Monday, August 29, 2011

दस दिन का अनशन


हरिशंकर परसाई की यह रचना रोचक है और आज के संदर्भों से जुड़ी है। इन दिनों नेट पर पढ़ी जा रही है। आपने पढ़ी न हो तो पढ़ लें। इसे मैने  एक जिद्दी धुन  नाम के ब्लॉग से लिया है। लगे हाथ मैं एक बात साफ कर दूँ कि मुझे इसके आधार पर अन्ना हजारे के अनशन का विरोधी न माना जाए। मैं लोकपाल बिल के आंदोलन के साथ जुड़ी भावना से सहमत हूँ। 



10 जनवरी

आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है कि संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."

बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.

कैसा संवाद संकलन?


27 के इंडियन एक्सप्रेस में श्रीमती मृणाल पांडे का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें हिन्दी अखबारों के संवाददाताओं को विज्ञापन लाने के काम में लगाने का जिक्र है। हिन्दी अखबारों की प्रवृत्तियों पर इंटरनेट के अलावा दूसरे मीडिया पर बहुत कम लिखा जाता है। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान कुछ लोगों ने कहा कि हमारी भ्रष्ट-व्यवस्था में मीडिया की भूमिका भी है। ज्यादातर लोग मीडिया से उम्मीद करते हैं कि वह जनता की ओर से व्यवस्था से लड़ेगा। पर क्या मीडिया इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं है? और मीडिया का कारोबारी नज़रिया उसे जन-पक्षधरता से दूर तो नहीं करता? बिजनेस तो इस व्यवस्था का हिस्सा है ही। 

मीडिया का कारोबारी चेहरा न तो हाल की उत्पत्ति है और न वह भारत में ही पहली बार उजागर हुआ है। संयोग से हाल में ब्रिटिश संसद ने न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड को लेकर उसके मालिक रूपर्ट मर्डोक की जैसी घिसाई की उससे इतना भरोसा ज़रूर हुआ कि दुनिया के लोग किसी न किसी दिन इस तरफ ध्यान देंगे। अब हम मीडिया शब्द का इतना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं कि पत्रकारिता शब्द भूलते जा रहे हैं। मीडिया में कारोबार शामिल है। पत्रकारिता शब्द में झलकता है लिखने-पढ़ने का कौशल और कुछ नैतिक मर्यादाएं।

अन्ना या नो अन्ना, देश की भावना को समझिए



संसद में शनिवार की बहस सुनने के बाद आपको क्या लगता है? संसद में मौजूद सांसदों और पार्टियों का सबसे बड़ा वर्ग टीम अन्ना के प्रस्तावों से सहमत है। ऐसा लगता है कि हर पार्टी गैलरी के लिए बोल रही है। और यह गैलरी पूरा देश नहीं, अपना चुनाव कोना है। अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश में कोई पूरा सच बोलना नहीं चाहता। उन्हें भड़काए रखना चाहता है। संविधान से टकराव और संसदीय मर्यादा की बात सब कह रहे हैं, पर किसका किससे टकराव हुआ? टकराव है तो सामने आता। आश्चर्य इस बात का है कि पिछले छह महीने से देश एक ऐसे मसले की बारीकियों पर पिला पड़ा है, जिससे सिद्धांततः किसी को आपत्ति नहीं। व्यावहारिक आपत्तियों की लम्बी सूची है।

Friday, August 26, 2011

अब अनशन की ज़रूरत नहीं


सर्वदलीय बैठक के अगले दिन लोकसभा में प्रधानमंत्री, विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के वचन देने के बाद अन्ना हजारे के आंदोलन का एक चरण पूरा हो गया है। उनका अनशन सफल हुआ है, विफल नहीं। अब उसे जारी रखने की ज़रूरत नहीं। पहली बार देश की संसद ने इस प्रकार का आश्वासन दिया है। अन्ना को श्रेय जाता है कि उन्होंने जनता की नाराज़गी को इस ऊँचाई तक पहुँचाया। अब संसद को फैसला करना चाहिए। बेशक जनता की भागीदारी के मौके कभी-कभार आते हैं, पर जनता का दबाव खत्म हो जाएगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए। एक अर्थ में एक नए किस्म का आंदोलन देश में अब शुरू हो रहा है। खत्म नहीं। राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के तमाम पहलुओं पर अभी विचार होना है। अन्ना चाहते हैं कि उनके जन-लोकपाल बिल पर संसद विचार करे। वह अब होगा। कम से कम उसपर बहस जनता के सामने होगी। इसके बाद जो कानून बनकर आएगा वह सम्भव है जन-लोकपाल विधेयक से ज्यादा प्रभावशाली हो।

