Showing posts with label अमेरिका. Show all posts
Showing posts with label अमेरिका. Show all posts

Friday, May 26, 2023

अमेरिका का राजकोषीय संकट

 

बाल्टीमोर सन में कार्टून

अमेरिका का अभूतपूर्व वित्तीय-संकट से सामना है। देश की संसद समय से ऋण-सीमा को बढ़ाने में विफल हो रही है और कर्जों को चुकाने में डिफॉल्ट का खतरा पैदा हो गया है। इसका परिणाम होगा शेयर बाजार में हड़कंप, बेरोजगारी में वृद्धि और दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में अफरा-तफरी। अमेरिका को यह सीमा आगामी 1 जून के पहले 31.4 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर कर लेनी चाहिए। डेट सीलिंग वह अधिकतम रक़म है, जिसे अमेरिकी सरकार अपने ख़र्चे पूरे करने के लिए उधार ले सकती है। संविधान के अनुसार ऐसा करने का अधिकार अमेरिकी कांग्रेस यानी संसद को है, पर राजनीतिक कारणों से ऐसा हो नहीं पा रहा है।

ऐसे हालात पहले भी पैदा हुए हैं, पर तब राजनीतिक नेताओं की सहमति से सीमा बढ़ गई, पर इसबार अभी ऐसा नहीं हो पाया है। रिपब्लिकन पार्टी का कहना है कि खर्च घटाकर 2022 के स्तर पर ले आओ, तब हम आपके प्रस्ताव का समर्थन करेंगे। ऐसा करने पर सरकारी खर्च में करीब 25 प्रतिशत की कटौती करनी होगी, जो जीडीपी की करीब पाँच फीसदी होगी। इससे राष्ट्रपति बाइडन की ग्रीन-इनर्जी योजनाएं ठप हो जाएंगी और देश मंदी की चपेट में आ जाएगा। रिपब्लिकन और डेमोक्रेट पार्टियों के बीच बातचीत के कई दौर विफल हो चुके हैं। यदि सरकार के पास धनराशि नहीं बचेगी, तो वह बॉण्ड धारकों या जिनसे कर्ज लिए गए हैं, उन्हें भुगतान नहीं कर पाएगी। इससे वैश्विक आर्थिक-संकट पैदा हो जाएगा।

बजट घाटा

2022 के वर्ष में संघ सरकार की प्राप्तियाँ 4.90 ट्रिलियन डॉलर की थीं और व्यय 6.27 ट्रिलियन डॉलर का था। इस प्रकार घाटा 1.38 ट्रिलियन डॉलर का था। सन 2001 के बाद से अमेरिकी की संघ सरकार लगातार घाटे में है। इस घाटे को पूरा करने के लिए ऋण लेने की जरूरत होती है। अमेरिकी संविधान के अनुसार अमेरिका के नाम पर ऋण लेने का अधिकार केवल देश की संसद को है। देश की ऋण-सीमा कानूनी-व्यवस्था है, जो 1917 में तय की गई थी।

उस समय संसद ने सरकार को युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए बॉण्ड जारी करने का अधिकार दिया था। 1939 में संसद ने सरकार को ऋणपत्र (डेट) जारी करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार दे दिया, पर उसकी सीमा तय कर दी कि कितना ऋण लिया जा सकता है। 1939 से 2018 तक इस सीमा को 98 बार बढ़ाया गया और पाँच बार कम भी किया गया। सिद्धांततः सरकार अपने खर्चे पूरे करने के लिए कर्ज ले सकती है, पर उसकी सीमा क्या होगी, यह संसद तय करती है।

Wednesday, April 26, 2023

अमेरिकी डॉलर का घटता प्रभाव


 हाल में भारत और बांग्लादेश ने आपसी व्यापार रुपये में करने का फैसला किया है. बांग्लादेश 19 वाँ ऐसा देश है, जिसके साथ भारत का रुपये या बांग्लादेशी टका में व्यापार होगा. पिछले साल यूक्रेन-युद्ध शुरू होने के बाद अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने जबसे रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं, अनेक देश डॉलर के बजाय अपनी मुद्राओं में सीधे कारोबार करने का फैसला कर रहे हैं. इसे डीडॉलराइज़ेशनकी प्रक्रिया कहा जा रहा है. 

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से डॉलर ने वस्तुतः वैश्विक मुद्रा का स्थान ले लिया है, पर अब लगता है कि अब डॉलर से हटने की प्रक्रिया शुरू हो गई है. इस प्रक्रिया की गति बहुत तेज नहीं है, पर संकेत मिलने लगे है. इसमें खासतौर से रूस और चीन की इसे तेज करने में अग्रणी भूमिका है. क्या यह अमेरिका के घटते प्रभाव की सूचक है, या केवल एक छोटे से दौर की मामूली घटना है? इसका जवाब देना मुश्किल है, पर इतना कहा जा सकता है कि यह इतनी छोटी परिघटना नहीं है कि जिसकी अनदेखी की जाए.

रूस, चीन और ईरान

ईरान ने चीन और रूस के साथ डॉलर में कारोबार बंद कर दिया है. सऊदी अरब ने घोषणा की है कि हम पेट्रोडॉलर के माध्यम से कारोबार बंद कर रहे हैं और उसके स्थान पर पेट्रोयुआन स्वीकार कर रहे हैं. हाल में फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि यूरोप को भी अमेरिकी डॉलर का सहारा लेना बंद करना चाहिए.

Friday, November 11, 2022

क्या ट्रंप के ‘ग्रहण’ से बाहर निकलेगी रिपब्लिकन पार्टी


अमेरिका के मध्यावधि चुनाव परिणाम हालांकि पूरी तरह आए नहीं हैं, पर उनसे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. जैसा अनुमान था इस चुनाव में उस तरह की लाल लहर नहीं थी, पर हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में रिपब्लिकन मामूली बहुमत जरूर हासिल करेंगे. सीनेट में स्थिति कमोबेश पहले जैसी रहेगी, बल्कि रिपब्लिकन्स ने एक सीट खोई है. जॉर्जिया में 6 दिसंबर को फिर से मतदान होगा, जिसके बाद पलड़ा किसी तरफ झुक सकता है.

