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Thursday, February 24, 2011

भारत के टाइम्स की खबर छापी मर्डोक के संडे टाइम्स ने

भारत की पेड न्यूज़ धोखाधड़ी (India's dodgy 'paid news' phenomenon) शीर्षक से लंदन के प्रतिष्ठित अखबार गार्डियन के लेखक रॉय ग्रीनस्लेड ने अपने व्लॉग में टाइम्स ऑफ इंडिया के पेड न्यूज़ प्रकरण को उठाया है। उन्होंने संडे टाइम्स में प्रकाशित एक रपट के आधार पर यह लिखा है, यह याद दिलाते हुए कि भारत सरकार ने पेड न्यूज़ की भर्त्सना की है। पिछले साल प्रेस काउंसिल ने इस मामले की जाँच भी की थी, जिसकी रपट काफी काट-छाँट कर जारी की गई थी। 


बावजूद इसके टाइम्स ऑफ इंडिया में रकम लेकर मन पसंद सम्पादकीय सामग्री का प्रकाशन सम्भव है। पेड न्यूज़ की परिभाषा बड़ी व्यापक है। इसमें गिफ्ट लेने से लेकर मीडिया हाउस और कम्पनियों के बीच प्रचार समझौते भी शामिल हैं। यह समझौते शेयर ट्रांसफर के रूप में होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों की मन पसंद पब्लिसिटी के बदले अखबारों ने पैसा लिया, ऐसी शिकायतें थीं।

Friday, July 23, 2010

पत्रकारिता का मृत्युलेख

रामनाथ गोयनका पत्रकारिता  पुरस्कार समारोह के दौरान पेड न्यूज़ को लेकर परिचर्चा भी हुई। ऐसी परिचर्चा पिछले साल के समारोह में भी हो सकती थी। हालांकि उस वक्त तक यह मामला उठ चुका था। यों पिछले साल जब हिन्दू में पी साईनाथ के लेख प्रकाशित हुए तब इस मामले पर बात शुरू हुई। वर्ना मान लिया गया था कि इस सवाल पर मीडिया मौन धारण करे रहेगा।


गुरुवार के समारोह में अभिषेक मनु सिंघवी ने ठीक सवाल उठाया कि मीडिया तमाम सवालों पर विचार करता है, इसपर क्यों नहीं करता। इस समारोह में मौज़ूद कुमारी शैलजा, सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुड्डा ने बताया कि उनके पास मीडिया के लोग आए थे। बात इतनी साफ है तो क्यों नहीं हम इस मामले पर आगे जाकर पता लगाएं कि कौन पैसा माँगने आया था। किसने किसको कितना पैसा दिया। वह पैसा कहाँ गया वगैरह का पता तो लगे।


पेज3 की पेड न्यूज़ और चुनाव की पेड न्यूज़ में फर्क नहीं करना चाहिए। यह सब अपनी साख को तबाह करना है। इस समारोह मे हालांकि ज्यादातर वे लोग शामिल थे, जो इन बातों से ज्यादा नहीं जुड़े रहे हैं, पर उनमे से ज्यादातर के मासूम सवाल जनता के सवाल हैं। मसलन रविशंकर प्रसाद का यह सवाल कि क्या पत्रकारिता सीधे-सीधे ट्रेड और बिजनेस है? क्या ऐसा है? ऐसा है कहने के बाद पूरी व्यवस्था धड़ाम से ज़मीन पर आकर गिरती है। अरुणा रॉय कहती हैं कि डैमोक्रेसी में मीडिया का रोल है। मीडिया को प्रॉफिट-लॉस का कारोबार नहीं बनना चाहिए।


अच्छी बात है कि हम मीडिया की भूमिका पर बात कर रहे हैं, पर हम क्यों उम्मीद करें कि मीडिया प्रॉफिट-लॉस के मोह-जाल से ऊपर उठकर काम करेगा। उसे निकालने के पीछे की मनोभावनाएं वही रहेंगी तो इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। ज़रूरत इस बात की है कि हम मीडिया का मालिक कौन हो इस सवाल को उठाएं।  यह सब जनता के दरवार में तय होना है। जनता बहुत सी बातों से अपरिचित है। वह हमपर ही भरोसा करती थी, पर हम उसे बताना नहीं चाहते। इसलिए इस मीडिया के भीतर से साखदार मीडिया के उभरने की ज़रूरत है। यह बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि दूध का जला हर दूध को जलाने वाला समझेगा।


मुझे लगता है पत्रकारिता को जिस तरह से राजनेताओं और सत्ता से जोड़ा गया है, उसे देखते हुए जल्द किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आखिरकार इंडियन एक्सप्रेस का यह समारोह भी पीआर एक्सरसाइड़ थी जिसमें अखबार की रपट के अनुसार शामिल होने वाले गणमान्य लोगों में गिनाने लायक नाम राजनेताओं के ही थे। एकाध पत्रकार भी था, तो वही पेज3 मार्का। पत्रकारिता का व्यवस्था के साथ 36 का रिश्ता होना चाहिए, पर यहाँ वैसा है नहीं। इसलिए सारी बातें ढोंग जैसी लगती हैं।


इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर इस गोष्ठी की बड़ी सी खबर है जिसका शीर्षक है 'पेड न्यूज़ कुड मार्क डैथ ऑफ जर्नलिज़्म'। यह खुशखबरी है या दुःस्वप्न?


कुछ महत्वपूर्ण लिंक


प्रेस काउंसिल रपट
काउंटरपंच में पी साइनाथ का लेख
हिन्दू में पी साइनाथ का लेख
इंडिया टुगैदर
सेमिनार
द हूट
न्यूज़ फॉर सेलः द हूट
सैलिंग कवरेजः द हूट
प्लीज़ डू नॉट सैल-विनोद मेहता