Wednesday, August 24, 2011

मीडिया असंतुलित है, अपराधी नहीं

अन्ना हजारे के आंदोलन के उद्देश्य और लक्ष्य के अलावा दो-तीन बातों ने ध्यान खींचा है। ये बातें सार्वजनिक विमर्श से जुड़ी हैं, जो अंततः लोकमत को व्यक्त करता है और उसे बनाता भी है। इस आंदोलन का जितना भी शोर सुनाई पड़ा हो, देश के बौद्धिक-वर्ग की प्रतिक्रिया भ्रामक रही। एक बड़े वर्ग ने इसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रवर्तित माना। संघ के साथ इसे सवर्ण जातियों का आंदोलन भी माना गया। सिविल सोसायटी और मध्यवर्ग इनकी आलोचना के केन्द्र में रहे।

आंदोलन के विरोधी लोग इसे अल्पजनसंख्या का प्रभावहीन आंदोलन तो कह रहे हैं, पर लगभग नियमित रूप से  इसकी आलोचना कर रहे हैं। यदि यह प्रभावहीन और जन-प्रतिनिधित्वविहीन है तो इसकी इतनी परवाह क्यों है? हालांकि फेसबुक और ट्विटर विमर्श का पैमाना नहीं है, पर सुबह से शाम तक कई-कई बार वॉल पर लिखने से इतना तो पता लगता है कि आप इसे महत्व दे रहे हैं। एक वाजिब कारण यह समझ में आता है कि मीडिया ने इस आंदोलन को बड़ी तवज्जो दी, जो इस वर्ग के विचार से गलत था। इनके अनुसार इस आंदोलन को मीडिया ने ही खड़ा किया।  चूंकि इस आंदोलन के मंच पर कुछ जाने-पहचाने नेता नहीं थे, इसलिए इसे प्रगतिशील आंदोलन मानने में हिचक है।

Tuesday, August 23, 2011

आंदोलन सफल हो या विफल सकारात्मक बदलाव होगा




नंदन नीलेकनी ने हाल में एक टीवी चैनल पर कहा कि भ्रष्टाचार किसी एक कानून के बन जाने से खत्म नहीं हो जाएगा। मैं इस आंदोलन में शामिल लोगों की फिक्र से सहमत हूँ, पर यह नहीं मानता कि कोई जादू की गोली इसका इलाज है। संयोग से नंदन नीलेकनी के इनफोसिस के पुराने मित्र मोहनदास पै एक और चैनल पर इस आंदोलन को जनांदोलन बता रहे थे और इसे दबाने की सरकारी कोशिशों का विरोध कर रहे थे। जिन दो मित्रों के बीच एक कम्पनी और कार्य-संस्कृति का विज़न एक सा था, वे इस मामले में एक तरह से क्यों नहीं सोच पा रहे हैं? शायद नीलेकनी का पद आड़े आता है। या वे वास्तव में इस मसले की तह तक जाकर सोचते हैं और हम बेवजह उनके सरकारी पद को इस मसले से जोड़कर देख रहे हैं। यह सिर्फ नीलेकनी और पै का मामला नहीं है।

Monday, August 22, 2011

यह बदलाव की प्रक्रिया है, देर तक चलेगी



अन्ना के अनशन के सात दिन आज पूरे हो जाएंगे। और अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि यह कब तक चलेगा और कहाँ तक चलेगा। आंदोलन के समर्थन और विरोध में बहस वह मूल प्रश्नों के बाहर नहीं निकल पाई है। क्या केवल इस कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या यह सम्भव है कि अन्ना का प्रस्तावित विधेयक हूबहू पास कर दिया जाए? सरकार ने जो विधेयक पेश किया है उसका क्या होगा? क्या सरकार उसे वापस लेने को मजबूर होगी? सवाल यह भी है कि सरकार ने विपक्षी दलों के साथ इस विषय पर बात क्यों नहीं की। क्या वह उनके सहयोग के बगैर इस संकट का सामना कर सकेगी? क्या हम किसी बड़े व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं? क्या सरकार आने वाले राजनैतिक संकट की गम्भीरता को नहीं समझ पा रही है?

Sunday, August 21, 2011

आंदोलन तैयार कर रहा है एक राजनीतिक शून्य



लड़ाई का पहला राउंड अण्णा हज़ारे के पक्ष में गया है। टीम-अण्णा ने यूपीए को तकरीबन हर मोड़ पर शिकस्त दे दी है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पास कोई बड़ा संगठनात्मक आधार नहीं है और इतने साधन भी नहीं कि वे कोई बड़ा प्रचार अभियान चला पाते। पर परिस्थितियों और उत्साही युवा कार्यकर्ताओं ने कहानी बदल दी। सोशल नेटवर्किंग साइटों और एसएमएस के रूप में मिली संचार तकनीक ने भी कमाल किया। पर यह आंदोलन की जीत ही नहीं, सरकारी नासमझी की हार भी है। उसने इस आंदोलन को मामूली राजनैतिक बाज़ीगरी मान लिया था। बाबा रामदेव के अनशन को फुस्स करने के बाद सरकार का हौसला और बढ़ गया।