डेमोक्रेट्स को वैसी पराजय नहीं मिली, जिसका अंदेशा था. इस चुनाव के साथ 2024 के राष्ट्रपति चुनाव का आग़ाज़ भी हो गया है. ऐसा लगता है कि जो बाइडन अगले चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी नहीं होंगे, पर यह स्पष्ट नहीं है कि रिपब्लिकन पार्टी डोनाल्ड ट्रंप को उतारेगी या नहीं. 2020 का चुनाव हारने के बाद से ट्रंप इस बात को कई बार कह चुके हैं कि मैं 2024 का चुनाव लड़ सकता हूँ. इसमें दो राय नहीं कि पार्टी के लिए धन-संग्रह करने की क्षमता ट्रंप के पास है, पर केवल इतने भर से वे प्रत्याशी नहीं बन सकते. मध्यावधि चुनाव के परिणामों से लगता है कि उनके नाम का जादू अब खत्म हो रहा है.  

हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में रिपब्लिकन पार्टी का क्षीण सा ही सही, पर बहुमत हो गया है. सीनेट में बराबरी की स्थिति है. प्रतिनिधि सदन में रिपब्लिकन पार्टी सरकारी विधेयकों में रोड़ा अटकाने की स्थिति में आ गई है. इससे बाइडन प्रशासन पर दबाव बढ़ेगा. अमेरिकी संसद में सभी प्रस्तावों पर दलीय आधार पर वोट नहीं पड़ते, कुछ महत्वपूर्ण मामलों में ही दलीय प्रतिबद्धता की परीक्षा होती है. इसका मतलब है कि बड़े प्रस्तावों पर वोट के समय रिपब्लिकन पार्टी का वर्चस्व संभव है, पर इसके लिए पार्टी को एकजुट रखने के लिए जतन भी करने होंगे.

Monday, March 7, 2022

यूक्रेन की लड़ाई से पैदा हुई पेचीदगियाँ


यूक्रेन की लड़ाई ने दुनिया के सामने कुछ ऐसी पेचीदगियों को पैदा किया है, जिन्हें सुलझाना आसान नहीं होगा। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध की समाप्ति हुई थी। उसके साथ ही वैश्वीकरण की शुरुआत भी हुई थी। दूसरे शब्दों में वैश्विक-अर्थव्यवस्था का एकीकरण। विश्व-व्यापार संगठन बना और वैश्विक-पूँजी के आवागमन के रास्ते खुले। राष्ट्रवाद की सीमित-संकल्पना के स्थान पर विश्व-बंधुत्व के दरवाजे खुले थे। यूक्रेन की लड़ाई ने इन दोनों परिघटनाओं को चुनौती दी है। इस लड़ाई के पीछे दो पक्षों के सामरिक हित ही नहीं हैं, बल्कि वैश्विक-राजनीति के कुछ अनसुलझे प्रश्न भी हैं। इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र की भूमिका। क्या यह संस्था उपयोगी रह गई है?

चक्रव्यूह में रूस

रूस ने लड़ाई शुरू कर दी है, पर क्या वह इस लड़ाई को खत्म कर पाएगा? खत्म होगी, तो किस मोड़ पर होगी?  फिलहाल वह किसी निर्णायक मोड़ पर पहुँचती नजर नहीं आती है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि रूस ने किस इरादे से कार्रवाई शुरू की है। क्या वह पूरे यूक्रेन पर कब्जा चाहता है और राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर अपने किसी समर्थक को बैठाना चाहता है? क्या यूक्रेनी जनता ऐसा होने देगी? क्या अमेरिका और नेटो अपने कदम वापस खींचकर यूक्रेन को तटस्थ देश बनाने पर राजी हो जाएंगे? ऐसा संभव है, तो वे अभी तक माने क्यों नहीं हैं?

रूस भी चक्रव्यूह में फँसता नजर आ रहा है। अमेरिका ने हाइब्रिड वॉर और शहरी छापामारी का काफी इंतजाम यूक्रेन में कर दिया है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र और दूसरे मंचों पर पश्चिमी देशों ने रूस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। वैश्विक-व्यवस्थाएं अभी पश्चिमी प्रभाव में हैं। हाँ रूस यदि अपने इस अभियान में आंशिक रूप से भी सफल हुआ, तो मान लीजिए कि अमेरिका का सूर्यास्त शुरू हो चुका है। फिलहाल ऐसा संभव लगता नहीं, पर बदलाव के संकेतों को आप पढ़ सकते हैं।

एटमी खतरा

यूक्रेन के ज़ापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र में शुक्रवार तड़के रूसी हमले के कारण आग लग गई। अब यह बंद है और रूसी कब्जे में है। इस घटना के खतरनाक निहितार्थ हैं। हालांकि आग बुझा ली गई है, पर इससे संभावित खतरों पर रोशनी पड़ती है। यूक्रेन में 15 नाभिकीय संयंत्र हैं। यह दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो आधी से ज्यादा बिजली के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भर हैं। जरा सी चूक से पूरे यूरोप पर रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है।

यूक्रेन जब सोवियत संघ का हिस्सा था, तब उसके पास नाभिकीय अस्त्र भी थे। सोवियत संघ के ज्यादातर नाभिकीय अस्त्र यूक्रेन में थे। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट के अनुसार उस समय यूक्रेन के पास 3000 टैक्टिकल यानी छोटे परमाणु हथियार मौजूद थे। इनके अलावा उसके पास 2000 स्ट्रैटेजिक यानी बड़े एटमी हथियार थे, जिनसे शहर ही नहीं, छोटे-मोटे देशों का सफाया हो सकता है।

दिसंबर 1994 में बुडापेस्ट, हंगरी में तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे, जिनके तहत यूक्रेन, बेलारूस और कजाकिस्तान ने अपने नाभिकीय हथियारों को इस भरोसे पर त्यागा था कि जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा की जाएगी। यह आश्वासन, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने दिया था। फ्रांस और चीन ने एक अलग दस्तावेज के मार्फत इसका समर्थन किया था।

आज यदि यूक्रेन के पास नाभिकीय-अस्त्र होते तो क्या रूस उसपर इतना बड़ा हमला कर सकता था? यूक्रेन पर हुए हमले ने नाभिकीय-युद्ध को रोकने की वैश्विक-नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं। जो देश नाभिकीय-अस्त्र हासिल करने की परिधि पर हैं या हासिल कर चुके हैं और उसे घोषित किया नहीं है, उनके पास अब यूक्रेन का उदाहरण है। दुनिया ईरान को समझा रही थी, पर क्या उसे समझाना आसान होगा?

