हिन्दू विवि, डीएवी कॉलेज,
आर्य
कन्या पाठशालाएं और खालसा कॉलेज धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों की देन हैं। महात्मा
गांधी की अपील धार्मिक और सांस्कृतिक रंग से रंगी थी। पर उसमें साम्प्रदायिकता
नहीं समभाव था। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा का इस्तेमाल राष्ट्रीय
आंदोलन में हुआ। केवल भारत में ही नहीं वियतनाम में हो ची मिन्ह जैसे कम्युनिस्ट
नेता ने अपने आंदोलन में धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सहारा लिया। आज भी तमाम
छोटे-छोटे बदलावों के साथ इन्हें जोड़ा जाए तो सार्थक परिणाम दिखाई पड़ेगा।