Thursday, February 24, 2011

भारत के टाइम्स की खबर छापी मर्डोक के संडे टाइम्स ने

भारत की पेड न्यूज़ धोखाधड़ी (India's dodgy 'paid news' phenomenon) शीर्षक से लंदन के प्रतिष्ठित अखबार गार्डियन के लेखक रॉय ग्रीनस्लेड ने अपने व्लॉग में टाइम्स ऑफ इंडिया के पेड न्यूज़ प्रकरण को उठाया है। उन्होंने संडे टाइम्स में प्रकाशित एक रपट के आधार पर यह लिखा है, यह याद दिलाते हुए कि भारत सरकार ने पेड न्यूज़ की भर्त्सना की है। पिछले साल प्रेस काउंसिल ने इस मामले की जाँच भी की थी, जिसकी रपट काफी काट-छाँट कर जारी की गई थी। 


बावजूद इसके टाइम्स ऑफ इंडिया में रकम लेकर मन पसंद सम्पादकीय सामग्री का प्रकाशन सम्भव है। पेड न्यूज़ की परिभाषा बड़ी व्यापक है। इसमें गिफ्ट लेने से लेकर मीडिया हाउस और कम्पनियों के बीच प्रचार समझौते भी शामिल हैं। यह समझौते शेयर ट्रांसफर के रूप में होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों की मन पसंद पब्लिसिटी के बदले अखबारों ने पैसा लिया, ऐसी शिकायतें थीं।

Wednesday, February 23, 2011

बीबीसी हिन्दी रेडियो को बचाने की अपील


बीबीसी की हिन्दी सेवा को बचाने के प्रयास कई तरफ से हो रहे हैं। एक ताज़ा प्रयास है लंदन के अखबार गार्डियन में छपा पत्र जिसपर भारत के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के हस्ताक्षर हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा को देश के गाँवों तक में सुना जाता है। तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर यह सेवा हमारी जनता की खबरों का स्रोत बनी। इसकी हमें हमेशा ज़रूरत रहेगी।

लड़कियों की मदद करें



गिरिजेश कुमार ने इस बार लड़कियों के विकास और उनके सामने खड़ी समस्याओं को उठाया है। मेरे विचार से भारतीय समाज में सबसा बड़ा बदलाव स्रियों से जुड़ा है। यह अभी जारी । दो दशक पहले के और आज के दौर की तुलना करें तो आप काफी बड़ा बदलाव पाएंगे। लड़कियाँ जीवन के तकरीबन हर क्षेत्र में आगे आ रहीं हैं। शिक्षा और रोजगार में जैसे-जैसे इनकी भागीदारी बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें बेहतर परिणाम मिलेंगे। बावजूद इसके पिछले नवम्बर में जारी यूएनडीपी की मानव विकास रपट के अनुसार महिलाओं के विकास के मामले में भारत की स्थित बांग्लादेश और पाकिस्तान से पीछे की है। हम अफ्रीका के देशों से भी पीछे हैं। इसका मतलब यह कि हम ग्रामीण भारत तक बदलाव नहीं पहुँचा पाए हैं। बदलाव के लिए हमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक सोच में बदलाव भी करना होगा। 

आधुनिकता की इस दौड में कहाँ हैं लड़कियां?
गिरिजेश कुमार
आज के इस वैज्ञानिक युग में जहाँ हम खुद को चाँद पर देख रहे हैं वहीँ इस 21 वीं शताब्दी की कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे  देश में  लडकियों के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है | आखिर हम किस युग में जी रहे हैंआधुनिकता की चादर ओढ़े इस देश में आधुनिकता कम फूहड़ता ज्यादा दिखती है किस आधुनिकता  की दुहाई देते हैं हम जब देश की आधी आबादी इससे वंचित है?

Tuesday, February 22, 2011

ऊपर से आने का, नीचे दबाने का...पेप्सी आहा

पेप्सी का यह कैम्पेन खासा लोकप्रिय हो रहा है। आपको यह कैसा लगा? फूहड़, रोचक , रचनात्मक या कुछ और? इसके लोकप्रिय होने की कोई वजह होगी। क्या है वह वजह? बेहतर हो कि हम लोकप्रियता की संस्कृति और उसके सामाजिक संदर्भों पर भी बात करें। इसकी भर्त्सना करना आसान है, पर क्या हम इसकी उपेक्षा कर सकते हैं? 

पेप्सी का कैम्पेन चेंज द गेम।

ऊपर से आने का

नीचे दबाने का

पीछे उठाने का हा..