Sunday, February 27, 2022

यूक्रेन में फौजी ताकत का खेल


यूक्रेन पर रूस का धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने साफ तौर पर हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में क्या यह रुख सही है? क्या अब हमें अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना होगा? हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

ताकत के जोर पर

रूस ने इस बात को स्थापित किया है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? बहरहाल अब देखना होगा कि रूस का इरादा क्या है?  शायद उसका लक्ष्य यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर उनके स्थान पर अपने समर्थक को बैठाना है। दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनी नागरिकों को हथियार दे रहे हैं, ताकि वे छापामार लड़ाई जारी रखें। बेशक वे प्रतिरोध कर रहे हैं और जो खबरें मिल रही हैं, उनसे लगता है कि रूस के लिए इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीत पाना आसान नहीं होगा।

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की देश में मौजूद हैं और उनकी सेना आगे बढ़ती रूसी सेना के शरीर में घाव लगा रही है। बहरहाल आगे की राह सबके लिए मुश्किल है। रूस, यूक्रेन तथा पश्चिमी देशों के लिए भी। अमेरिका और यूरोप के देश सीधे सैनिक हस्तक्षेप करना नहीं चाहते और लड़ाई के बगैर रूस को परास्त करना चाहते हैं। फिलहाल वे आर्थिक-प्रतिबंधों का सहारा ले रहे हैं। यह भी सच है कि उनके सैनिक हस्तक्षेप से लड़ाई बड़ी हो जाती।

रूसी इरादा

इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी और फिर सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। पहले लगता था कि वह इस डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण चाहता है, जो काफी हद तक यूक्रेन के नियंत्रण से मुक्त है। अब लगता है कि वह पूरे यूक्रेन को जीतेगा। फौजी विजय संभव है, पर उसे लम्बे समय तक निभा पाना आसान नहीं। यूक्रेन के कुछ हिस्से को छोड़ दें, जहाँ रूसी भाषी लोग रहते हैं, मुख्य भूमि पर दिक्कत है। यह बात 2014 में साबित हो चुकी है, जब वहाँ रूस समर्थक सरकार थी। उस वक्त राजधानी कीव में बगावत हुई और तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस जाना पड़ा। उसी दौरान रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, जो आज तक बना हुआ है।

Saturday, October 23, 2021

अमेरिकी से समझौता करेगा पाकिस्तान, चाहता है भारत से रिश्ते सुधारने में मदद

पिछले कुछ समय से पाकिस्तान सरकार इस बात को लेकर बेचैन है कि अमेरिका उससे नाराज है। अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अभी तक प्रधानमंत्री इमरान खान से फोन पर बात नहीं की है। इस परेशानी की वजह अफगानिस्तान है। अमेरिका को लगता है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में डबल गेम खेला है। लगता यह है कि यह डबल गेम अब भी चल रहा है। इसका नवीनतम उदाहरण अमेरिकी वायुसेना को अफगानिस्तान में कार्रवाई करने के सिलसिले में अपनी हवाई सीमा के इस्तेमाल से जुड़ा है।

अमेरिका ने अफगानिस्तान से जाते-जाते अफगानिस्तान में कार्रवाई करने के लिए पाकिस्तानी हवाई अड्डे का इस्तेमाल करने की अनुमति माँगी थी, जिसे देने से पाकिस्तान सरकार ने न केवल इनकार किया, बल्कि बड़े गर्व से इसकी घोषणा की थी। अब सीएनएन ने खबर दी है कि पाकिस्तान ने अपनी हवाई सीमा का इस्तेमाल करने पर हामी भर दी है, जिसका औपचारिक समझौता जल्द हो जाएगा।

सीएनएन के अनुसार बाइडेन प्रशासन ने अपने सांसदों को बताया कि इस आशय का औपचारिक समझौता होने वाला है। अमेरिकी प्रशासन ने शुक्रवार को सांसदों को सूचित किया कि उनका अफगानिस्तान में सैन्य और खुफिया अभियानों के संचालन के लिए पाकिस्तान से उसके हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल के लिए पाकिस्तान के साथ एक समझौते को औपचारिक रूप देने के करीब है। सीएनएन ने कांग्रेस के सदस्यों के साथ खुफिया ब्रीफिंग के विवरण से परिचित तीन स्रोतों का हवाला देते हुए इसकी जानकारी दी। उधर पाकिस्तान सरकार के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि ऐसा कोई समझौता नहीं होने वाला है।

अमेरिकी प्रशासन का कहना है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद विरोधी अपने अभियान और भारत के साथ रिश्ते सुधारने में मदद करने की शर्त पर अमेरिका के साथ एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग पर हस्ताक्षर करने की इच्छा व्यक्त की है। यह बात सीएनएन ने अपने एक स्रोत के माध्यम से बताई है। एक दूसरे स्रोत ने बताया कि बातचीत अभी चल रही है और शर्तें अभी तय नहीं हैं। शर्तें बदल भी सकती हैं।