शुक्रवार की शाम रामलीला मैदान पर मीडिया से चर्चा के दौरान अरविन्द केजरीवाल ने कहा, हम चुनाव नहीं लड़ेंगे। हम जनता हैं, जनता ही रहेंगे। बात अच्छी लगती है, अधूरी है। जनता के आंदोलन का अर्थ क्या है? इस दौरान पैदा हुई जन-जागृति को आगे लेकर कौन जाएगा? लोकपाल की माँग राजनैतिक थी तो राजनैतिक माध्यमों के मार्फत आती। जनता लोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझती। उसका गुस्सा राजनैतिक शक्तियों पर है और वह वैकल्पिक राजनीति चाहती है। टीम अण्णा का राजनैतिक एजेंडा हो या न हो, पर इतना साफ है कि यह कांग्रेस-विरोधी है। यूपीए और कांग्रेस का राजनीति हाशिए पर आ गई है। और कोई दूसरी ताकत उसकी जगह उभर नहीं रही है। इस समूचे आंदोलन ने जहाँ देश भर को आलोड़ित कर दिया है वहीं राजनैतिक स्तर पर एक जबर्दस्त शून्य भी पैदा कर दिया है। इस आंदोलन से जो स्पेस पैदा हुआ है उसे कौन भरेगा?

Friday, August 19, 2011

यह जनांदोलन है



इस आंदोलन में दस हजार लोग शामिल हैं या बीस हजार. यह आंदोलन प्रतिक्रयावादी है या प्रतिगामी, अण्णा अलोकतांत्रिक हैं या अनपढ़, इस बहस में पड़े बगैर एक बात माननी चाहिए कि इसके साथ काफी बड़े वर्ग की हमदर्दी है, खासकर मध्यवर्ग की। गाँव का गरीब, दलित, खेत मजदूर यों भी अपनी भावनाएं व्यक्त करना नहीं जानता। उनके नाम पर कुछ नेता ही घोषणा करते हैं कि वे किसके साथ हैं। मध्य वर्ग नासमझ है, इस भ्रष्टाचार में भागीदार है, यह भी मान लिया पर मध्यवर्ग ही आंदोलनों के आगे आता है तब बात बढ़ती है। इस आंदोलन से असहमति रखने वाले लोग भी इसी मध्यवर्ग से आते हैं। आप इस आंदोलन में शामिल हों या न हों, पर इस बात को मानें कि इसने देश में बहस का दायरा बढ़ाया है। यही इसकी उपलब्धि है।



अण्णा हजारे के आंदोलन की तार्किक परिणति चाहे जो हो, इसने कुछ रोचक अंतर्विरोध खड़े किए हैं। बुनियादी सवाल यह है कि  इसे जनांदोलन माना जाए या नहीं। इसलिए कुछ लोग इसे सिर्फ आंदोलन लिख रहे हैं, जनांदोलन नहीं। जनांदोलन का अर्थ है कि उसके आगे कोई वामपंथी पार्टी हो या दलित-मजदूर नाम का कोई बिल्ला हो। जनांदोलन को परिभाषित करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार दो बातें इसे आंदोलन बना सकतीं हैं। एक, जनता की भागीदारी। वह शहरी और मध्य वर्ग की जनता है, इसलिए अधूरी जनता है। सरकारी दमन भी इसे आंदोलन बनाता है। पर इस आंदोलन का व्यापक राजनैतिक दर्शन स्पष्ट नहीं है। कम से कम वे प्रगतिशील वामपंथी नहीं हैं। इसलिए यह जनांदोलन नहीं है। बल्कि इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता घुसे हुए हैं। इस आंदोलन का वर्ग चरित्र तय हो गया कि ये लोग शहरी मध्य वर्ग के सवर्ण और आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग हैं। यह आंदोलन मीडिया ने खड़ा किया है। इसके पीछे भारतीय पूँजीपति वर्ग और अमेरिका है। कुछ लोग इसे अण्णा और कांग्रेस की मिली-भगत भी मानते हैं।

Tuesday, August 16, 2011

जीवंत पत्रकारिता के सवाल


रांची के दैनिक प्रभात खबर की स्थापना करने वाले पत्रकारों के मन में जोशो-खरोश कितना था, इसका आज अनुमान भर लगाया जा सकता है। कारोबारी चुनौतियाँ इस अखबार को खत्म कर देतीं, क्योंकि सिर्फ जोशो-खरोश किसी कारोबार को बनाकर नहीं रखता। अखबार को पूँजी चाहिए। बहरहाल प्रभात खबर का भाग्य अच्छा था और उसे चलाने वाले कृत-संकल्प संचालक और काबिल सम्पादक मिले। मेरे विचार से हरिवंश उस परम्परा के आखिरी बचे चिरागों में से एक हैं, जिनके सहारे हिन्दी पत्रकारिता की राह रोशन हो रही है। वे एक अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या है वह अंतर्विरोध?