हा...हा...हा

Monday, February 21, 2011

पीनट्स की जीवन दृष्टि



मेरे पास एक मेल आया था, जिसे पोस्ट कर रहा हूँ। एक सामान्य सी बात बताने के लिए कि लोग उसे याद रखते हैं जो उनके जीवन पर असर डालता है। बाकी बातें हवाई हैं
The CharlesSchulz Philosophy



cid:X.MA1.1288015315@aol.com

Sunday, February 20, 2011

बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?


ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।  

जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश 
गिरिजेश कुमार



“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |

Saturday, February 19, 2011

अब ऑनलाइन वोटिंग के बारे में विचार करें

लखनऊ से श्री यशवंत माथुर ने मेरे पास एक लेख भेजा है ऑनलाइन वोटिंग पर। हालांकि हमारे देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से मतदान हो रहा है। उसे लेकर कुछ आपत्तियाँ भी हैं, पर उसका फायदा साफ देखने को मिला है। 


ऑनलाइन वोटिंग का मतलब है इंटरनेट या किसी दूसरे ज़रिए से वोटिंग। इसमें दिक्कत कुछ भी नहीं है। इस तरीके का इस्तेमाल अब काफी हो रहा है। पिछले दिनों आपने दुनिया के सात आश्चर्यों के बारे में फैसला ऑनलाइन वोटिंग से होता देखा। भारत के रियलिटी शो एसएमएस से वोटिंग कराते हैं। हम इनकम टैक्स रिटर्न जब ऑनलाइन भर सकते हैं तब वोट देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। असली दिक्कत हार्डवेयर की है। अभी न तो उतने नेट कनेक्शन हैं और न उतनी अच्छी ब्रॉडबैंड सेवाएं।

Friday, February 18, 2011

एस्बेस्टस कारखाना

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में लग रहे एस्बेस्टस कारखाने के विरोध के सिलसिले में मेरे इस ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का लेख प्रकाशित हुआ था। इसे मैने अपने फेसबुक स्टेटस पर भी लगाया था। मेरा उद्देश्य विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने का था। जब बात आगे बढ़ती है तब अनेक तथ्य भी सामने आते हैं। हमें नई बातें पता लगतीं हैं। कई बार हम अपनी दृढ़ धारणाओं से हटते भी हैं। फेसबुक पर चर्चाएं बहुत गम्भीर नहीं होतीं। गिरिजेश जी को उम्मीद थी कि उनकी बात का समर्थन करने वाले आगे आएंगे। कुछ लोगों ने समर्थन किया भी, पर एक मित्र उनसे सहमत नहीं हुए। गिरिजेश जी ने मुझे जो मेल लिखा है उसे मैं नीचे दे रहा हूँ। पर उसके पहले दो-एक बातें मैं अपनी तरफ से लिखना चाहता हूँ।

Thursday, February 17, 2011

प्रधानमंत्री के टीवी शो पर अखबारों की राय






हालांकि शो टीवी मीडिया का था पर प्रतिक्रियाएं अखबारों की माने रखतीं हैं। आज के अखबारों पर ध्यान दें प्रतिक्रयाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ अखबारों को प्रधानमंत्री की बात खबर ज्यादा लगी विचारणीय कम। टाइम्स ऑफ इंडिया का चलन है कि खबरों के साथ भी विचार लगा देता है, पर उसने प्रधानमंत्री के सम्पादक सम्मेलन पर टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा। और सम्पादकीय पेज का खात्मा करने वाले डीएनए को आज यह पेज 1 पर सम्पादकीय लिखने लायक मौका लगा। हिन्दू ने परम्परा के अनुरूप इसपर शालीनता के साथ आलोचना से भरपूर सम्पादकीय लिखा। कोलकाता के टेलीग्राफ ने सम्पादकीय नहीं लिखा, पर मानिनी चटर्जी की खबर सम्पादकीय जैसी ही थी। हिन्दी में खास उल्लेखनीय कुछ नहीं था। पढ़ें अखबारों की राय

Wednesday, February 16, 2011

प्रधानमंत्री की प्रभावहीन टीवी कांफ्रेंस


 इसे सम्पादक सम्मेलन कहने को जी नहीं करता। सबसे पहले हिन्दी चैनल आज तक के सम्पादक के नाम पर आए उसके मालिक अरुण पुरी ने अंग्रेजी में सवाल किया। आज सुबह के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर थी कि दो चैनलों के मालिकों को खासतौर पर आने को कहा गया है। दूसरे सम्पादक से उनका आशय बेशक प्रणय रॉय होंगे। प्रणय़ रॉय को हम मालिक कम सम्पादक ज्यादा मानते हैं। आज के सम्मेलन में उन्होंने ही सबसे सार्थक सवाल पूछे। अर्णब गोस्वामी के तेवरों पर ध्यान न दें तो वाजिब सवाल उनके भी थे।

Tuesday, February 15, 2011

सं रा सुरक्षा परिषद में बदलाव


हाल में ग्रुप-4 के देशों की न्यूयॉर्क में हुई बैठक के बाद जारी वक्तव्य में उम्मीद ज़ाहिर की गई है कि इस साल जनरल असेम्बली के सत्र में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सुधारों की दिशा में कोई ठोस कदम उठा लिया जाएगा। जी-4 देशों में भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील आते हैं। ये चार देश सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के दावेदार हैं।

Monday, February 14, 2011

मुज़फ्फरपुर जिले का एस्बेस्टस कारखाना


मेरे ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का यह दूसरा आलेख है। इसमें वे विकास से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठा रहे हैं। क्या इस कारखाने को स्वीकार करते वक्त पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी हुई है। बेहतर हो कि यदि किसी के पास और जानकारी हो तो भेजें। इस आलेख के साथ दो चित्र हैं।  ये विरोध मार्च की तस्वीरें हैं| इसी मुद्दे पर पटना में १० फ़रवरी को आयोजित इस मार्च में कई बुद्धिजीवी शामिल हुए थे|  

Saturday, February 12, 2011

मिस्री बदलाव का निहितार्थ

 हुस्नी मुबारक का पतन क्या मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना का प्रतीक है? मेरा ख्याल है कि मिस्र की परीक्षा की घड़ी अब शुरू हो रही है। हुस्नी मुबारक क्या अकेले तानाशाही चला रहे थे? वे सत्ता की कुंजी जिनके पास छोड़ गए हैं क्या वे लोकतंत्र की प्रतिमूर्ति हैं? मिस्र का दुर्भाग्य है कि वहाँ लम्बे अर्से से अलोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही थी। लोकतंत्र जनता की मदद से चलता है पर उसकी संस्थाएं उसे चलातीं हैं। भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं खासी मजबूत हैं, फिर भी आए दिन घोटाले सामने आ रहे हैं।मिस्र को अभी काफी लम्बा रास्ता तय करना है। हाँ एक बात ज़रूर है कि इस आंदोलन से राष्ट्रीय आम राय ज़रूर बनी है।

Wednesday, February 9, 2011

स्कूल स्तर पर यौन शिक्षा

मैने अपने ब्लॉग पर दूसरे लेखकों की रचनाएं भी आमंत्रित की हैं। मेरा उद्देश्य इस प्लेटफॉर्म के मार्फत विचार-विमर्श को बढ़ावा देना है। आज इस सीरीज़ में यह पहला आलेख है। इसे पटना के श्री गिरिजेश कुमार ने भेजा है। उनका परिचय नीचे दिया गया है। लेख के अंत में मैने दो संदर्भ सूत्र जोड़े हैं। बेहतर हो कि आप अपनी राय दें। 


बचपन को विकृत करने की साज़िश 
गिरिजेश कुमार
काले परदे के पीछे भूमंडलीकरण का निःशब्द कदम धीरे-धीरे सभ्यता का प्रकाश मलिन कर जिस अंधकारमय जगत की ओर लोगों को ले जा रहा है वह चित्र देखने लायक आँखऔर समझने लायक मन आज कितने लोगों में हैप्रेम जैसी सुन्दर अनुभूति को भुलाकरचकाचौंध रोशनी के बीच शरीर का विकृत प्रदर्शन और सेक्स के माध्यम से समाज को विषाक्त बनाने की कोशिश हो रही हैइसी परिकल्पित प्रयास का ही एक नाम है- स्कूल स्तर पर यौन शिक्षा|

Tuesday, February 8, 2011

जीवन शैली के कार्टून

टेक्नॉलजी का इस्तेमाल कैसे होगा इसे कार्टूनिस्टों से बेहतर और कौन समझता है। आनन्द लें। ये कार्टून जिम बेंटन ने बनाए हैं। किड 3000 उनके 365 कार्टूनों की सीरीज़ है। नीचे पढ़ें विकीपीडिया से लिया गया उनका परिचय

Jim Benton (born October 31, 1960) is an American illustrator and writer. Licensed properties he has created include Dear Dumb Diary, Dog of Glee, Franny K. SteinIt's Happy Bunny, Just Jimmy, Just Plain Mean, Sweetypuss, The Misters, Meany Doodles, Vampy Doodles, Kissy Doodles, and the jOkObo project.