Friday, September 24, 2021

कमला हैरिस से मोदी की मुलाकात


अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

अमेरिका दौरे पर गए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार 23 सितम्बर को अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से पहली बार आमने-सामने मुलाक़ात की। भारतीय मूल की कमला हैरिस ने पिछले वर्ष इतिहास रचा था जब वे अमेरिका में उपराष्ट्रपति पद तक पहुँचने वाली पहली अश्वेत और दक्षिण एशियाई मूल की राजनेता बनी थीं।

प्रधानमंत्री मोदी ने ह्वाइट हाउस में कमला हैरिस के साथ मुलाक़ात के बाद एक साझा प्रेस वार्ता में भारत और अमेरिका को स्वाभाविक सहयोगी बताया। उन्होंने ने कहा, भारत और अमेरिका स्वाभाविक सहयोगी हैं। हमारे मूल्य समान हैं, हमारे भू-राजनीतिक हित समान हैं।

नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को ही ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन से मुलाकात की। दोनों देश क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए बन रहे समूह क्वाड के सदस्य हैं। मोदी और मॉरिसन ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच आर्थिक के साथ-साथ आपसी संबंध मजबूत करने पर भी जोर दिया।

Thursday, September 23, 2021

मोदी की अमेरिका यात्रा

 

गुरुवार को वॉशिंगटन में भारतीय मूल की महिलाओं से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी।

कोविड महामारी के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल मार्च में बांग्लादेश की एक संक्षिप्त यात्रा के बाद अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा के लिए अमेरिका पहुँच गए हैं। वे 26 सितंबर को देर रात दिल्ली लौटेंगे। फिलहाल निगाहें 24 सितम्बर को उनकी अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ बैठक पर होगी। शुक्रवार को ही ह्वाइट हाउस में क्वाड देशों के नेताओं की बैठक होगी। इसके बाद मोदी न्यूयॉर्क के लिए रवाना हो जाएंगे और 25 सितंबर को वहां संयुक्त राष्ट्र महासभा के 76वें सत्र को संबोधित करेंगे।

मोदी वॉशिंगटन के होटल बिलार्ड में ठहरे हैं, वे यहां भी लोगों के अभिवादन का जवाब देते नजर आए। मोदी आज वे एपल के सीईओ टिम कुक समेत क्वालकॉम, एडोबी और ब्लैकस्टोन जैसी कंपनियों के प्रमुखों से भी होटल में ही मुलाकात कर रहे हैं। हरेक सीईओ को 15 मिनट का समय देने का निश्चय हुआ है।

उन्होंने सबसे पहले क्वालकॉम के सीईओ  क्रिस्टियानो आर अमोन से मुलाकात की। मोदी ने क्रिस्टियानो को भारत में मिलने वाले अवसरों के बारे में बताया। क्वालकॉम के सीईओ ने भारत के 5जी सेक्टर समेत कई क्षेत्रों में मिलकर काम करने की इच्छा जाहिर की। क्वालकॉम एक मल्टीनेशनल फर्म है, जो सेमीकंडक्टर, सॉफ्टवेयर और वायरलेस टेक्नोलॉजी सर्विस पर काम करती है।

वे उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से भी बातचीत करेंगे। दिन के आखिर में वे जापान के प्रधानमंत्री सुगा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन से बातचीत करेंगे। ये दोनों देश क्वॉड ग्रुप में शामिल हैं। भारत और अमेरिका भी क्वॉड में शामिल हैं।

Wednesday, August 11, 2021

तालिबान के खिलाफ विफल क्यों हो रही है अफगानिस्तान की सेना?


पिछले कुछ दिनों में तालिबान ने अफगानिस्तान के सात सूबों की राजधानियों पर कब्जा कर लिया है। उत्तर में कुंदुज, सर-ए-पोल और तालोकान पर तालिबान ने कब्जा कर लिया। ये शहर अपने ही नाम के प्रांतों की राजधानियां हैं। दक्षिण में ईरान की सीमा से लगे निमरोज़ की राजधानी जरांज पर कब्जा कर लिया है। उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान सीमा से लगे नोवज्जान प्रांत की राजधानी शबरग़ान पर भी तालिबान का कब्जा हो गया है। मंगलवार की शाम को उत्तर के बागलान प्रांत की राजधानी पुल-ए-खुमरी पर तालिबान का कब्जा हो गया। ईयू के एक प्रवक्ता के अनुसार देश के 65% हिस्से पर या तो तालिबान का कब्जा है या उसके साथ लड़ाई चल रही है।

उधर खबरें यह भी हैं कि अफगान सुरक्षा बलों ने पिछले शुक्रवार को हेरात प्रांत के करुख जिले पर जवाबी कार्रवाई करते हुए फिर से कब्जा कर लिया। तालिबान ने पिछले एक महीने में हेरात प्रांत के एक दर्जन से अधिक जिलों पर कब्जा कर लिया था। हेरात में इस्माइल खान का ताकतवर कबीला सरकार के साथ है। उसने तालिबान को रोक रखा है। फराह प्रांत में अफगान वायुसेना ने तालिबान के ठिकानों पर बम गिराए। अमेरिका के बम वर्षक विमान बी-52 भी इन हवाई हमलों में अफगान सेना की मदद कर रहे हैं। तालिबान ने इन हवाई हमलों को लेकर कहा है, कि इनके माध्यम से आम अफगान लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। उधर अमेरिका का कहना है कि हमारा सैनिक अभियान 31 अगस्त को समाप्त हो जाएगा। उसके बाद देश की रक्षा करने की जिम्मेदारी अफगान सेना की है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि अफगानिस्तान के नेताओं को अपनी भूमि की रक्षा के लिए अब निकल कर आना चाहिए। 

हवाई हमलों के बावजूद तालिबान की रफ्तार थमी नहीं है। इस दौरान सवाल उठाया जा रहा है कि अफगान सेना तालिबान के मुकाबले लड़ क्यों नहीं पा रही है? कहा यह भी जा रहा है कि अमेरिकी सेना को कम से कम एक साल तक और अफगानिस्तान में रहना चाहिए था। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमेरिकी सेना को हटना ही था, तो पहले देश में उन कबीलों के साथ मोर्चा बनाना चाहिए था, जो तालिबान के खिलाफ खड़े हैं।

Monday, August 9, 2021

अमेरिका की स्वास्थ्य-चेतना ऐसी बदहाल क्यों?