हरिवंश ने इस अंतर्विरोध का जिक्र 14 अगस्त के अपने आलेख में किया है, जिसकी इन पंक्तियों पर गौर किया जाना चाहिएः- एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपए है. हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग। पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए। कहा भी जा रहा है कि अखबार उद्योग पाठकों को पढ़ने का पैसा दे रहे हैं। इस पर समाज की मांग कि सात्विक अखबार निकले, पवित्र पत्रकारिता हो। अखबार उपभोक्तावादी समाज, गिफ्ट के लोभी और मुफ्त अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना? क्या इन अंतरविरोधी चीजों पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। पाठकों और समाज को इस दोहरे चिंतन पर नहीं सोचना चाहिए। साधन यानी पूंजी पवित्रता से आएगी, बिना दबाव बनाए या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी पत्रकारिता भी पवित्र होगी। साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता संभव है?’

Monday, August 15, 2011

किससे करें फरियाद कोई सोचता भी तो हो


सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।



हर साल पन्द्रह अगस्त की तारीख हमें घर में आराम करने और पतंगें उड़ाने का मौका देती है। तमाम छुट्टियों की सूची में यह भी एक तारीख है। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक संस्थाओं में औपचारिक ध्वजारोहणों के साथ मिष्ठान्न वितरण की व्यवस्था भी होती है। 26 जनवरी और पन्द्रह अगस्त साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा राष्ट्रीय पर्व 2 अक्टूबर है। एक अलग किस्म की औपचारिकता का दिन। एक बड़ा तबका नहीं जानता कि देश की उसके जीवन में क्या भूमिका है। और देशप्रेम से उसे क्या मिलेगा? करोड़ों अनपढ़ों और गैर-जानकारों की बात छोड़िए।  पढ़े-लिखों के दिमाग साफ नहीं हैं।

Friday, August 12, 2011

महत्वपूर्ण है गवर्नेंस की गुणवत्ता


एक ज़माने में भारतीय कम्युनिस्टों पर आरोप लगता था कि जब मॉस्को में बारिश होती है, वे दिल्ली या कोलकाता में अपने छाते खोल लेते हैं। यह बात अब भारत के बिजनेस पर लागू होती नज़र आती है। अमेरिका के क्रेडिट रेटिंग संकट के बाद भारत का शेयर बाज़ार जिस तरह हिला है, उससे लगता है कि हम वास्तविक अर्थव्यवस्था को जानना-समझना चाहते ही नहीं। मीडिया, जिस तरीके से शेयर बाज़ार की गिरावट को उछालता है वह आग में घी डालने का काम होता है। पूरा शेयर बाजार सिर्फ और सिर्फ कयासों पर टिका है। बेशक यह कारोबार देश की अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा है। इसमें मध्य वर्ग की मेहनत की कमाई लगी है, जिसे समझदार विदेशी कम्पनियाँ मिनटों में उड़ा ले जाती हैं। हम देखते रह जाते हैं।

यह हफ्ता दो विदेशी और शेष भारतीय घटनाओं के लिए याद किया जाएगा। इनमें आपसी रिश्ते खोजें तो मिल जाएंगे। यों तीनों के छोर अलग-अलग हैं। अमेरिका की घटती साख के अलावा इंग्लैंड में अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों के दंगे सबसे बड़ी विदेशी घटनाएं हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटने से यह अनुमान लगाना गलत होगा कि अमेरिका का डूबना शुरू हो गया है। आज भी डॉलर दुनिया की सबसे साखदार मुद्रा है और इस रेटिंग क्राइसिस के दौरान उसकी कीमत बढ़ी है। कम से रुपए के संदर्भ में तो यह सही है। उसके सरकारी बांड दुनिया में सबसे सुरक्षित निवेश माने जाते हैं। यों मौखिक बात वॉरेन बफेट की है, जिन्होंने कहा है कि हमारे लिए अमेरिका की साख ट्रिपल ए की है, कोई उसे बढ़ाए या घटाए, इससे फर्क नहीं पड़ता। पर यह भावनात्मक बातें हैं। दुनिया पर दबदबा बने रखने की जो कीमत अमेरिका दे रहा है, वह ज्यादा है। इस स्थिति की गोर्बाचौफ के रूस के साथ तुलना करें तो पाएंगे कि संस्थाओं और व्यवस्थाओं में फर्क है, मूल सवालों में ज्यादा फर्क नहीं है।

हम दो बातें एक साथ होते हुए देख रहे हैं। पहली है पूँजी का वैश्वीकरण और दूसरी पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों का खुलना। संकट अमेरिका का हो या ग्रीस का अब जी-20 देशों का समूह इसका समाधान खोजता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था की शक्ति और सामर्थ्य है कि वह अपने संकटों का समाधान खोज लेने में अभी तक सफल है। सोवियत व्यवस्था ने भी अपने अंतर्विरोधों को सुलझाना चाहा था, पर वे विफल रहे। अभी यह संकट सिर्फ अमेरिका का संकट नहीं है, वैश्विक पूँजीवाद का संकट है। वैश्विक पूँजी के और विस्तार के बाद हम इसके वास्तविक अंतर्विरोधों को देख पाएंगे। अमेरिकी व्यवस्था में पिछले कुछ दशक से कॉरपोरेट सेक्टर ने राजनीति की जगह ले ली है। ऐसा ही भारत में करने का प्रयास है। पर क्या यूरोप, चीन और भारत में अंतिम रूप से सफल हो जाएगा?

आज अमेरिका के तीन हजार अरब डॉलर के सरकारी बॉण्ड चीन के पास हैं। अमेरिका का बजट घाटा चीनी मदद से होता है। आज से तीन दशक पहले चीन के पास तीन हजार डॉलर छोड़, इतने डॉलर नहीं थे कि कायदे से वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार कर पाता। वह विश्व व्यापार संगठन का सदस्य तक नहीं था। सारे डॉलर अमेरिकी व्यवस्था की मदद से ही तो आए। चीन की अर्थ-व्यवस्था अमेरिका और यूरोप के लिए सस्ता माल तैयार करने वाली व्यवस्था है। जापानी अर्थ-व्यवस्था भी इसी तरह बढ़ी थी। पर भारतीय व्यवस्था में तमाम पेच हैं। यह निर्यात आधारित अर्थ-व्यवस्था नहीं है। हमारा मध्य वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। हमें स्थानीय उपभोग के लिए औद्योगिक विस्तार करना है। खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज में हमारे रूपांतरण को अनेक लोकतांत्रिक परीक्षणों से गुजरना पड़ रहा है। यह हमें अजब-गजब लगता है, पर कम से कम चीन से बेहतर है। वहाँ की सरकारी नीतियाँ इस तरीके के संसदीय परीक्षण से नहीं गुजरतीं। बेशक पार्टी का लोकतंत्र है, पर वह खुला लोकतंत्र नहीं है।

हम चीन के विशाल हाइवे और सुपरफास्ट ट्रेनों से हतप्रभ हैं। वास्तव में यह तारीफ के काबिल उपलब्धियाँ हैं, पर यह बड़े स्तर की शोकेसिंग भी है। और जो कुछ आप वहां देख रहे हैं, वह डॉलर में मिलता है। सार्वजनिक पूँजी का काफी बड़ा हिस्सा इस शोकेसिंग में लगाया गया है। पर जब सुपरफास्ट ट्रेन की दुर्घटना होती है तब पता लगता है कि उस देश के लोग भी कहीं विचार करते हैं। हमें चीन की जनता के विचारों से रूबरू होने का मौका कम मिलता है। चीन को आने वाले वक्त में जबर्दस्त लोकतांत्रिक आंदोलनों का सामना करना होगा। साथ ही यह भी देखना होगा कि वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी कॉरपोरेट सेक्टर की खिदमतगार है या नहीं। यह भी देखना चाहिए कि चीन ने अपने आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के अलावा शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, आवास और जन कल्याण के दूसरे कामों को किस तरीके से साधन मुहैया कराए हैं। अंततः जनता का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आने वाले वक्त में राजनैतिक व्यवस्था के स्वास्थ्य को निर्धारित करेगा।

भारतीय शेयर मार्केट पिछले कुछ दिनों से वोलटाइल चल रहे हैं। चीन, सिंगापुर या हांगकांग के शेयर बाजार ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है। हमारा तो कुल अंतरराष्ट्रीय कारोबार में दो फीसदी हिस्सा है। इसकी एक वजह है कि विदेशी निवेशक आने वाले संकट को समय से पहले भाँप जाते हैं और अपना नफा निकाल कर फुर्र हो जाते हैं। यह हमारी व्यवस्था का दोष भी है। पूँजी बाजार के रेग्युलेशन में अभी और काम होना बाकी है। भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्थाओं के साथ-साथ गवर्नेंस और नियामन में कड़ाई की ज़रूरत है। यदि इतने बड़े स्तर पर बगैर किसी स्थानीय वजह के शेयर बाजार टूटते हैं तो रेग्युलेटरों को देखना होगा कि चूक कहाँ हुई। मॉरीशस लेकर आइल ऑफ मैन तक अर्थ-व्यवस्था के अनेक ब्लैक होल बने हैं।

जो लोग कहते हैं कि शेयर बाज़ार अर्थ-व्यवस्था इंडीकेटर है, उन्हें पहले शेयर बाजार को कारोबार से जोड़ना होगा। कम्पनियाँ एक बार आईपीओ लाकर जनता से पैसा वसूलती हैं, उसके बाद सेकंडरी मार्केट को मैनीपुलेट करती हैं। यह पैसा कम्पनियों के विस्तार पर खर्च नहीं होता। कम्पनियों के परफॉर्मेंस से शेयर बाजार का जो रिश्ता होना चाहिए, वह हमारे यहाँ नहीं है। इसमें कई तरह के स्वार्थी तत्वों ने सेंध लगा रखी है। अभी हम टू-जी के संदर्भ में कॉरपोरेट महारथियों के विवरण पढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट क्राइम पर हमारा ध्यान अब गया है।

