पिछला साल कोविड-19 के कारण पूरी दुनिया को परेशान करता रहा। इस दौरान एक बड़े बदलाव की सम्भावना व्यक्त की जा रही थी, जो किस रूप में होगा यह देखने की घड़ी आ रही है। देखना होगा कि क्या यह साल चीनी पराभव की कहानी लिखेगा? खासतौर से ऐसे माहौल में जब चीनी आक्रामकता चरम पर है।
अमेरिका में जो
बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद ज्यादातर लोगों के मन में सवाल था कि चीन के
बरक्स अमेरिका की नीति अब क्या होगी? आम धारणा थी कि डोनाल्ड
ट्रंप का रुख चीन के प्रति काफी कड़ा था। शायद बाइडेन का रुख उतना कड़ा नहीं होगा।
यह धारणा गलत थी। बाइडेन प्रशासन का चीन के प्रति रुख काफी कड़ा है और लगता नहीं
कि उसमें नरमी आएगी। कम से कम चार घटनाएं इस बात की ओर इशारा कर रही हैं।
अलास्का-वार्ता
से शुरुआत
अलास्का में
अमेरिकी और चीनी प्रतिनिधिमंडलों के बीच 18 और 19 मार्च को दो दिन की वार्ता बेहद
टकराव के माहौल में हुई। पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह बैठक कुछ वैसी रही,
जैसी शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और
सोवियत संघ की शुरुआती बैठकें होती थीं। कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स
डेली’ ने अपनी खबर में इस वार्ता को लेकर शीर्षक दिया—‘दूसरों को नीचा दिखाने वाली
हैसियत से अमेरिका को चीन से बात करने का अधिकार नहीं है।’ चीनी विदेश मंत्रालय के
प्रवक्ता झाओ लीजियन ने कहा, ‘अमेरिकी पक्ष ने चीन की घरेलू तथा विदेश नीतियों पर हमला करके उकसाया। इसे मेजबान
की अच्छी तहजीब नहीं माना जाएगा।’
इस वार्ता में चीन का प्रतिनिधित्व विदेशमंत्री वांग यी और कम्युनिस्ट पार्टी के विदेशी मामलों के सेंट्रल कमीशन के निदेशक यांग जिएशी ने किया। अमेरिका की ओर से विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलीवन थे। इस बैठक से ठीक पहले अमेरिका ने हांगकांग और चीन के 24 अधिकारियों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए प्रतिबंधों की घोषणा की थी।