अमेरिका को दुनिया के सबसे आधुनिक-देश के रूप में गिना जाता है, पर कोविड-19 के दौर में वहाँ से कुछ ऐसी बातें निकलकर बाहर आ रही हैं, जिनसे स्वास्थ्य के प्रति उसकी जागरूकता को लेकर संदेह पैदा होता है। सबसे बड़ा संदेह वैक्सीन के प्रति नागरिकों के रवैये को लेकर है। कोविड-19 का असर कम होने की वजह से वहाँ मास्क पहनने की अनिवार्यता खत्म कर दी गई और प्रतिबंधों में ढील दे दी गई। रेस्तराँओं में बगैर-मास्क भीड़ जा रही है। कुछ रेस्तरां में सूचना लगी होती है कि जिन्होंने वैक्सीन नहीं लगाई है, कृपया मास्क पहन कर आएं, पर यह देखने वाला कोई नहीं है कि किसने वैक्सीन लगाई है और किसने नहीं।

परिणाम यह हुआ कि वहाँ संक्रमण का खतरा फिर बढ़ रहा है। देश के स्वास्थ्य सलाहकार डॉ एंथनी फाउची ने पिछले हफ्ते कहा, टीका न लगवाना कोरोना को फैलाने का सबसे अहम कारण होगा। अभी तक अमेरिका की 49.7 प्रतिशत आबादी को दोनों टीके लगाए गए हैं और करीब 58 फीसदी आबादी को कम से कम एक टीका लगा है। करीब 17 करोड़ लोगों को टीका नहीं लगा है। अब जो संक्रमण हो रहा है, उनमें से ज्यादातर लोग वे हैं, जिन्हें अभी तक टीका नहीं लगा है। मरने वालों में करीब 90 फीसदी ऐसे लोग हैं।

वैक्सीन का विरोध

पूरे देश में कोरोना का संक्रमण तेजी से फैल रहा है। देश के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार जुलाई में नए मामलों की औसतन साप्ताहिक संख्या में 47 फीसदी की वृद्धि हुई है। जिन इलाकों में वैक्सीनेशन कम हुआ है, वहाँ बीमारी का प्रकोप ज्यादा है। देश में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो वैक्सीन के विरोधी हैं। राजनीतिक-दृष्टि से देखें तो रिपब्लिकन पार्टी के 49 प्रतिशत पुरुष समर्थक और 34 फीसदी महिला समर्थक खुद को एंटी-वैक्सर्स  मानते हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी के 14 प्रतिशत पुरुष और 6 प्रतिशत महिला समर्थक वैक्सीन-विरोधी हैं। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हालांकि टीका लगवा लिया, पर वे इस बात को  छिपाते रहे। अलबत्ता वैक्सीन-विरोधी अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं प्राकृतिक चिकित्सक डॉ जोसफ मर्कोला। वे होम्योपैथी तथा वैकल्पिक चिकित्सा के समर्थक हैं। उनके लेख सोशल मीडिया में लोकप्रिय हैं। वैक्सीन के खिलाफ जबर्दस्त ऑनलाइन अभियान है।

Tuesday, May 25, 2021

भारत-अमेरिका रिश्तों में मजबूती का दौर


विदेशमंत्री एस जयशंकर रविवार को अमेरिका के दौरे पर पहुंचे। इस दौरान वे संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुटेरेश से आज सुबह (भारतीय समय से शाम) मुलाकात करेंगे और उसके बाद वॉशिंगटन डीजी जाएंगे जहां अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से उनकी भेंट होगी। इस साल जनवरी में राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यभार संभालने के बाद भारत के किसी वरिष्ठ मंत्री का अमेरिका का यह पहला दौरा है। 1 जनवरी 2021 को भारत के संरा सुरक्षा का सदस्य बनने के बाद जयशंकर का पहला दौरा है। दौरे का समापन 28 मई को होगा।

भारत-चीन सम्बन्धों में आती गिरावट, पश्चिम एशिया में पैदा हुई गर्मी, अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और भारत-पाकिस्तान रिश्तों को लेकर कई तरह के कयासों के मद्देनज़र यह दौरा काफी महत्वपूर्ण है। इन बातों के अलावा वैश्विक महामारी और खासतौर से वैक्सीन वितरण भी इस यात्रा के दौरान महत्वपूर्ण विषय होगा। शायद सबसे महत्वपूर्ण कारोबारी मसले होंगे, जिनपर आमतौर पर सबसे कम चर्चा होती है।

कुल मिलाकर भारत-अमेरिका के बीच द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक रिश्तों का यह सबसे महत्वपूर्ण दौर है। चतुष्कोणीय सुरक्षा-व्यवस्था यानी क्वॉड ने एकसाथ तीनों आयामों पर रोशनी डाली है। दोनों देशों के बीच जो नई ऊर्जा पैदा हुई है, उसके व्यावहारिक अर्थ अब स्पष्ट होंगे। विदेशी मामलों के विशेषज्ञ सी राजा मोहन ने आज के इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अभी तक उपरोक्त तीन विषयों को अलग-अलग देखा जाता था।

भारत की वैश्विक अभिलाषाओं के खुलने और राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा ट्रंप प्रशासन के एकतरफा नजरिए को दरकिनार करने के कारण ये तीनों मसले करीब आ गए हैं। दूसरी तरफ वैश्विक मामलों में पश्चिम के विरोध की भारतीय नीति अब अतीत की बात हो गई है। अब हम यूरोपियन गठबंधन और अमेरिका के साथ हैं।

Tuesday, May 4, 2021

अमेरिकी समाज में बैठी कड़वाहट को कैसे दूर करेंगे बाइडेन?


अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की पिछले साल हुई मौत के मामले में अमेरिका की एक अदालत में पूर्व पुलिस अधिकारी डेरेक शॉविन को हत्या का दोषी माने जाने के बाद राष्ट्रपति जो बाइडेन और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने जॉर्ज फ़्लॉयड के परिवार से फोन पर बात की। बाइडेन ने टीवी पर राष्ट्र के नाम संदेश में कहा, कम से कम अब न्याय तो मिला, पर हमें अभी बहुत कुछ करना है। यह फ़ैसला सिस्टम में मौजूद वास्तविक नस्लवाद से निपटने का पहला क़दम साबित होने वाला है। सिस्टम में बैठा नस्लवाद देश के ज़मीर पर धब्बा है।

पुलिस-हिरासत में होने वाली मौतों के मामले में अमेरिकी अदालतें पुलिस अधिकारियों को बहुत कम दोषी ठहराती रही हैं। डेरेक शॉविन के इस मामले के बारे में कहा जा रहा है कि इससे पता लगेगा कि अमेरिका की विधि-व्यवस्था  भविष्य में ऐसे मामलों से किस तरह से निपटेगी। इस फ़ैसले के बाद अदालत के बाहर उत्सव का माहौल था। लोग मुट्ठियां भींचकर ‘ब्लैक पावर! ब्लैक पावर!’ चिल्ला रहे थे।

Thursday, April 15, 2021

अफगानिस्तान में शांति-स्थापना के अपने प्रयास जारी रखेगा अमेरिका: बाइडेन


अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अंततः अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी की घोषणा बुधवार को कर दी। उन्होंने कहा कि यह अफगानिस्तान में अमेरिका की सबसे लंबी लड़ाई को खत्म करने का समय आ गया है। यह ऐसी जिम्मेदारी है जिसे मैं अपने उत्तराधिकारी पर नहीं छोड़ना चाहता। उन्होंने देश के नाम अपने संबोधन में कहा कि अमेरिका इस जंग में लगातार अपने संसाधन झोंक नहीं सकता। इस घोषणा के बाद अब अफगानिस्तान को लेकर वैश्विक राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।

बाइडेन ने इस बात पर जोर दिया है कि उनका प्रशासन अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति-वार्ता का समर्थन करता रहेगा और अफगान सेना को प्रशिक्षित करने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में मदद करेगा। अब 1 मई से सेना को अफगानिस्तान से निकालना शुरू किया जाएगा, पर हम जल्दबाजी नहीं करेंगे। तालिबान को पता होना चाहिए कि अगर वे हम पर हमला करते हैं तो हम पूरी ताकत के साथ अपना और साथियों का बचाव करेंगे। उन्होंने यह भी कहाहम इस इलाके के अन्य देशों खास तौर पर पाकिस्तानरूसचीनभारत और तुर्की से और समर्थन की उम्मीद रखते हैं। अफगानिस्तान के भविष्य निर्माण में इनकी भी अहम भूमिका होगी। उनके इस बयान में तालिबान को परोक्ष चेतावनी पर ध्यान दें। साथ ही उन्होंने जिन देशों के समर्थन की आशा व्यक्त की है उसमें  ईरान का नाम नहीं है। 

Monday, February 22, 2021

महाभियोग के बाद क्या अमेरिका को फिर से ‘महान’ बनाने के अभियान में जुटेंगे ट्रंप?


महाभियोग की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अमेरिकी राजनीति पटरी पर वापस आ रही है। डेमोक्रेट और रिपब्लिकन राजनेता भविष्य की योजनाएं तैयार कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप पर चलाए गए दूसरे महाभियोग की नाटकीय परिणति ने एक तो रिपब्लिकन पार्टी के भीतर एक किस्म की दरार पैदा कर दी है, साथ ही पार्टी और ट्रंप की भावी राजनीति को लेकर कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं। सीनेट में हुए मतदान में रिपब्लिकन पार्टी के सात सदस्यों ने ट्रंप के खिलाफ वोट देकर इन सवालों को जन्म दिया है, पर इस बात की संभावनाएं बनी रह गई हैं कि राष्ट्रपति पद के अगले चुनाव में ट्रंप एकबार फिर से रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बनकर खड़े हो सकते हैं। क्या उनकी वापसी होगी?

ट्रंप के फिर से मैदान में उतरने की संभावनाएं हैं, तो यकीनन कुछ समय बाद से ही उनकी गतिविधियाँ शुरू हो जाएंगी। सीनेट के मतदान में जहाँ डेमोक्रेटिक पार्टी के सभी सदस्य एकसाथ थे, वहीं रिपब्लिकन पार्टी की दरार को राजनीतिक पर्यवेक्षक खासतौर से रेखांकित कर रहे हैं।

क्या जनता माफ करेगी?

सीनेट में मेजॉरिटी लीडर और डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य चक शूमर ने ट्रंप की आलोचना करते हुए कहा है कि अमेरिका के इतिहास में यह पहला मौका है, जब किसी राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग में इतनी बड़ी संख्या में उसकी अपनी पार्टी के सदस्यों ने वोट डाले हैं। यहाँ से वे बच निकले हैं, पर अमेरिकी जनता उन्हें माफ नहीं करेगी। अमेरिकी वोटर 6 जनवरी की घटना को भूलेगा नहीं। दूसरी तरफ इतनी विपरीत परिस्थितियों में रिपब्लिकन पार्टी के 43 सदस्यों ने ट्रंप को बचाने के लिए जो मतदान किया है, उससे लगता है कि पार्टी कमोबेश ट्रंप के साथ है। पार्टी के भीतर पैदा हुए मतभेद अब 2022 और 2024 के प्राइमरी चुनावों में दिखाई पड़ेंगे।

