टेलीशॉपिंग या होम शॉपिंग के किसी चैनल पर आपने अक्सर विज्ञापन देखे होंगे, जिनमें किसी की बुरी नज़र से बचाने या दुर्भाग्य से मुक्ति पाने के लिए किसी सिद्ध कवच को खरीदने का आग्रह किया जाता है। किसी सुखी परिवार को देखकर किसी स्त्री या पुरुष की आँखों से बुरी नज़र की किरणें निकलतीं हैं। वे उस परिवार का जीवन तबाह कर देती हैं। ऐसे ही किसी का चलता कारोबार बिगड़ जाता है। हमारे जीवन में ऐसे कवच, गंडे-ताबीज़ों की कमी नहीं है। बड़े-बड़े सेलेब्रिटी भी इनका सहारा लेते हैं। खराब वक्त प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में आता है। ज्यादातर सेलेब्रिटीज़ के सेलेब्रिटी एस्ट्रॉलॉजर होते हैं। ज्यादातर चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं में भाग्य बताने वाले कॉलम होते हैं। यह व्यक्तिगत आस्था का मामला है। कोई इनपर यकीन करता है, तो उसके यकीन करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पर गंडे-ताबीज़, कवच और जादुई चिकित्सा के प्रचार पर हमारे देश में कानूनी रोक है। फिर भी ऐसे विज्ञापन आराम से छपते हैं।
ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टीज़मेंट्स) एक्ट 1954 के अंतर्गत कई तरह के औषधीय दावों और रोगों के इलाज की चमत्कारिक दवाओं के विज्ञापन गैर-कानूनी हैं। खासकर जिन दावों को साबित न किया जा सके। इस आरोप में छह महीने से साल भर तक की सज़ा और ज़ुर्माने की व्यवस्था है। हिन्दी या अंग्रेजी का शायद ही कोई अखबार हो, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसे दावे के विज्ञापन न छपते हों। कुछ विज्ञापनों पर ध्यान दीजिएः-
खुला चैलेंजः शक्ति चमत्कार देखें अपनी आँखों से
गुरूजी कमाल खान बंगाली
लव मैरिज, वशीकरण, सौतन, दुश्मन से छुटकारा आदि सभी का A to Z समाधान
बाबा खान बंगाली
जापानी ऑटोमेटिक इन्द्रीयवर्धक यंत्र
डायबिटीज़ः हैरतंगेज़ नई खोज
लम्बाई बढ़ाएं
नज़र रक्षा कवच
दुर्गा रक्षा कवच
इनमें मालिश करने वाले, एस्कॉर्ट्स और मैत्री के विज्ञापन भी शामिल हैं, जो अश्लीलता, अभद्रता और सार्वजनिक जीवन की मर्यादा से ताल्लुक रखते हैं। कुछ साल पहले ऋषिकेश के नीरज क्लीनिक के मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन तक ने उसमें हस्तक्षेप किया। देश की एडवर्टाइज़िंग स्टैंडर्ड काउंसिल ने भी दबाव डाला और वह विज्ञापन बंद हुआ। पर वह मनोवृत्ति कायम है। इसकी वजह विज्ञापन देने वालों के अलावा विज्ञापन लेने वाले भी हैं। केरल के अखबारों में एक विज्ञापन छपता था जिसमें ऊँचाई बढ़ाने का वादा था। नादिया नाम की एक लड़की उसके चक्कर में फँस गई। उसकी ऊँचाई बढ़ना तो बाद की बात है, चलना-फिरना मुश्किल हो गया। अंततः अपोलो अस्पताल में उसे इलाज कराना पड़ा। हालांकि इस कानून के तहत सरकारी अधिकारी अपने तईं हस्तक्षेप करके सम्बद्ध व्यक्ति या संस्था के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं, पर व्यावहारिक रूप से कुछ नहीं होता।
एडवर्टाइज़िग स्टैंडर्ड काउंसिल के दिशा-निर्देशों के अनुसार विज्ञापन को स्वीकार करते वक्त उसके नैतिक पक्ष की जाँच होनी चाहिए। विज्ञापन का अर्थ यह नहीं होता कि आप पैसा देकर कुछ भी छपवा लें। काउंसिल के सेल्फ रेग्युलेशन कोड के मुताबिक विज्ञापन देने वाले के साथ-साथ विज्ञापन बनाने वालों, उसे प्रकाशित करने वालों और इसमें सहयोग करने वालों की जिम्मेदारी भी इसमें है। यह देखना ज़रूरी है कि विज्ञापन में कही गई बातें भ्रम तो नहीं फैला रहीं। इस गैर-जिम्मेदारी से हिन्दी का पाठक ज्यादा प्रभावित होता है। खासकर दुर्गा रक्षा-कवच या शिव रक्षा-कवच की गुणवत्ता को सर्टिफाई करने वाली कोई संस्था देश में नहीं है। ऐसे कवच विज्ञापन के बगैर भी बिकेंगे, पर विज्ञापन से उसे वैधानिकता मिलती है। सरकार के पास कानून का सहारा है, जो आसानी से उसे रोक सकती है। वहीं, जिन चैनलों पर ऐसे विज्ञापन नज़र आते हैं, उनकी भी जिम्मेदारी बनती है। दिक्कत यह है कि कानूनी व्यवस्था होने के बावजूद ऐसे विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जाते हैं।
तकरीबन हर शहर में दुनिया के सारे रोगों का इलाज करने वाली दवाएं मिलतीं हैं। इसकी एक वजह हमारा अवैज्ञानिक मन, दूसरे चमत्कार में यकीन और तीसरे महंगी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था तक पहुँच न हो पाने की वजह से वैकल्पिक व्वस्था को खोजना है। विकल्प है देशी और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ। बेशक इन पद्धतियों की चिकित्सा को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। इनके पीछे हजारों साल का अनुभव है। पर इनकी आड़ में कमाई करने वाले भी हैं। अमेरिका में औषधि नियम बहुत सख्त हैं। शायद हमारे यहाँ उतना सख्त करना व्यावहारिक नहीं, पर कानून इतना लचर भी नहीं होना चाहिए कि उसका मज़ाक बन जाए। इधर अनेक चमत्कारिक दवाएं फूड सप्लीमेंट के रूप में बेची जा रहीं हैं। ताकत, स्फूर्ति और मर्दानगी की तमाम दवाएं इसी श्रेणी में आतीं हैं। हिन्दी के अखबारों में इनके विज्ञापन ज्यादा होते हैं। इसे वह वर्ग पढ़ता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के बाहर हो चुका है और जिसके पास विशेषज्ञों से कंसल्ट करने की न तो आर्थिक शक्ति है और न आत्मविश्वास। वह ठगे जाने को अभिशप्त है। उसके पक्ष में खड़े होने की ज़िम्मेदारी मीडिया की है, जो जाने-अनजाने अपनी ज़िम्मेदारी को भूल गया है।
पहले पत्रकारिता का जन्म हुआ था। उसके करीब सौ साल बाद विज्ञापन आए थे। पर सारी नकारात्मक भूमिका विज्ञापन की नहीं है। कंटेंट मे भी यही सब है। ऐसे में उसे कानून से नहीं रोका जा सकेगा। दूर-दराज़ की बात नहीं है दिल्ली के अखबारों तक में ‘जाको राखे साइयाँ’ टाइप खबरें छपतीं हैं। 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दुग्धपान की खबरें छपते वक्त हम इसे देख चुके हैं। ऐसा ही दिल्ली में काले बंदर की खबरों को लेकर हुआ था। कोई रिपोर्टर खोज पर निकले तो उसे हिन्दी प्रदेशों के शहरों और कस्बों में अनेक कथाएं इस किस्म की चर्चित और प्रचारित मिलेंगी। चमत्कारी बकरी, तीन सिर वाला बच्चा, आसमान से बरसे फूल ऐसी खबरें गाहे-बगाहे अखबारों में जगह पाती हैं। लोक-रुचि के नाम पर वैज्ञानिक विषयों की खबरें भी चमत्कारिक ढंग से लिखी जाती हैं। विज्ञान को किसी अखबार ने गम्भीरता से नहीं लिया। विज्ञान के नाम पर टेक्नॉलजी खूब छपती है, क्योंकि उसका कमर्शियल पहलू है। विज्ञान बड़े स्तर पर उपेक्षित है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें अंधविश्वास को बढ़ावा देने की अनुमति भी देता है। ज्योतिषीय परामर्श तक बात ठीक है, पर आए दिन चमत्कारों की कहानियों का क्या अर्थ है? वैज्ञानिक खबरों के साथ भी यही होता है। उन्हें चमत्कार के रूप में लिखने की कोशिश की जाती है। आधुनिकता सिर्फ खाने-पीने, पहनने और बोलने की रह गई है, जो वस्तुतः नकल और प्रकारांतर से पिछड़ापन है। विवेक-विचार और विश्लेषण की आधुनिकता नहीं। इसे सुधारना तभी सम्भव है जब विज्ञान और चमत्कारों के बारे में मीडिया कोई कोड ऑफ कंडक्ट बनाए। बीटी बैंगन, जेनेटिक्स और विज्ञान की नैतिकता पर विमर्श करने से अधकचरा ज्ञान रोकता है।