हाल में भारत और बांग्लादेश ने आपसी व्यापार रुपये में करने का फैसला किया है. बांग्लादेश 19 वाँ ऐसा देश है, जिसके साथ भारत का रुपये या बांग्लादेशी टका में व्यापार होगा. पिछले साल यूक्रेन-युद्ध शुरू होने के बाद अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने जबसे रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं, अनेक देश डॉलर के बजाय अपनी मुद्राओं में सीधे कारोबार करने का फैसला कर रहे हैं. इसे ‘डीडॉलराइज़ेशन’ की प्रक्रिया कहा जा रहा है.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से डॉलर ने वस्तुतः
वैश्विक मुद्रा का स्थान ले लिया है, पर अब लगता है कि अब डॉलर से हटने की
प्रक्रिया शुरू हो गई है. इस प्रक्रिया की गति बहुत तेज नहीं है, पर संकेत मिलने
लगे है. इसमें खासतौर से रूस और चीन की इसे तेज करने में अग्रणी भूमिका है. क्या
यह अमेरिका के घटते प्रभाव की सूचक है, या केवल एक छोटे से दौर की मामूली घटना है? इसका जवाब देना मुश्किल है, पर इतना कहा जा सकता है कि यह इतनी छोटी
परिघटना नहीं है कि जिसकी अनदेखी की जाए.
रूस, चीन और ईरान
ईरान ने चीन और रूस के साथ डॉलर में कारोबार बंद कर दिया है. सऊदी अरब ने घोषणा की है कि हम पेट्रोडॉलर के माध्यम से कारोबार बंद कर रहे हैं और उसके स्थान पर पेट्रोयुआन स्वीकार कर रहे हैं. हाल में फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि यूरोप को भी अमेरिकी डॉलर का सहारा लेना बंद करना चाहिए.
अप्रेल के दूसरे सप्ताह में ब्राज़ील के
नव-निर्वाचित राष्ट्रपति लुईस इनासियो लूला डा सिल्वा चीन की यात्रा पर गए. वहाँ
उन्होंने कहा, इन देशों को अमेरिकी डॉलर पर क्यों निर्भर होना पड़ता है? वे आरएमबी (चीनी मुद्रा) या अन्य मुद्राओं का उपयोग क्यों नहीं कर
सकते?
ब्राजील और चीन के बीच स्थानीय मुद्राओं में व्यापार
करने का समझौता भी हुआ है. उधर रूस और चीन दोनों की कोशिश है कि युआन को
अंतरराष्ट्रीय व्यापार की करेंसी के रूप में जगह मिल जाए. उनकी कोशिश इसे कम से कम
ब्रिक्स की संयुक्त करेंसी बनाने की है.
भारत-बांग्लादेश
भारत-बांग्ला समझौते को चीनी अखबार ग्लोबल
टाइम्स की वैबसाइट ने डीडॉलराइज़ेशन की प्रक्रिया का हिस्सा बताया है. चीनी
वैबसाइट के अनुसार अमेरिका की मौद्रिक नीतियों के कारण भारत के विदेशी मुद्रा कोष
में तंगी आ रही है, जिसके कारण वह डॉलर के विकल्प खोज रहा है. भारत ने पिछले साल
से वैकल्पिक-मुद्रा के मार्फत कारोबार की व्यवस्था को शुरू किया है.
एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल भारत से
बांग्लादेश का आयात करीब 13.69 अरब डॉलर था, जिसमें से दो अरब डॉलर
का कारोबार भारतीय रुपये में, जबकि बाकी का भुगतान अमेरिकी डॉलर में
किया जाएगा. दोनों देशों के बीच लेन-देन किसी तीसरी करेंसी को शामिल किए बिना
टका-रुपये अब संभव होगा, इसके लिए बैंकिग व्यवस्था कर ली गई है.
अपनी करेंसी में व्यापार करने से दोनों पर अमेरिकी
डॉलर का दबाव कम होगा. बांग्लादेश इसके अलावा रूस और चीन के साथ भी स्थानीय करेंसी
में व्यापार करने को लेकर बातचीत कर रहा है.