Monday, February 15, 2021

अमेरिका के ‘मानवीय चेहरे’ की वापसी, भारत से सहयोग जारी रहेगा

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गत 4 फरवरी को अपने विदेशमंत्री और विदेश विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच जो पहला बयान दिया है, उसे काफी लोग उनका विदेश-नीति वक्तव्य मान रहे हैं। एक मायने में वह है भी, क्योंकि उसमें उन्होंने अपनी विदेश-नीति की कुछ वरीयताओं का हवाला दिया है, पर इसे विस्तृत बयान नहीं माना जा सकता। करीब 20 मिनट के भाषण में ऐसा संभव भी नहीं है।

भारत के संदर्भ में पर्यवेक्षक कुछ बातों पर ध्यान दे रहे थे। डोनाल्ड ट्रंप ने 20 जनवरी, 2016 को शपथ लेने के बाद सबसे पहले जिन छह शासनाध्यक्षों से फोन पर बात की थी, उनमें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल थे, पर जो बाइडेन ने उनसे बात करने में कुछ देरी की। अपने राजनयिकों के सामने उन्होंने जिन पहले नौ देशों के शासनाध्यक्षों से बातचीत का हवाला दिया था, उनमें भारत का नाम नहीं था। बहरहाल उन्होंने भारत का ध्यान रखा और सोमवार 8 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी उनकी फोन-वार्ता हो गई।

इस वार्ता के बारे में प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा, मैं और राष्ट्रपति जो बाइडेन दुनिया में नियम-कानून आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पक्षधर हैं। हम हिन्द प्रशांत क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए अपनी रणनीतिक साझेदारी को और मजबूत करने की ओर देख रहे हैं। उधर ह्वाइट हाउस की ओर से जारी बयान में भी दोनों देशों के आपसी सहयोग को बढ़ाने की बात कही गई है।

इसके पहले विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन, रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन तथा सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन की भारत के क्रमशः विदेशमंत्री, रक्षामंत्री और रक्षा सलाहकार से फोन वार्ताएं हो चुकी थीं। उनकी मैत्री-कामना का संदेश भारत तक पहुँच चुका है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पाकिस्तान के साथ बाइडेन प्रशासन का इस किस्म का संवाद अभी तक नहीं हो पाया है। विदेशमंत्री ब्लिंकेन की एक शिकायती कॉल केवल पर्ल हत्याकांड के अभियुक्त की रिहाई के संदर्भ में गई है।

मित्र और प्रतिस्पर्धी

बाइडेन ने अपने वक्तव्य में कहा, ‘पिछले दो सप्ताह में मैंने अपने सबसे करीबी मित्रों से बात की।’ उन्होंने जिन देशों के नाम लिए वे हैं कनाडा, मैक्सिको, यूके, जर्मनी, फ्रांस, नेटो, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया। ये देश अमेरिका के परंपरागत मित्र हैं और उसके साथ कई तरह की संधियों से जुड़े हैं। उन्होंने अपने कुछ प्रतिस्पर्धियों के नाम भी लिए। चीन का उल्लेख उन्होंने पाँच बार किया और उसे अमेरिका का ‘सबसे गंभीर प्रतिस्पर्धी’ बताया। रूस का नाम आठ बार लिया और उसे ‘अमेरिकी लोकतंत्र को नष्ट करने पर उतारू देश’ बताया। साथ ही उन्होंने कहा कि हम इन दोनों देशों के साथ मिलकर काम करना चाहेंगे।

Saturday, January 23, 2021

क्या बदलेंगे जो बाइडेन?


डोनाल्ड ट्रंप के पराभव के साथ अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन ने तेजी से काम शुरू किया है। किसी भी बदलाव के बाद के कुछ दिन बड़े महत्वपूर्ण होते हैं, पर असली बदलाव कुछ समय बाद नजर आता है। उसके तुलनात्मक अध्ययन होते हैं। इसमें दो राय नहीं कि ट्रंप तुनुकमिजाज और बेहद अप्रत्याशित व्यक्ति हैं। पर दूसरा सच यह भी है कि उनके कार्यकाल में अमेरिका के सैनिक अभियान अपेक्षाकृत कम हुए। उन्होंने शोर ज्यादा मचाया, पर टकराव कम मोल लिए। चीन और ईरान के साथ जो टकराव उन्होंने मोल लिए हैं, वे अब खत्म हो जाएंगे, ऐसा नहीं मान लेना चाहिए। अलबत्ता वैश्विक पर्यावरण को लेकर ट्रंप की जुनूनी राजनीति ज्यादा नहीं चल सकती थी।

हमारे नजरिए से सवाल पूछा जा रहा है कि भारत के साथ अमेरिका के रिश्ते कैसे रहेंगे? इसे मामले में एक बात समझ ली जानी चाहिए कि विदेश-नीति से जुड़े मसलों में निरंतरता रहती है। यों भी जो बाइडेन भारत समर्थक माने जाते हैं। उनके कार्यकाल में भारत और अमेरिका की मैत्री प्रगाढ़ ही होगी। उसमें किसी किस्म की कमी आने के संकेत नहीं हैं। अलबत्ता नए प्रशासन की आंतरिक और विदेश नीति में काफी बड़े बदलाव देखने में आ रहे हैं। बाइडेन ने जो फैसले किए हैं, उनमें भारत को लेकर सीधे कोई बात नहीं है, पर उनके रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन ने जो कहा है, वह जरूर महत्वपूर्ण है। हमें आने वाले समय में भारत के प्रति उनकी नीति की प्रतीक्षा करनी होगी। भारत-नीति ही नहीं पाकिस्तान-नीति पर भी हमें नजरें रखनी होंगी।

Thursday, January 21, 2021

जो बाइडेन का आगमन और रिश्तों का नया दौर

 


अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के पराभव के साथ नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन ने कार्यभार संभाल लिया है और उसके साथ ही यह सवाल पूछा जा रहा है कि भारत के साथ अमेरिका के रिश्ते कैसे रहेंगे। बहरहाल शुरुआत अच्छी हुई है और संकेत मिल रहे हैं कि भारत और अमेरिका की मैत्री प्रगाढ़ ही होगी। उसमें किसी किस्म की कमी आने के संकेत नहीं हैं। अलबत्ता नए प्रशासन की आंतरिक और विदेश नीति में काफी बड़े बदलाव देखने में आ रहे हैं। जो बाइडेन ने जो फैसले किए हैं, उनमें भारत को लेकर सीधे कोई बात नहीं है, पर उनके रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन ने जो कहा है, वह जरूर महत्वपूर्ण है।

