आम आदमी पार्टी के जन्म
के साथ उसके भविष्य को लेकर अटकलों का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह रुकने के बजाय
बढ़ता जा रहा है. उसके दो वरिष्ठ नेताओं के ताजा इस्तीफों के कारण कयास बढ़ गए हैं.
ये कयास पार्टी के आंतरिक
लोकतंत्र, उसकी रीति-नीति, लतिहाव, दीर्घकालीन रणनीति और भावी राजनीति को लेकर
हैं. इस किस्म की खबरों के बार-बार आने से पार्टी का पटरा बैठ रहा है.
पार्टी के उदय ने देश में
‘नई राजनीति’ की सम्भावनाओं को जन्म दिया
था. ये सम्भावनाएं ही अब क्षीण पड़ रहीं हैं. उत्साह का वह माहौल नहीं बचा, जो तीन
साल पहले था. पार्टी का नेतृत्व खुद बहुत आशावान नहीं लगता.
पैरों में लिपटे भँवर
हाल में पार्टी ने 2019
के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात सीटों को लेकर एक सर्वेक्षण कराया है, जिसमें
उसने सात में से चार सीटों पर सफल होने की उम्मीद जाहिर की है. यह उसका अपना सर्वे
है. यह उसकी मनोकामना है.
पार्टी बताना चाहती है कि
हम दिल्ली में सबसे बड़ी ताकत हैं. शायद वह सही है, पर उसे अपना क्षरण भी दिखाई
पड़ रहा है. प्रमाण है उसके अपनों का साथ छोड़कर जाना. यह आए दिन का टाटा-बाई-बाई
अच्छा संकेत नहीं है.
पार्टी की आशा और निराशा
के ज्यादातर सूत्र दिल्ली की राजनीति से जुड़े हैं. उसकी लोकप्रियता की अगली परीक्षा
लोकसभा चुनाव में होगी. पर उस चुनाव की तैयारी उसके अंतर्विरोधों को भी बढ़ा रही
है. चुनाव लड़ने के लिए साधन चाहिए, जिनके पीछे भागने का मतलब है पुराने साथियों
से बिछुड़ना. साथ ही चुनाव जीतने के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र और इसी
किस्म के दूसरे फॉर्मूलों पर भी चलना है, क्योंकि चुनाव जीतने के लिए वे जरूरी होते हैं. यह सब 'नई राजनीति' की अवधारणा से मेल नहीं
खाता.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों
से पंगा लेने के कारण उसकी परेशानियाँ बढ़ी हैं. उसके आंतरिक झगड़े पहले भी थे, पर
अब वे सामने आने लगे हैं. झगड़ों ने उसके पैरों को भँवर की तरह लपेटना शुरू कर
दिया है.