कोविड-19 ने इनसान के सामने मुश्किल चुनौती खड़ी की है, जिसका जवाब खोजने में समय लगेगा। कोई नहीं कह सकता कि इस वायरस का जीवन-चक्र अब किस जगह पर और किस तरह से खत्म होगा। बेशक कई तरह की वैक्सीन सामने आ रहीं हैं, पर वैक्सीन इसका निर्णायक इलाज नहीं हैं। इस बात की गारंटी भी नहीं कि वैक्सीन के बाद संक्रमण नहीं होगा। यह भी पता नहीं कि उसका असर कितने समय तक रहेगा।
महामारी से सबसे
बड़ा धक्का करोड़ों गरीबों को लगा है, जो प्रकोपों का पहला निशाना बनते हैं। अफसोस
कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर देख रही दुनिया अपने भीतर की गैर-बराबरी और
अन्याय को नहीं देख पा रही है। इस महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति दुनिया
के पाखंड का पर्दाफाश किया है।
नए दौर की नई
कहानी
सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में शुरू हुआ था। फिर नब्बे के दशक में दुनिया ने पूँजी के वैश्वीकरण और वैश्विक व्यापार के नियमों को बनाना शुरू किया। इस प्रक्रिया के केंद्र में पूँजी और कारोबारी धारणाएं ही थीं। ऐसे में गरीबों की अनदेखी होती चली गई। हालांकि उस दौर में वैश्विक गरीबी समाप्त करने और उनकी खाद्य समस्या का समाधान करने के वायदे भी हुए थे, पर पिछले चार दशकों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।