हाल में उत्तर प्रदेश में तीन सीएमओ की मौतों के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य के घोटालों की ओर हमारी निगाहें घूमी हैं। मोटी बात यह है कि मनरेगा, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था और जन स्वास्थ्य से लेकर कम्पनी कारोबार तक हर जगह हमें गवर्नेंस और नियामन की विफलता नज़र आती है। अनेक परेशानियों के केन्द्र अमेरिका या चीन में होंगे, पर वास्तविक परेशानियाँ हमारे भीतर हैं। एक माने में भारत नई दुनिया है, जिसे अपने आप को खुद परिभाषित करना है। हम प्रायः बात करते हैं तो मानते हैं कि चीन से हमें अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए। हम उसके सामने कहीं नहीं हैं। ठीक बात होगी, पर चीन ने ऐसा तीन दशक में किया है। हम कोशिश करें तो एक दशक में परिस्थितियाँ बदल जाएंगी। बल्कि संसदीय बहस वगैरह बंद कराकर आँख मूँदकर सारे नियमों-कानूनों को पास कराते जाएं तो हमें भी सपनों का देश मिल जाएगा, जिसमें शानदार इमारतें, सड़कें, रोशनी और टीवी शो होंगे। हम अमेरिका जैसा बनना चाहते हैं तो वहाँ के शिक्षा, स्वास्थ्य और जन कल्याण के सार्वजनिक कार्यक्रमों को भी तो लाना होगा। विकास माने खुशहाली है चमकदार सड़कें नहीं। चमकदार सड़कें सबके लिए खुशहाली की सौगात ला सकें उससे बेहतर और क्या होगा।

विदेशी घटनाओं के संदर्भ में इंग्लैंड के दंगे इस हफ्ते की प्रमुख घटना है। मोटे तौर पर ये दंगे अफ्रीकी और कैरीबियन मूल के लोगों और इंग्लैंड के जंकीज़ का उत्पात है। इनमें ज्यादातर अपराधी हैं और मुफ्त की कमाई चाहते हैं। पर गहराई से जाएं तो इनके पीछे पिछले साल आई नई सरकार द्वारा पैदा की गई नई उम्मीदों का मर जाना है। सामान्य दंगे होते तो दो-एक दिन में खत्म हो जाते। इंग्लैंड में यह छुट्टियों का वक्त हैं। छुट्टियाँ रद्द करके महत्वपूर्ण सांसद वापस आ रहे हैं। वहाँ की संसद बैठने वाली है। ब्रिटिश संसद गम्भीर विचार करती है। हमारे लिए संदर्भ सिर्फ इतना है कि ऐसे झगड़ों के कारण कहीं और होते हैं। और अंततः वे नॉन गवर्नेंस पर आकर रुकते हैं। जिस देश में जनता और सरकार समझदार हों वहाँ संकट नहीं होते।    

Tuesday, August 9, 2011

इस प्रगति से इसे क्या मिला?

यह आलेख मेरे पास अरुण चन्द्र रॉय ने भेजा है। इनकी बातों से असहमत होने का कोई अर्थ नहीं. सवाल है स्थितियों को बेहतर कैसे बनाया जाए। नीचे पढ़ें उनका पत्र और आलेख।


प्रमोद जी नमस्कार ! आपके ब्लॉग से आपका परिचय हुआ. और आपका आमंत्रण भी देखा. बढ़िया तो लिखता नहीं फिर भी आपना एक छोटा सा आलेख आपके ब्लॉग हेतु प्रस्तुत कर रहा हूं. यदि ठीक लगे तो उपयोग कीजियेगा.यदि कहीं और उपयोग करना चाहें अपने संपर्क से तो कर सकते हैं... अपने सुझाव भी दीजियेगा कि किस तरह अपने लेखन को इम्प्रूव कर सकता हूँ... सम्प्रति अपनी विज्ञापन एजेंसी चलता हूं... कविता लिखता हूं.... 




अरुण चन्द्र रॉय
संपर्क सूत्र: 9811721147                                                                                                                                    

भारत  :  भुखमरी 



जब आठ साल पहले मनमोहन सिंह जी देश के प्रधानमंत्री बने थे तो पूरी दुनिया में यह पहला  वाकया था कि किसी  विश्व स्तर के  अर्थशास्त्री के हाथों किसी देश की कमान हो. देश को बहुत उम्मीदें थी. जनता को लग रहा था कि महंगाई कम होगी, हर पेट को दाना मिलेगा, जीडीपी घाटा कम होगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो हुआ उनमें  टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, आदर्श हाउसिंग घोटाला, किसानों  की आत्महत्या और बेहिसाब महंगाई प्रमुख हैं. लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है. नया यह है कि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हाल में भारत में भुखमरी के अध्ययन  के अर्थशास्त्रियों  ने एक सूचकांक तैयार किया है जिसे इंडिया स्टेट हंगर इंडेक्स नाम दिया है. इस  इंडेक्स का उद्देश्य भारत में भुखमरी और कुपोषण की  स्टडी करना है. इसे इंटरनेशनल फ़ूड रिसर्च इंस्टिटयूट ने तैयार किया है. 