एओएल ने खरीदा हफिंगटन पोस्ट


खबर है कि अमेरिकन ऑनलाइन कम्पनी ने, जो अब एओएल के नाम से जानी जाती है, इंटरनेट के सबसे प्रभावशाली अखबार हफिंगटन पोस्ट को 31.5 करोड़ डॉलर में खरीदने का फैसला किया है। इस खबर के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि हफिंगटन पोस्ट की ताकत को कुछ देर से ही सही पहचाना गया है और इंटरनेट के अखबारों की ताकत अब धीरे-धीरे बढ़ेगी। इस खबर के साथ यह खबर भी है कि हफिंगटन पोस्ट की मालकिन एरियाना हफिंगटन इस अखबार की प्रेसीडेंट होंगी, साथ ही वे एओएल की सम्पादकीय प्रमुख भी होंगी। यह खबर एओएल के भविष्य का संकेत भी है। एक साल पहले टाइम वार्नर के साथ आठ साल पुराना रिश्ता टूटने के बाद से एओएल का भविष्य भी डाँवाडोल है। 

Friday, February 4, 2011

क्या यह वैश्वीकरण की पराजय है?

आज एक अखबार में मिस्र के बारे में छपे आलेख को पढ़ते समय मेरी निगाहें इस बात पर रुकीं कि मिस्र का यह जनाक्रोश भूमंडलीकरण की पराजय का प्रारम्भ है। मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं जनाक्रोश और उसके पीछे की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से सहमत हूँ और मानता हूँ कि ऐसे जनांदोलन अभी तमाम देशों में होंगे। भारत में भी किसी न किसी रूप में होंगे। बुनियादी फर्क सिर्फ वैश्वीकरण की मूल अवधारणा को लेकर है।

आलेख के लेखक की निगाह में वैश्वीकरण अपने आप में समस्या है। मेरी निगाह में वैश्वीकरण समस्या नहीं एक अनिवार्य प्रक्रिया है। और उसमें ही अनेक समस्याओं के समाधान छिपे हैं। इससे तो गुज़रना ही है। वैश्वीकरण के बगैर तो समाजवाद भी नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के लिए भी वैश्वीकरण अनिवार्य है। इस वैश्वीकरण को पूँजीवादी विकास और पूँजी का वैश्वीकरण लीड कर रहा है। पूँजीवाद और पूँजी के वैश्विक विस्तार पर आपत्ति समझ में आती है, पर संयोग से दुनिया में इस समय आर्थिक गतिविधियाँ पूँजी के मार्फत ही चल रहीं हैं। मिस्र में हुस्नी मुबारक की तानाशाही सरकार हटी भी तो जो व्यवस्था आएगी वह वर्तमान वैश्विक संरचना से अलग होगी यह मानने की बड़ी वजह दिखाई नहीं पड़ती।

Wednesday, February 2, 2011

क्या पाठक विचार पढ़ना नहीं चाहते?


सम्पादकीय पेज खत्म करने के बाद आज के डीएनए में उसके पाठकों की चिट्ठियाँ छपीं हैं। कुछ ने समर्थन किया है और कुछ ने असहमति जताई है। बेशक पाठक पसंद करें तो सब ठीक है, पर क्या अखबार ने सम्पादकीय पेज खत्म करने के पहले पाठकों से पूछा था?

कुछ लोग मानते हैं कि बाज़ार तय करता है कि सही क्या है और गलत क्या है। पर बाज़ार क्या सोचता है इसका पता कैसे लगता है? मुम्बई में बाज़ार का लीडर तो टाइम्स ऑफ इंडिया है। करीब दसेक साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ संस्करण में सम्पादकीय पेज खत्म कर दिया गया था। सिर्फ पेज खत्म किया था। सम्पादकीय किसी पेज में छपते थे, मुख्य लेख किसी और पेज में पाठकों के पत्र किसी और पेज में। खैर टाइम्स ने बाद में सम्पादकीय पेज अपनी जगह वापस कर दिया। टाइम्स के सम्पादकीय पेज आज भी श्रेष्ठ है।

Tuesday, February 1, 2011

सम्पादकीय पेज विहीन डीएनए


डीएनए ने हिम्मत दिखाई और घोषणा करके एडिट पेज बन्द कर दिया। साथ में यह कहा कि इसे बहुत कम लोग पढ़ते हैं, बोरिंग होता है, अपनी ज़रूरत खो चुका है, सिर्फ जगह भरने का काम हो रहा था।