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Sunday, August 18, 2019

राष्ट्रीय संकल्पों का आह्वान


नरेंद्र मोदी के विरोधी भी मानते हैं कि वे संवाद-शिल्प के धनी हैं और अपने श्रोताओं को बाँधने में कामयाब है। सन 2014 में जब उन्होंने लालकिले से प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अपना पहला भाषण दिया था, तब पिटे-पिटाए भाषणों की परम्परा तोड़ कर जनता सीधा संवाद किया था। उसका केंद्रीय संदेश था कि राष्ट्रीय चरित्र बनाए बगैर देश नहीं बनता। स्वतंत्रता के 68 साल में वह पहला स्वतंत्रता दिवस संदेश था, जो उसे संबोधित था जो देश का निर्माता है। देश बनाना है तो जनता बनाए और दुनिया से कहे कि भारत ही नहीं हम दुनिया का निर्माण करेंगे। राष्ट्र-निर्माण की वह यात्रा जारी है, जो उनके इस साल के भाषण में खासतौर से नजर आती है। इसमें तमाम ऐसी बातें हैं, जो छोटी लग सकती हैं, पर राष्ट्र-निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
सबसे बड़ी बात है कि यह भाषण देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति की परम्परागत शब्दावली से मुक्त है। एक तरफ आप अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के राष्ट्र नेताओं के भाषण सुनें, तो उन्मादी बातों से भरे पड़े हैं, वहीं इस भाषण में ज्यादातर बातें रचनात्मक हैं। कांग्रेसी नेता पी चिदंबरम, मोदी के मुखर आलोचकों में से एक हैं। उन्होंने भी इस भाषण की तारीफ की है। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा, प्रधानमंत्री की तीन घोषणाओं का सभी को स्वागत करना चाहिए। ये तीन बातें हैं छोटा परिवार देशभक्ति का दायित्व है, वैल्थ क्रिएटर्स का सम्मान और प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक।

Saturday, August 17, 2019

सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए…


किसी देश का गौरव किन बातों पर निर्भर करता है? दूसरे शब्दों में पूछें, तो वे कौन सी बातें हैं, जिन्हें लेकर दुनिया हमें तारीफ भरी नजरों से देखती है? आमतौर पर हम अपने राष्ट्रीय दिवसों यानी 15 अगस्त और 26 जनवरी को इन गौरव-अनुभूतियों से ओत-प्रोत होते हैं। क्यों होते हैं? साल का कोई ऐसा दिन नहीं होता, जब हमारा नकारात्मक बातों से सामना न होता हो। अपराध, भ्रष्टाचार, बेईमानी, साम्प्रदायिकता वगैरह-वगैरह का बोलबाला है। तब फिर हम किस बात पर गर्व करें?
राष्ट्रीय पर्व ऐसे अवसर होते हैं जब लाउड स्पीकर पर देशभक्ति के गीत बजते हैं। क्या वास्तव में हम देशभक्त हैं? क्या हम जानते हैं कि देशभक्त माने होता क्या है? ऐसे ही सवालों से जुड़ा सवाल यह है कि आजाद होने के बाद पिछले 72 साल में हमने हासिल क्या किया है? कहीं हम पीछे तो नहीं चले गए हैं?
सवाल पूछने वालों से भी सवाल पूछे जाने चाहिए। निराशा के इस गंदे गटर को बहाने में आपकी भूमिका क्या रही है? ऐसे सवाल हमें कुछ देर के लिए विचलित कर देते हैं। यह भावनात्मक मामला है। भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए 72 साल काफी नहीं होते। खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका था।
अधूरी कहानी…
आजादी के ठीक दस साल बाद रिलीज हुई थी महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया।’ यह फिल्म उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं और 15 अगस्त को कुछ चैनलों पर दिखाई जाती है। यह फिल्म देशभक्ति की थीम पर नहीं है, बल्कि एक जमाने के सामाजिक यथार्थ पर आधारित फिल्म है। शायद भारत के गाँवों में अब सुक्खी लाला नहीं हैं। शायद ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी)’ जैसी स्कीमों, जन-धन और मुद्दा जैसी योजनाओं और मनरेगा जैसे कार्यक्रमों ने कहानी को काफी बदल दिया है, पर कहानी अभी अधूरी है।