Monday, August 8, 2011

काग्रेस में उत्तराधिकार को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है?



सरकार, पार्टी और मीडिया में सन्नाटा क्यों है?
राहुल गांधी को सामने आने दीजिए

जिन्हें याद है उन्हें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, पर जो नही जानते उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का समाचार देश के आधिकारिक मीडिया पर शाम तक नहीं आ पाया था। इसके कारण जो भी रहे हों, पर निजी चैनलों के उदय के बाद से देश में छोटी-छोटी बातें भी चर्चा का विषय बनी रहती हैं। पिछली 4 अगस्त को सारे चैनलों का ध्यान दो खबरों पर था। कर्नाटक में येदुरप्पा का पराभव और कॉमनवैल्थ गेम्स के बारे में सीएजी की रपट। बेशक दोनों खबरें बड़ी थीं, पर श्रीमती सोनिया गांधी के स्वास्थ्य और उनकी अनुपस्थिति में पार्टी की अंतरिम व्यवस्था के बारे में खबरें या तो देर से आईं या इतनी सपाट थीं कि उन्हें समझने में देर हुई। ये खबरें सबसे पहले बीबीसी और एएफपी जैसी विदेशी एजेंसियों ने जारी कीं। सरकार, सरकारी मीडिया और प्राइवेट मीडिया ने इसे बहुत महत्व नहीं दिया। बात ठीक है कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर कयासबाज़ी नहीं होनी चाहिए, पर सामान्य जानकारी देने में क्या कोई खराबी थी? कांग्रेस पार्टी की वैबसाइट तक पर इस विषय पर कोई जानकारी नहीं है। क्या ऐसा जानबूझकर है या इसलिए कि एक जगह पर जाकर पूरी व्यवस्था घबराहट और असमंजस की शिकार है?

Friday, August 5, 2011

फेसबुक लोकतंत्र का वक्त अभी नहीं आया



सन 2008 में यूरोप में आए वित्तीय संकट के केन्द्र में आइसलैंड जैसा छोटा देश था, जहाँ के बैंकों में लोगों ने अपनी बचत का सारा पैसा लगा रखा था। देखते-देखते आइसलैंड के बैंक बैठ गए। वहाँ की मुद्रा क्रोना की कोई हैसियत नहीं रह गई। उस आपाधापी में वहाँ की सरकार गिर गई। विश्व बैंक की मदद से पूरी अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाया गया। बहरहाल करीब सवा तीन लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने अपनी व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का निश्चय किया है। पिछले साल यहाँ की संसद ने संवैधानिक व्यवस्था को परिभाषित करने में जनता की सलाह लेने का निश्चय किया। और दुनिया में पहली बार सोशल नेटवर्किंग के सहारे संविधान का एक प्रारूप बनकर सामने आया है, जिसे पिछले शुक्रवार को वहाँ की संसद की अध्यक्ष को सौंपा गया। इस प्रारूप पर अक्तूबर के महीने में वहाँ की संसद विचार करेगी।

