यूट्यूब-पत्रकारिता ने अभिव्यक्ति और सूचना के द्वार खोले हैं। अनेक पत्रकारों के चैनल सामने आए हैं। खबरों और विचार से ही नहीं जीवन के सभी क्षेत्रों से जुड़े चैनल सामने आ रहे हैं। यह बहुत अच्छा है और इससे बहुत सी नई बातों को सामने आने का मौका मिल रहा है। जीवन, समाज, संस्कृति, पर्यटन, खान-पान जैसे तमाम विषयों पर बहुत अच्छी बातें डिजिटल मीडिया के मार्फत दिखाई पड़ रही हैं। स्थानीय स्तर पर ऐसी जगहों से खबरें आ रहीं हैं, जहाँ मुख्यधारा के पत्रकार तैनात नहीं होते हैं।
बावजूद इसके मुझे विचार और अभिव्यक्ति को लेकर एक खतरा दिखाई पड़ रहा है। वह खतरा हर जगह है और यूट्यूब पर और ज्यादा है। आप फेसबुक पर भी देखें। कई तरह के खेमे हैं। वे खेमों में ही यकीन करते हैं। संतुलित राय में बहुत कम लोगों की दिलचस्पी है। हाँ प्रचार के लिए सत्य-निष्ठा और ऑब्जेक्टिविटी जैसे शब्दों का इस्तेमाल सभी करते हैं और इससे कोई किसी को रोक नहीं सकता।
बहरहाल यह व्यक्तियों की प्राथमिकता पर निर्भर करता है कि वे किस राय को चुनते हैं, पर खेमेबाज़ी किस तरह विचार को प्रभावित करती है, इसे आप यूट्यूब पर देखें। यूट्यूब पर विज्ञापन दो आधार पर मिलते हैं। एक, आपके सब्स्क्राइबर कितने हैं और दूसरे आपके वीडियो को कितने लोगों ने देखा। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि यूट्यूब पर आप किसी राजनीतिक, व्यावसायिक या किसी अन्य प्रकार के समूह से जुड़ें, और उसके लिए काम करें। सफलता की सम्भावनाएं तभी ज्यादा हैं।
एक जमाने में चुनाव के एक- दो महीने पहले से छोटे-छोटे अखबार निकलने लगते थे। वैसा ही है। यह वही प्रचारक-पत्रकारिता है, जिसे लेकर मेरे मन में मुख्यधारा की पत्रकारिता को लेकर पहले से अंदेशा है। मूल्यों का यह अंतर्विरोध भारत में सदा से रहा है। मेरे पास विदेशी पत्रकारिता का अनुभव नहीं है। अलबत्ता कुछ प्रसंग जरूर याद हैं, जब पत्रकारिता की मूल्य-बद्धता की परीक्षा हुई। ऐसी ही परीक्षा भारत में भी हुई है। चूंकि 1947 के पहले की हमारी पत्रकारिता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही, इसलिए बहुत सी बातें उसमें ही छिपी रह गईं।