विश्व कप के फाइनल मैच में हमारी टीम नहीं है इसलिए आज वह
जोशो-खरोश नहीं है जो हमारी टीम के होने पर होता। हमारी टीम भी फाइनल में होती तो
खुशी की बात होती, पर वह फाइनल में नहीं है इसलिए कुछ बातों पर ठंडे दिमाग से
सोचने का मौका हमारे पास है। गुरुवार को हुए सेमी फाइनल मैच ने कुछ बातों की और
इशारा किया भी है। मैच के दो दिन पहले से लगभग पूरे देश ने मान लिया था कि विश्व
कप तो अब हमारे हाथों में है। इस समझ को बनाने में सबसे बड़ी भूमिका इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने निभाई। तमाम चैनलों ने अपनी दुकानें सज़ा दी थीं और वे अभूतपूर्व तरीके
से कवरेज कर रहे थे। शायद हमारी हार की एक वजह यह भी थी। पूरी टीम पर जीत के लिए
जो दबाव था उसके कारण वह बड़ी गलतियाँ करती गई। जैसे ही टीम हारी इस मीडिया के
तेवर बदल गए। इसने फौरन टीम और उसके कुछ खिलाड़ियों को विलेन बना दिया।
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Sunday, March 29, 2015
Monday, January 24, 2011
मीडिया और मनमोहन सरकार
पिछले शुक्रवार को सीएनएन आईबीएन पर करन थापर के कार्यक्रम लास्ट वर्ड में मीडिया की राय जानने के लिए जिन तीन पत्रकारों को बुलाया गया था वे तीनों किसी न किसी तरह से पार्टियों से जुड़े थे। संजय बारू कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार थे। चन्दन मित्रा का भाजपा से रिश्ता साफ है। वे भाजपा के सांसद भी हैं। इसी तरह हिन्दू के सम्पादक एन राम सीपीएम के सदस्य हैं। क्या यह अंतर्विरोध है? क्या मीडिया को तटस्थ नहीं होना चाहिए? ऐसे में मीडिया की साख का क्या होगा? इस बातचीत में संजय बारू ने यह सवाल उठाया भी।
Saturday, December 4, 2010
Tuesday, August 10, 2010
ट्विटरीकृत शोर के दौर में साख का सवाल
शनिवार के अखबारों में सहारा समूह के अध्यक्ष सुब्रत रॉय सहारा की एक ‘भावनात्मक अपील’ प्रकाशित हुई है। उन्होंने कहा है कि मीडिया में कॉमनवैल्थ गेम्स को लेकर जो निगेटिव कवरेज हो रहा है उससे उससे पूरे संसार में हमारे देश और निवासियों के बारे में गलत संदेश जा रहा है। हमें इन खेलों को सफल बनाना चाहिए। यह अपील टाइम्स ऑफ इंडिया में भी प्रकाशित हुई, जिसके किसी दूसरे पेज पर उनके टीवी चैनल 'टाइम्स नाव' का विज्ञापन है। टाइम्स नाव कॉमनवैल्थ खेलों के इस 'भंडाफोड़' का श्रेय लेता रहा है। और वह काफी अग्रेसिव होकर इसे कवर कर रहा है।
शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता का साप्ताहिक कॉलम ‘नेशनल इंटरेस्ट’ इसी विषय को समर्पित है। उन्होंने लिखा है कि दो हफ्ते पहले हमारे मन में इन खेलों को लेकर यह भाव नहीं था। इंडियन एक्सप्रेस ने खुद इस भंडाफोड़ की शुरुआत की थी, पर हमने यह नहीं सोचा था कि इन सब बातों का इन खेलों के खिलाफ प्रचार करने और माहौल को इतना ज़हरीला बनाने में इस्तेमाल हो जाएगा। जिस तरीके से खेलों के खिलाफ अभियान चला है उससे पत्रकारिता के ट्विटराइज़ेशन का खतरा रेखांकित होता है।‘सब चोर हैं’ इस देश का लोकप्रिय जुम्ला है।
कॉमनवैल्थ गेम्स के बहाने हम मीडिया की प्रवृत्तियों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। साथ ही यह समझ भी आता है कि पत्रकार छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा क्यों कर रह हैं। कॉमनवैल्थ गेम्स पर कितना खर्च हो रहा है, कहाँ-कहाँ खर्च हो रहा है और किस खर्च के लिए कौन जिम्मेदार है इसकी पड़ताल तो आसानी से की जा सकती है। दस-पन्द्रह हजार करोड़ के खर्च से शुरू होकर बात एक लाख करोड़ तक पर जा चुकी है। इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली सरकार और खेल मंत्रालय की रपटों के हवाले से 41,589.35 करोड़ रु के खर्च का ब्योरा दिया है। इसमें फ्लाई ओवरों का निर्णाण, मेट्रो कनेक्टिविटी, लो फ्लोर डीटीसी बसों की संख्या में वृद्धि, सड़कों का मरम्मत, फुटपाथों का निर्माण वगैरह भी शामिल है। खेलों के दौरान होने वाले खर्च अलग हैं। दूर से लगता है कि सुरेश कलमाडी के पास चालीस-पचास हजार करोड़ अपने विवेक से खर्च करने का अधिकार था। ऐसा नहीं है। घपले हुए हैं तो पूरी व्यवस्था ने होने दिए हैं।