जैसा कि पहले से ही माना जा रहा था कि बाइडेन शपथ लेने के बाद डोनाल्ड ट्रंप के कुछ फैसले पलट देंगे, वैसा ही हुआ। कामकाज संभालते ही बाइडेन एक्शन में आ गए और कम से कम नए आदेश एक झटके में दे डाले। उन्होंने कई ऐसे आदेशों पर दस्तखत किए हैं, जिनकी लंबे समय से मांग चल रही थी। खासतौर से कोरोना वायरस, आव्रजन और जलवायु परिवर्तन के मामले में उनके आदेशों को अमेरिका की नीतियों में बड़ा बदलाव माना जा सकता है।

Thursday, January 14, 2021

ट्रंप पर दूसरा महाभियोग


अमेरिका के इतिहास में डोनाल्ड ट्रंप पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिनपर दो बार महाभियोग चलाया गया। बुधवार 13 जनवरी अमेरिका की प्रतिनिधि सभा ने 232-197 के बहुमत से उनके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव पास कर दिया। यह महाभियोग गत 6 जनवरी को देश की संसद कैपिटल हिल पर हुए हमलों को भड़काने के आरोप में लगाया गया है। हालांकि इस प्रस्ताव के आधार पर ट्रंप को हटाया नहीं जा सकेगा, पर इसका सांकेतिक महत्व है। महत्व इस बात का भी है कि इस प्रस्ताव के पक्ष में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के 10 सदस्यों ने भी वोट दिया।  

तकनीकी दृष्टि से इस प्रस्ताव को अब सीनेट के सामने जाना चाहिए, जहाँ यदि दो तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पास हो तभी ट्रंप को हटाया जा सकेगा। यह काम 20 जनवरी के पहले संभव नहीं है। पहली बात सीनेट सी बैठक स्थगित है और वहाँ रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है, जिसके नेता मिच मैकॉनेल ने सीनेट का विशेष सत्र बुलाने से इनकार कर दिया है।



पूरा विवरण पढ़ें यहाँ

 

Sunday, January 10, 2021

ट्रंप की हिंसक विदाई से उठते सवाल

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पहचान सिरफिरे व्यक्ति के रूप में जरूर थी, पर यह भी लगता था कि उनके पास भी मर्यादा की कोई न कोई रेखा होगी। उनकी विदाई कटुता भरी होगी, इसका भी आभास था, पर वह ऐसी हिंसक होगी, इसका अनुमान नहीं था। हालांकि ऐसा कहा जा रहा था कि वे हटने से इनकार कर सकते हैं। उन्हें हटाने के लिए सेना लगानी होगी वगैरह। पर लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं होता था।

बहरहाल वैसा भी नहीं हुआ, पर उनके कार्यकाल के दस दिन और बाकी हैं। इन दस दिनों में क्या कुछ और अजब-गजब होगा? क्या ट्रंप को महाभियोगके रास्ते निकाला जाएगा? क्या संविधान के 25वें संशोधन के तहत कार्रवाई की जा सकेगी? क्या उनपर मुकदमा चलाया जा सकता है? क्या उनकी गिरफ्तारी संभव है? ऐसे कई सवाल सामने हैं, जिनका जवाब समय ही देगा। अलबत्ता इतना स्पष्ट है कि ट्रंप पर महाभियोग चलाया भी जाए, तो उन्हें 20 जनवरी से पहले हटाया नहीं जा सकेगा, क्योंकि सीनेट की कार्यवाही 19 जनवरी तक स्थगित है। संशोधन 25 के तहत कार्रवाई करने के लिए उपराष्ट्रपति माइक पेंस और मंत्रिपरिषद को आगे आना होगा, जिसकी संभावना लगती नहीं। दूसरी तरफ यह भी नजर आ रहा है कि ट्रंप की रीति-नीति को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के भीतर दरार पैदा हो गई है। फिर भी  कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अमेरिकी लोकतांत्रिक संस्थाएं दुखद स्थिति पर नियंत्रण पाने में सफल हुईं।

Thursday, January 7, 2021

राष्ट्रपति पद से ट्रंप की हिंसक विदाई

 


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी पराजय को हिंसक मोड़ देकर लोकतांत्रिक इतिहास में अपना नाम सिरफिरे व्यक्ति के रूप में दर्ज करा लिया है। उन्होंने बुधवार 6 जनवरी को अपने समर्थकों को भड़काकर जिस तरह से उन्हें अमेरिकी संसद भवन कैपिटल बिल्डिंग में प्रवेश करने को प्रेरित किया, उस तरह के उदाहरण अमेरिकी इतिहास में बहुत कम मिलते हैं। भीड़ को रोकने के प्रयास में हुई हिंसा में कम से कम चार लोगों की मौत होने का समाचार है।

अमेरिकी कैपिटल बिल्डिंग के चारों तरफ़ सड़कों पर पुलिस दंगे की आशंका को लेकर तैनात है। वॉशिंगटन की मेयर ने पूरी रात के लिए कर्फ़्यू लगा दिया है। वॉशिंगटन पुलिस के प्रमुख का कहना है कि स्थानीय समय के हिसाब से रात साढ़े नौ बजे तक 52 लोग गिरफ़्तार किए जा चुके हैं। चार लोगों को बिना लाइसेंस पिस्तौल रखने के लिए, एक को प्रतिबंधित हथियार रखने के लिए और 47 को कर्फ़्यू उल्लंघन और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से घुसने के लिए। दो पाइप बम भी मिले हैं। एक कैपिटल बिल्डिंग के पास डेमोक्रेटिक नेशनल कमिटी दफ़्तर से और एक रिपब्लिकन नेशनल कमिटी के मुख्य दफ़्तर से।