पाँच राज्यों के चुनाव अंतिम दौर में हैं। पिछले 75 वर्ष में राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है और चुनाव उसके महोत्सव। स्वतंत्र चुनाव-व्यवस्था हमारी उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर ‘चुनावी हथकंडे’ इस उपलब्धि पर पानी फेरते हैं। हाल में सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया है कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश दें, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया है कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए।
वायदों की बौछार
इन चुनावों से पहले घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं
में लोकलुभावन तोहफों के वायदों की भरमार है। कोई 300 यूनिट बिजली मुफ्त में दे
रहा है और कोई 400 यूनिट, युवाओं को लैपटॉप से लेकर स्कूटी तक देने के वायदे हैं।
किसानों को कर्जे माफ करने की घोषणाएं हैं, तमिलनाडु में जैसी अम्मा कैंटीनें खुली
थीं, वैसी ही सस्ते भोजन की कैंटीनें और सस्ते किराना स्टोर खोलने का वायदा है।
कोई पाँच लाख नए रोजगार देने का वायदा कर रहा है, तो दूसरा बीस लाख। रोजगार के अलावा, बेरोजगारी
भत्ता, पेंशन योजना, कन्याधन, बसों में मुफ्त यात्रा जैसे वायदे हैं। एक नेता ने
कहा कि हमारी सरकार आई, तो मोटर साइकिल पर तीन सवारी ले जाने वालों का चालान नहीं
होगा।
सस्ता अनाज
वायदों के
व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने
1967 में वायदा किया था कि 1 रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने
वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ
पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का
वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल
बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते
अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा
खुला तो खुलता ही चला गया।
रंगीन टीवी
सन 2006 में द्रमुक के
एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम
बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था,
जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को
भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से
लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय
रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से
चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल
किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की
थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।
पद और मर्यादा
इस चुनाव के दौरान और उसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने पद पर रहते हुए राजनीतिक बयान देने के आरोप लगे हैं। संसद के बजट अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और नेहरू का नाम कई बार लिया। इसपर कांग्रेस पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। राज्यसभा में तो उनके बोलने के बाद कांग्रेस सांसदों ने वॉकआउट कर दिया। विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। पर क्या संसदीय-कर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है? राजनीतिक-कर्म की मर्यादा रेखा होनी चाहिए, पर उसे तय कौन करेगा? राजनीति संसद से सड़क तक जाती है, पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते।