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Sunday, June 6, 2010
बदलता वक्त, बदलता मैं
कल मैं कोई पोस्ट नहीं लिख पाया। मैं ब्लॉग लेखन को अपनी आदत में शामिल नहीं कर पाया हूँ। मेरी आदत दैनिक अखबार के काम के हिसाब से ढली है। उसे बदलने में वक्त लगेगा, फिर मैं पूरी तरह से कार्य मुक्त नहीं हुआ हूँ। शायद फिर कहीं काम करूँ।
अखबार में हमारे काम का तरीका अगली सुबह के पाठक को ध्यान में रख कर बनता है। नेट पर या टीवी पर उसी वक्त का पाठक होता है। हर क्षण पर नज़र रखने की एक मशीनरी होती है। मुझे एक साल टीवी में काम करने का मौका भी मिला। वहाँ के काम में अजब सी मस्ती और रचनात्मकता होती है, पर कोई नहीं जानता कि उसने क्या किया। मसलन किसी की स्क्रिप्ट, किस पैकेज के साथ गई, उसकी एंकर रीड कहीं बनी, वीओ किसी ने किया, ग्रैफिक्स का रिसर्च कहीं हुआ। उसके कैप्शन कहीं बने। इसके बाद इसपर डिस्को और फोनो कोई कर रहा है। किसी एक व्यक्ति को अपने पूरे काम का सतोष नहीं होता। शायद टीम का संतोष होता है, पर इस मीडिया में सामने दिखाई पड़ने वाले यानी एंकर का इतना महत्व है कि बाकी लोगों के मन में एक प्रकार का क्लेश रहता है।
टीवी मे टीज़र होते हैं, बम्पर होते हैं। मुझे अब भी लगता है कि टीवी फिल्म मेकिंग का शानदार माध्यम है, उसे न्यूज़ का माध्यम बनाते वक्त उसकी नाटकीयता को बहुत कम करना होगा। यह बात मैं किसी टीवी न्यूज़ वाले से कहूँगा, तो मुझे पागल समझेगा। टीवी में नाटकीयता बढ़ाने वाले तत्वों का हमेशा स्वागत होता है। मुझपर प्रिंट की तटस्थता का प्रभाव है। इसमें खबर लिखने वाले को अपनी मनोभावना या विचार को व्यक्त नहीं करना होता है।
टीवी में मनोभावना दिखाई नहीं जा सकती। प्रिंट में कम से लिखी जा सकती है। यह लिखा जा सकता है कि मैं शर्म से ज़मीन में समा गया या शर्म से लाल हो गया। टीवी में या तो ज़मीन में सीधे समाते हुए दिखाना होगा या लाल होते हुए। दरअसल उसका मुहावरा अलग है। मैने अपनी बात कहीं से शुरू की थी, कहीं और जा रही है। मैं केवल इतना कहना चाहता था कि वर्षों से हम जिस मुहावरे में जीते हैं, उसे ही अंतिम मान लेते हैं। ज़रूरत बदलने की होती है। मैं समय के हिसाब से खुद को बदलना चाहता हूँ।
यह ब्लॉग मैने करीब साढ़े पाँच साल पहले बनाया। पहले सोचा था, अपने नाम से नहीं लिखूँगा। हिन्दी में लिखना चाहता था, पर यूनीकोड फॉण्ट पर हिन्दी में लिखना नहीं आता था। अखबार का फॉण्ट यहाँ काम नहीं करता था। फिर वक्त भी कम मिलता था। पहले सोचा था अंग्रेज़ी में लिखूँ, पर मैं सोचता तो हिन्दी में हूँ। आखिरकार एक जगह हिन्दी में यूनीकोड को इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड पर लिखने का लिंक मिल गया। ब्लॉग का टेम्प्लेट दो-तीन बार बदला। टाइटिल