इसमें दो राय नहीं कि मीडिया ने जो मामले उठाए हैं, उनके पीछे कोई आधार होगा। उन्हें जाँचा और परखा जाना चाहिए। पब्लिक स्क्रूटिनी जितनी अच्छी होगी काम उतने अच्छे होंगे। इस बात को साफ-साफ बताना चाहिए कि किससे कहाँ चूक हुई है या किसने कहाँ चोरी की है। इसके लिए पत्रकारों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे हवाबाज़ी में न आ जाएं। जैसे-जैसे आर्थिक मसले बढ़ेंगे वैसे-वैसे पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ेगी। ऐसे मौकों पर व्यक्तिगत हिसाब बराबर करने वाले भी आगे आते हैं। वे अधूरे तथ्य पत्रकारों को बताकर अपनी मर्जी से काम करा लेते हैं। इधर लगभग हर चैनल और अखबार में एक्सक्ल्यूसिव का ठप्पा लगाने का चलन बढ़ा है। एक्सक्ल्यूसिव होने की जल्दबाज़ी में हम तथ्यों को परखते नहीं। कई बार तथ्य सही होते हैं, पर उन्हें उछालने वाले कोई का कोई स्वार्थ होता है। उसे देखने की ज़रूरत भी है। अच्छी खबर पढ़ने में अक्सर सनसनीखेज नहीं होती, पर मीडिया की दिलचस्पी सनसनी में है।
फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉगों पर जो शब्दावली चलती है, वह मुख्यधारा के मीडिया की शब्दावली कभी नहीं थी। जनता के बीच संवाद की भाषा और पत्रकारिता की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती। कॉमनवैल्थ गेम्स के कारण पूरे देश की इज़्ज़त रसातल में जा रही है, इसलिए हम इस बात पर विचार कर रहे हैं। यों हमें सोचना चाहिए कि पत्रकारिता की भूमिका वास्तव में है क्या। तथ्यों को बाँचे-जाँचे बगैर पेश करने का चलन बढ़ता जा रहा है। जन-पक्षधरता अच्छी बात है, पर सारे तथ्यों की पड़ताल होनी चाहिए। कम से कम उस व्यक्ति का पक्ष भी जानने की कोशिश करनी चाहिए, जिस पर आरोप लगाए जा रहे हैं। पत्रकारिता परिपक्व विचार और समझ का नाम भी है। इन दिनों उसे जिस तरह उसके मूल्यों से काटने की कोशिश हो रही है, वह भी तो ठीक नहीं है।
ये खेल बचें या न बचें यह राष्ट्रीय हितों से जुड़ा सवाल है। हमारी दिलचस्पी पत्रकारिता को बचाने में भी है। इस सिलसिले में मैं आनन्द प्रधान के एक लेख का हवाला देना चाहूँगा, जो उन्होंने हिन्दी पत्रकार-लेखक हेम चन्द्र पांडे की मौत को लेकर लिखा है। हेम की मौत पर मीडिया ने कोई पड़ताल नहीं की। संयोग से सोहराबुद्दीन की मौत इन दिनों खबरों में है। चूंकि उस खबर के साथ बड़े नाम जुड़े हैं, इसलिए मीडिया का ध्यान उधर है। जिन मूल्यों-सिद्धांतों के हवाले से सोहराबुद्दीन की पड़ताल हुई, वे हेम के साथ भी तो जुड़े हैं। शायद यह मामला डाउन मार्केट है। अप मार्केट और डाउन मार्केट पत्रकारिता की मूल भावना से मेल नहीं खाते। पत्रकारिता सिर्फ व्यवसायिक हितों की रक्षा में लग जाएगी तो वह जनता से कटेगी। उसका दीर्घकालीन व्यावसायिक हित भी साख बचाने में है। ‘सब चोर हैं’ का जुम्ला उसके साथ नहीं चिपकना चाहिए।
इधर ‘हूट’ में एक खबर पढ़ने को मिली कि पेड न्यूज़ के मसले पर प्रेस काउंसिल की संशोधित रपट में अनेक कड़वे प्रसंग हट गए हैं। बहुमत के आधार पर तय हुआ कि प्रकाशकों की दीर्घकालीन साख और हितों को जिन बातों से चोट लगे उन्हें हटा देना चाहिए। पर पत्रकारिता की दीर्घकालीन साख और हित-रक्षा किसकी जिम्मेदारी है? कॉमनवैल्थ गेम्स होने चाहिए और हमें एशियाई खेल से भी नहीं भागना चाहिए। यह काम एक गम्भीर और आश्वस्त व्यवस्था ही कर सकती है। इसे सिविल सोसायटी कहते हैं। इसमें मीडिया भी शामिल है। सब चोर हैं का भाव पैदा करने में मीडिया की भूमिका भी है।
अफरा-तफरी के पीछे कौन लोग हैं, यह साफ तौर पर बताने का काम मीडिया का है। इस काम के लिए गम्भीर पत्रकारिता की ज़रूरत है। यही पत्रकारिता भीड़ की मनोवृत्ति से बचाने में सेफ्टी वॉल्व का काम करती है। एक अरसे से खबरों के कान मरोड़कर उन्हें या तो सनसनीखेज़ या मनोरंजक बनाकर पेश करने की प्रवृत्ति हावी है। साख चाहे सरकार की गिरे या बिजनेस हाउसों की जनता की बेचैनी बढ़तीहै। जैसे-जैसे ट्विटर संस्कृति बढ़ेगी, शोर और बढ़ेगा। ऐसे में हर तरह के संस्थानों को अपनी साख के बारे में भी सोचना चाहिए। पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले संस्थानों से लेकर मडिया हाउसों तक अपनी साख को लेकर चेतेंगे तब वे उन तरीकों को खोजेंगे, जिनसे साख बनती है या बचती है।
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