Tuesday, August 2, 2011

संसदीय व्यवस्था को प्रभावी बनाना भी हमारी जिम्मेदारी है



अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता दिवस और 1942 की अगस्त क्रांति के सिलसिले में याद किया जाता है। या फिर हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों के कारण। लगता है कि इस साल अगस्त के महीने में कुछ और क्रांतियाँ होंगी। इसकी शुरूआत कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा के पराभव से हो चुकी है। लोकपाल संस्था प्रभावशाली होगी या नहीं, इसका संकेत कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने दे दिया है। जिन्हें अभी तक अन्ना हजारे के पीछे भाजपा का हाथ लगता था, शायद उनकी धारणा में कुछ बदलाव हो, पर इस मामले को राजनीति के ऊपर ले जाकर देखने की ज़रूरत है।
आज से शुरू होने वाले सत्र में महत्वपूर्ण संसदीय कार्य पूरे होंगे। ज्यादातर निगाहें लोकपाल विधेयक पर हैं इसलिए हम वहीं तक देख पा रहे हैं। पर केवल लोकपाल विधेयक ही कसौटी पर नहीं है। देश की व्यवस्था को परिभाषित करने के लिहाज से हम इस वक्त एक महत्वपूर्ण मुकाम पर खड़े हैं। संसद के इस सत्र में और आने वाले सत्र में अनेक नए कानून और संविधान संशोधन होंगे। दूसरे अगले लोकसभा चुनाव के पहले के राजनैतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत अब होगी। और तीसरे तमाम घोटालों, बवालों और झमेलों पर एक सार्थक बहस संसद में होगी, बशर्ते उसे होने दिया जाए। चौथे अन्ना का अनशन हो या न हो, जनता की खुली संसद का दायरा बढ़ने वाला है। 
मूल्य वृद्धि, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना, एयर इंडिया, रिटेल में एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून, मुम्बई धमाके और विदेश-नीति से जुड़े अनेक मामले कतार में खड़े हैं। इधर ए राजा ने अदालत में पी चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पर आरोप लगाकर भाजपा और वाम मोर्चे को अच्छे हथियार दे दिए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यूपीए सरकार की टोपी में लगी कलगी की तरह है। पर इस योजना को लागू करने में अनियमितताओं की लम्बी सूची भी विपक्ष के पास है। तो इसलिए बेहद रोचक शो शुरू होने वाला है। राजनीति में टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। देखना यह है कि किसका होमवर्क सटीक है। और इस दौरान कुछ नई बातों का पर्दाफाश भी होगा। येदुरप्पा से छुटकारा पाकर भाजपा नैतिकता के ऊँचे धरातल पर खड़े होने का दावा करेगी। उधर बेल्लारी के रेड्डी बंधु भी कुछ नए रहस्य खोलने वाले हैं। कई व्यक्तिगत और कई सार्वजनिक रहस्यों के खुलने का दौर भी शुरू होगा अब।
शोर-शराबे को संसदीय कर्म मानें तो हमारे यहाँ इसकी कमी नहीं। पर गम्भीर काम-काज के लिहाज से हम काफी पीछे हैं। संसद के पिछले दो सत्रों में हमारी संसद ने सिर्फ पाँच बिल पास किए हैं। दोनों सदनों के पास 81 बिल विचारार्थ पड़े हैं। उम्मीद है कि भूमि अधिग्रहण बिल, डायरेक्ट टैक्सेज कोड बिल, उच्च शिक्षा में सुधार के बाबत विधेयक, महिलाओं को पंचायत में 50 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक, केन्द्रीय शिक्षा संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा विधेयक औस तमाम विधेयक है। इनमें से कुछ स्थायी समिति में हैं। कुछ की रिपोर्ट आ गई हैं। उनपर विचार तभी होगा, जब संसद को समय मिलेगा।
लोकपाल विधेयक को पेश करने के पहले स्थायी समिति में भेजा जाएगा। यह मसला राजनैतिक रंग ले चुका है, इसलिए शायद हमारा ध्यान उधर ही रहेगा, पर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर अभी कई कानून और हैं। इनमे एक है ह्विसिल ब्लोवर बिल, जिसकी माँग लम्बे अर्से से हो रही है पर जो बन नहीं पा रहा। इसी तरह ज्युडीशियल एकाउंटेबिलिटी बिल है, जिसके आधार पर सरकार न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है। विदेशी अधिकारियों को भारतीय कम्पनियाँ घूस न देने पाएं इसके लिए भी एक बिल है। अभी हम खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के बारे में ज्यादा बात ही नहीं कर पाए हैं। बहरहाल, व्यवस्था को पारदर्शी, जिम्मेदार और कुशल बनाने के लिए अनेक कानूनों का प्रस्ताव है। यदि आप संसद के सामने विचाराधीन कानूनों की सूची पर ध्यान दें तो समझ में आएगा कि ये कानून कितने महत्वपूर्ण हैं और इनके बारे में फैसला करने में देरी का अर्थ क्या है। बेशक यह सब राजनैतिक चक्रव्यूहों को पार किए बगैर सम्भव नहीं होगा।
अन्ना हजारे के अनशन के बाद सरकार ने उनके पाँच सदस्यों को शामिल करके एक ड्राफ्टिंग कमेटी ज़रूर बनाई, पर आज उसका कोई मतलब समझ में नहीं आता। अंततः सरकार ने बिल का जो समौदा तैयार किया है, वह संयुक्त समिति का मसौदा नहीं है। तो क्या अन्ना को फिर से अनशन करना चाहिए? या फिर संसद के विवेक पर सब कुछ छोड़ देना चाहिए? कानून तो संसद में ही बनेगा, पर संसद के बाहर की आवाजों को भी भीतर तक सुना जा सकता है। हाल के घटनाक्रम के बाद कम से कम इतना ज़रूर हुआ है कि मूल्य, विचार और नैतिकता की बातें सुनी जाने लगीं हैं। जिस वक्त कैबिनेट में इस मसौदे पर चर्चा हो रही थी थी, मनमोहन सिंह समेत कुछ मंत्रियों ने सुझाव दिया कि इसमें प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे के भीतर लाना चाहिए। उनका कहना था कि ऐसा करके हम जनता को बेहतर संदेश देते हैं। बहरहाल कैबिनेट का फैसला हो चुका है। अब यह कानून देश की राजनीति के पाले में हैं। क्या यह कानून अगले चुनाव का मुद्दा बन सकता है?
शायद कोई अकेला कानून किसी चुनाव का मुद्दा न बने, पर व्यवस्थागत पारदर्शिता बन सकती है। धीरे-धीरे हम विचार के दायरे को फोकस करते जा रहे हैं। इसकी एक शुरुआत आज से होगी, भारतीय संसद में।