लोगो बनाने के लिए ड्रॉइंग का कोई सॉफ्टवेयर नहीं था। इसे पेंट-ब्रश पर बनाया। विजेट्स क्या होते हैं नहीं जानता था। अब समझ में आने लगे हैं। किसी एग्रीगेटर से कैसे जोड़ते हैं, मालूम नहीं था। आखिरकार ब्लॉगवाणी से कनेक्शन जुड़ गया। चिट्ठाजगत से आजतक नहीं जोड़ पाया। लॉगिन करता हूँ, पर कुछ होता नहीं। बहरहाल अब हर रोज दस-बीस नए पाठक आने लगे हैं। पचास से सवा सौ तक पेज व्यूज़ हो जाते हैं। यह सख्या कम है, पर बढ़ेगी।
मैं मीडिया और करेंट अफेयर्स पर लिखना चाहता हूँ। कल मैं सोमालिया के समुद्री डाकुओं पर लिखने जा रहा था। उसपर पढ़ना शुरू किया तो लगा कि यह केवल सोमालिया की समस्या नहीं है। फिर इसमें कहीं न कहीं राज्य की भूमिका है। इसपर अंतरराष्ट्रीय संधियां हैं, पर वे राजनैतिक कारणों से लागू नहीं हो पातीं हैं। अनेक मामले इंश्योरेंस का पैसा वसूलने के कारण भी हैं, फिर इश्योरेंस कम्पनियो के खेल भी हैं। अब वह पोस्ट मैं दो-एक दिन बाद लिखूँगा।
मैं रोज का ग्लोबल अपडेट भी देना चाहता हूँ। अखबारों और मीडिया के युवा संचालक बुरा न मानें तो मैं इतना कहना चाहता हूँ कि आप ग्लोबल थिंकिंग तो चाहते हैं, पर ग्लोबल इनफॉर्मेशन नहीं देते। ज्यादातर अखबारों में विदेशी खबरों का मतलब होता है बिकनी बालाओं के चार-पाँच फोटो। इसमें रैम्प पर चलती बालाएं भी हो सकतीं हैं। साइंस और मेडिकल साइंस पर खासतौर से खबरें होतीं है, पर उनमें सनसनी का पुट देने की कोशिश होती है। स्पेस रिसर्च की खबरें भी डेकोरेटिव ज्यादा हैं, सूचनाप्रद कम। मुझे लगता है मुझे खुद को बदलने की ज़रूरत है और अगर मैं समझता हूँ कि मीडिया को भी बदलना चाहिए तो उसे आगाह करने की ज़रूरत भी है। सजावट की सूचना का ट्रेंड ग्लोबल नहीं है। हमारे देश में कुछ साल पहले तक दो-एक साइंस की पत्रिकाएं निकलतीं थीं, वे अब नहीं निकलतीं। पर अमेरिकन साइंटिस्ट, न्यू साइंटिस्ट, नेचर या पॉपुलर साइंस तो बंद नहीं हुईं। हम न जाने क्यों सिर्फ सजावटी चीजें पसंद करते हैं। उनकी गहराई में नहीं जाना चाहते।
एक पोस्ट मैंने जातीय जनगणना पर लिखी थी अब एक और लिखूँगा। इस सिलसिले में मैं अभी तक जो देख रहा हूँ, उसमें लिखने वाले के विचार से ज्यादा लिखने वाले की पहचान महत्वपूर्ण होती है। चारों ओर बहुत ज्यादा भावावेश हैं। कोई व्यक्ति अपने नाम के आगे जातीय नाम नहीं लगाता, तब भी उसकी जाति का अनुमान लगाने की कोशिश की जाती है। मैं कोशिश करूँगा कि मेरी पोस्ट ऑब्जेक्टिव हो। मेरा मंतव्य अपने विचार से ज्यादा उपलब्ध जानकारियाँ उपलब्ध कराना है। पत्रकार का एक काम यह भी है।
यह पोस्ट सिर्फ एक प्रकार का अंतर्मंथन हैं। मैं कोशिश करूँगा कि अपनी जानकारी को बढ़ाऊँ और आपसे शेयर करूँ।
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