भारतीय टीम की हार मुझे भी अच्छी नहीं लगी। मैं
भी चाहता हूँ कि हमारी टीम जीते। खेल के साथ राष्ट्रीय भावना भी जुड़ती है, पर मैं
अच्छा खेलने वालों का भी प्रशंसक हूँ,
भले ही वे हमारी
टीम के खिलाड़ी हों या किसी और टीम के। खराब खेलकर हमारी टीम जीते, ऐसा मैं नहीं
चाहता। पर टी-20 विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता में रविवार 24 अक्तूबर को भारत की
हार के बाद मिली प्रतिक्रियाओं को देखने-सुनने के बाद चिंता हो रही है कि खेल को
अब हम खेल के बजाय किसी और नजरिए से देखने लगे हैं।
यह विषयांतर है, पर मैं उसे यहाँ उठाना
चाहूँगा। बहुत से लोगों के मन में सवाल आता है कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के उभार के
पीछे वजह क्या है? क्या वजह है कि हम जिस गंगा-जमुनी संस्कृति और
समरसता की बातें सुनते थे, वह लापता होती जा रही है? जो बीजेपी के राजनीतिक उभार को पसंद नहीं करते उनके जवाब घूम-फिरकर
हिन्दू-साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित होते हैं। उस साम्प्रदायिकता को पुष्टाहार
कहाँ से मिलता है, इसपर वे ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे भारतीय इतिहास, मुस्लिम और
अंग्रेजी राज तथा राष्ट्रीय आंदोलन वगैरह को लेकर लगभग एक जैसी बातें बोलते हैं।
दूसरी तरफ बीजेपी-समर्थकों के तर्क हैं, जो घूम-फिरकर दोहराए जाते हैं, पर नई
घटनाएं उनके क्षेपक बनकर जुड़ी जाती हैं।
मुझे तमाम बातें अर्ध-सत्य लगती हैं। खेल के
मैदान, साहित्य, संस्कृति, संगीत समेत जीवन के हर क्षेत्र में निष्कर्ष एकतरफा
हैं। इतिहास के पन्ने खुल भी रहे हैं, तो इन एकतरफा निष्कर्षों को समर्थन मिल रहा
है। अफगानिस्तान में तालिबान की विजय और उसके बाद भारत सरकार की नीतियों,
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के फैसले, नागरिकता कानून,
शाहीनबाग आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर खीरी की हिंसा, डाबर का विज्ञापन और
शाहरुख खान के बेटे की गिरफ्तारी सब कुछ इसी नजर से देखा जा रहा है। मीडिया की कवरेज और उनमें होने वाली बहसों की भाषा और तथ्यों की तोड़मरोड़ से बातें कहीं से कहीं पहुँच जाती हैं। टी-20 क्रिकेट
भी इसी नजरिए का शिकार हो रहा है।
बहरहाल आप क्रिकेट देखें और इस घटनाक्रम पर
विचार करें। सम्भव हुआ, तो इस चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास करूँगा। फिलहाल
क्रिकेट के इस घटनाक्रम पर मैं कुछ बातें स्पष्ट करना
चाहूँगा:
1.हमारी टीम एक मैच हारी है, टूर्नामेंट से
बाहर नहीं हुई है। हो सकता है कि हमें पाकिस्तान के साथ फिर खेलने का मौका मिले। हो
सकता है कि दोनों देश फाइनल में हों। हम यह प्रतियोगिता नहीं भी जीते, तब भी
भविष्य की प्रतियोगिताएं जीतने का मौका है। इस हार से टीम ने कुछ सीखा हो, तभी
अच्छा है।
2.टीम के कप्तान या किसी भी खिलाड़ी को कोसना
गलत है। टीम जीत जाए, तो जमीन-आसमान एक करना और हार जाए, तो रोना नासमझी है। खासतौर
से उनका विलाप कोई मायने नहीं रखता, जिन्हें खेल की समझ नहीं है।
3.इसके विपरीत जो लोग भारतीय टीम को भारतीय
जनता पार्टी की टीम मानकर चल रहे हैं, वे भी गलत हैं। यह दृष्टि-दोष है। मीडिया की
अतिशय कवरेज और कुछ खेल के साथ जुड़े देश-प्रेम के कारण ऐसा हुआ है। पर इस हार पर
खुशी मनाने का भी कोई मतलब नहीं है।
4.हो सकता है लोग कहें, हम खुशी नहीं मना रहे
हैं, केवल भक्तों का मजाक बना रहे हैं, उनकी प्रतिक्रिया भी मुझे समझ में नहीं
आती। ऐसे वीडियो सोशल मीडिया में आए हैं, खासतौर से कश्मीर और पंजाब के
शिक्षा-संस्थानों के जिनमें पाकिस्तानी टीम की विजय के क्षणों पर खुशी का माहौल
नजर आता है। पर क्या यह राजद्रोह है? इस किस्म की प्रतिक्रियाओं की विपरीत
प्रतिक्रिया होती है, जो ‘अतिशय या आक्रामक-राष्ट्रवाद’ को जन्म देती
हैं।
5.इस परिणाम पर हर्ष या विषाद के बजाय जिस तरह
से साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ हुईं, वे चिंताजनक हैं। मोहम्मद शमी को निशाना बनाने
वाले ट्रोल नहीं जानते कि वे इतनी गलत बात क्यों बोल रहे हैं। अच्छा हुआ कि शमी के
पीछे देश के तकरीबन ज्यादातर सीनियर खिलाड़ियों ने ट्वीट जारी किए।
6.क्या वास्तव में शमी को ट्रोल किया गया? चर्चा इस बात की भी है कि सोशल मीडिया
पर कुछ ऐसे हैंडलों ने इस ट्रोलिंग को शुरू किया, जो पाकिस्तान से संचालित होते
हैं। ऐसा क्यों किया होगा? ताकि भारत में हिन्दू-मुस्लिम विभाजन बढ़े।
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बरखा दत्त ने 25 अक्तूबर को 9.46 पर यह ट्वीट किया। क्या इसके पहले या इसके बाद शमी को ट्रोल करते हुए आपने ट्वीट देखे थे? |