चौसठवां स्वतंत्रता दिवस भी वैसा ही रहा जैसा होता रहा है। प्रधानमंत्री का रस्मी भाषण, ध्वजारोहण, देश भक्ति के गीत वगैरह -वगैरह। इधर एसएमएस भेजने का चलन बढ़ा है। बधाई देने की रस्म अदायगी बढ़ी है। यह दिन क्या हमको कुछ सोचने का मौका नहीं देता? अच्छा या बुरा क्या हो रहा है यह सोचने को प्रेरित नहीं करता?
जिससे पूछिए वह निराश मिलेगा। देश से, इसके नेताओं से, अपने आप से। क्या हमारे पास खुश होने के कारण नहीं हैं? हमने कुछ भी हासिल नहीं किया? बहरहाल मैं गिनाना चाहूगा कि हमने क्या हासिल किया। क्या खोया, उसे मैं क्या गिनाऊं। तमाम लोग गिना रहे हैं।
इस गिनाने को मैं पहली उपलब्धि मानता हूँ। हम लोग अपनी बदहाली को पहचानने तो लगे हैं। हम क्या खो रहे हैं, यह समझने लगे हैं। शिक्षा और संचार के और बेहतर होने पर हम और शोर सुनेंगे। यह खोना नहीं पाना है। ये लोग जवाब माँगेंगे। आज नहीं माँगते हैं तो कोई बात नहीं कल माँगेंगे।
हमारी प्रतिरोध-प्रवृत्ति बढ़ी है। इस बात का रेखांकित होना उपलब्धि है।
राज-व्यवस्था जनता से दूर होने लगी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी चीजों से भाग रही है। भाग कर कहाँ जाएगी। जनता उसे खींचकर मैदान में ले आएगी। शिक्षा अगर स्कूल में नहीं मिली तो अशिक्षा हमें आगे बढ़ने से रोकेगी। यह चक्र थोड़ा लम्बा चलेगा, पर राज-व्यवस्था अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं पाएगी।
टेलीकम्युनिकेशंस का फायदा बिजनेस वालों से ज्यादा जनता को मिलेगा। सारा देश जुड़ रहा है। जानकारियाँ बहुत जल्द यात्रा करतीं हैं। जानकारियाँ देने वाले यानी मीडियाकर्मी बहुत ज्यादा समय तक मसाला-चाट खिलाकर नहीं चलेंगे। दो-चार साल यह भी सही।
जनसंख्या बढ़ रही है। जागरूक जनसंख्या बढ़ रही है। अब ढोर-डंगर नहीं जागरूक नागरिक बढ़ रहे हैं। वे सवाल पूछेंगे। निराशा की कोई सीमा होती है। हमें अपनी निराशा का सहारा लेना चाहिए। इस निराशा से लड़कर ही तो आप उम्मीदों के पर्वतों को जीतेंगे।
पर ये उम्मीदें तब तक पूरी नहीं होंगी, जब तक आप अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करेंगे।
क्या आप जागरूक नागरिक हैं?
क्या आप अपनी शिकायत शिकायतघर में करते हैं?
क्या आप रिश्वत देने के बजाय रिश्वत लेने वाले की गर्दन दबोचना पसंद करते हैं?
क्या आप चार पेड़ कहीं लगाकर उन्हें पानी देते हैं, किसी गरीब बच्चे को पढ़ाते हैं?
छोटे काम कीजिए बड़े काम अपने आप हो जाएंगे। आप कमज़ोर नहीं ताकतवर हैं।