प्रधानमंत्री की छोटी सी, लेकिन बेहद सफल विदेश-यात्रा ने भारत और यूरोप के बीच सम्बंधों को नई दिशा दी है। वह भी ऐसे मौके पर, जब यूरोप संकट से घिरा है और भारत के सामने रूस और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने की दुविधा है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारत और यूरोप के रिश्ते असमंजस से भरे रहे हैं। एक अरसे से उम्मीद की जा रही थी कि असमंजस का यह दौर टूटेगा। अब पहली बार लग रहा है कि भारत ने यूरोप के साथ बेहतरीन रिश्तों की आधार-भूमि तैयार कर ली है। आर्थिक-राजनीतिक सहयोग, तकनीकी और वैज्ञानिक रिश्तों और भारत के सामरिक हितों के नजरिए से नए दरवाजे खुले हैं। इस घटनाक्रम के समांतर हमें रूस पर लग रही पाबंदियों के प्रभाव को भी समझना होगा। यूक्रेन का युद्ध अभी तार्किक-परिणति पर नहीं पहुँचा है। फिलहाल लगता है कि यूक्रेन एक विभाजित देश के रूप में बचेगा। यहाँ से वैश्विक-राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।
यूक्रेन पर नजरिया
इस यात्रा का दूसरा पहलू यह है कि भारत ने
यूक्रेन युद्ध के बाबत अपनी दृष्टि को यूरोपीय देशों के सामने सफलता के साथ स्पष्ट
किया है और यूरोप के देशों ने उसे समझा है। भारत ने यूक्रेन पर रूस के हमले की
स्पष्ट शब्दों में निंदा नहीं की है, पर परोक्ष रूप
से इस हमले को निरर्थक और अमानवीय भी माना है। अंदेशा था कि यूरोप के देश इस बात
को पसंद नहीं करेंगे, पर इस पूरी यात्रा के दौरान भारत और
यूरोपीय देशों ने एक-दूसरे के हितों को पहचानते हुए, असहमतियों
के बिंदुओं को रेखांकित ही नहीं किया। साथ ही इस युद्ध से जुड़े मानवीय पहलुओं को
लेकर आपसी सहयोग की सम्भावनाओं को रेखांकित किया।
दबाव कम हुआ
भारत ने स्पष्ट किया है कि हम तीनों पक्षों
अमेरिका, यूरोप और रूस के साथ बेहतर संबंध चाहते है। किसी
एक को नजरंदाज नहीं करेंगे। अभी तक यूरोपीय देशों की तरफ़ से भारत पर दबाव था,
पर अब माना जा रहा है कि यूरोपीय देश यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत की
नीति को समझ गए हैं। अब उन्होंने ये कहना
शुरू कर दिया है कि भारत रूस पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे ताकि रूस की तरफ़ से
युद्ध को समाप्त करने के लिए बात शुरू हो। यूक्रेन युद्ध पर भारत की दृष्टि यूरोप
से अलग है। हमें यह भी स्पष्ट करना है कि हम रूस का साथ छोड़ेंगे नहीं। हमें
रक्षा-सामग्री के लिए उसकी जरूरत है। अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय रहने और चीन को
काउंटर करने के लिए भी हमें रूस के साथ रहना होगा। यदि हम रूस का साथ छोड़ देंगे,
तब रूस-चीन गठजोड़ पूरा हो जाएगा।
स्वतंत्र विदेश-नीति
भारत की स्वतंत्र विदेश-नीति से जुड़ी बातें भी अब स्पष्ट हो रही हैं। पिछले 75 वर्षों में भारत ने कमोबेश वैश्विक घटनाचक्र से एक दूरी बनाकर रखी, पर अब वह भागीदार बनकर उभर रहा है। शीतयुद्ध के बाद भारत ने चीन और रूस के सम्भावित गठजोड़ के साथ जुड़ने का प्रयास भी किया, पर पिछले दो वर्षों में इस नीति पर भी गहन विचार हुआ है। अब हम अमेरिका, यूरोप और रूस-चीन के साथ विकसित होती बहुध्रुवीय दुनिया में स्वाभाविक पार्टनर के रूप में उभर कर आ रहे हैं। यूरोप के देशों ने भारत के आर्थिक-विकास में भागीदार बनने का इरादा जताया है। प्रधानमंत्री मोदी ने यूरोप में रह रहे भारतीयों के साथ रोचक-संवाद किया और उन्हें जिम्मेदारी दी कि वे दुनिया और भारत के बीच सेतु का काम करें। पहली बार यह बात भी सामने आ रही है कि भारत की सॉफ्ट-पावर में बड़ी भूमिका भारतवंशियों की है, जो दुनियाभर में फैले हैं और अच्छी स्थिति में हैं।