महीनों की बातचीत और गहमागहमी के बाद भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच समझौता नहीं हुआ और मुकाबला तिकोना होकर रह गया. यह स्थिति दोनों पार्टियों के खिलाफ और बीजेपी के पक्ष में है. इस तरह से बीजेपी-विरोधी मोर्चे के अंतर्विरोधों का निर्मम सत्य दिल्ली में खुलकर सामने आया है. जब आप दिल्ली में बीजेपी के खिलाफ एक नहीं हो सकते, तो शेष देश में क्या होंगे?
दिल्ली का प्रतीकात्मक महत्व है. यहाँ सीधा मुकाबला होने पर राष्ट्रीय राजनीति में एक संदेश जाता, जिसकी अलग बात होती. दिल्ली के परिणामों का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति में देखने को मिलता और अब मिलेगा.
वह कौन सी जटिल गुत्थी थी, जो दिल्ली में सुलझ नहीं पाई? आखिर क्या बात थी कि दोनों का गठबंधन नहीं हुआ? कांग्रेस कुछ पीछे हटती या ‘आप’ कुछ छूट देती, तो क्या समझौता सम्भव नहीं था?
अधकचरी समझ
लगता है कि दोनों तरफ परिपक्वता का अभाव है. पिछले कई महीनों से दोनों तरफ से ट्विटर-संवाद चल रहा था. कभी इसका ‘यू टर्न’ कभी उसका. कभी इसके दरवाजे खुले रहते, कभी उसके बंद हो जाते. पता नहीं आपस में बैठकर बातें करते भी थे या नहीं. दोनों तरफ से क्या असमंजस थे कि ऐन नामांकन तक भ्रम बना रहा? लगता है कि किसी निश्चय पर पहुँचे बगैर बातें हो रहीं थीं.
यूपी में सपा-बसपा और बिहार में बीजेपी-जेडीयू तथा महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना के गठबंधनों पर गौर करें, तो पाएंगे कि इन पार्टियों ने समय रहते न केवल गठबंधन किए, बल्कि किसी न किसी ने एक कदम पीछे खींचा. बीजेपी ने बिहार में अपनी जीती सीटों को छोड़ा, तो यह उसकी समझदारी थी. राजनीति में देश-काल के अनुसार ही फैसले होते हैं.