बांग्लादेश से पहले भारत जिन 18 देशों के साथ रुपये में व्यापार करता है, उनमें
रूस, सिंगापुर, श्रीलंका,
बोत्सवाना, फिजी, जर्मनी,
गुयाना, इजराइल, केन्या,
मलेशिया, मॉरिशस, म्यांमार,
न्यूजीलैंड, ओमान, सेशेल्स,
तंजानिया, युगांडा और यूनाइटेड किंगडम शामिल हैं.
डॉलर का उदय
पहले
विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर
सामने आया था. सबसे ज्यादा सोना भी अमेरिका के पास जमा हुआ. उसके पहले तक पाउंड
स्टर्लिंग अंतरराष्ट्रीय कारोबारी मुद्रा थी. दूसरे विश्व युद्ध के बाद विश्व बैंक
और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की स्थापना से अमेरिकी डॉलर ने वैश्विक मुद्रा का
स्थान ले लिया था.
अमेरिकी
डॉलर तब स्वर्ण आधारित मुद्रा थी. साठ के दशक के उत्तरार्ध में यूरोप और जापान की
वस्तुओं ने अमेरिकी माल से प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी. इसके साथ ही डॉलर का प्रसार
पूरी दुनिया में होने लगा. रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में 1971 में डॉलर को स्वर्ण मानक से अलग कर दिया
गया. अब वह केवल कागजी मुद्रा है, स्वर्ण मुद्रा नहीं.
सन 2008 में अंतरराष्ट्रीय
मुद्राकोष ने एसडीआर के नाम से अपनी करेंसी की शुरुआत की थी. यह स्वर्ण आधारित
करेंसी है. आईएमएफ के पास सबसे ज्यादा सोना है. हालांकि मुद्राकोष इसे करेंसी नहीं
कहता, पर उसके कर्ज एसडीआर में होते हैं. कहने का मतलब है कि डॉलर के विकल्प भी
तैयार हो रहे हैं.
सोने की खरीद
रूस ने पिछले दसेक साल में काफी
सोना खरीदा है. चीन तो सबसे ज्यादा सोना खरीदता है. चीन स्वर्ण उत्पादक देश भी है.
माना जाता है कि जो मुद्रा स्वर्ण आधारित नहीं होती, वह लम्बे समय तक चलती नहीं.
अमेरिका अपनी जरूरत के हिसाब से मुद्रा छापता है.
यह बात वैश्विक मुद्रा होने के नाते
अच्छी नहीं है. इससे भारत जैसे दूसरे विकासशील देशों के हितों को ठेस लगती है,
जिन्हें और ज्यादा पूँजी चाहिए. अमेरिका और चीन की स्पर्धा के इस दौर में रूस और चीन
ने रूबल-युआन कारोबार को बढ़ावा दिया है.
विकल्पों की तलाश
अब
सुनाई पड़ रहा है कि रूस और ईरान मिलकर स्वर्ण आधारित क्रिप्टो करेंसी शुरू करने
वाले हैं. ब्राज़ील और अर्जेंटाइना एक सामान्य करेंसी
बनाने पर बात कर रहे हैं. शायद ऐसा ही सुझाव ब्रिक्स देशों के लिए है. ऐसा हुआ, तो
बड़ा बदलाव हो जाएगा.
जनवरी में सिंगापुर में हुए एक सम्मेलन में
दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ विशेषज्ञों ने डीडॉलराइज़ेशन की वकालत की। भारत और यूएई
के बीच स्थानीय मुद्रा में कारोबार करने की चर्चा है. पिछले साल नवंबर में
इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, फिलीपींस और थाईलैंड के बीच स्थानीय मुद्राओं के
मार्फत कारोबार से जुड़ा समझौता हुआ है.
इतनी जल्दी नहीं
कारोबारी मुद्रा में इतने तेज बदलाव की खबरों
के बाद भी ऐसा मान लेना सही नहीं होगा कि डॉलर का समय गया. किसी नई व्यवस्था के
कायम होने में भी दशकों का समय लगेगा. दुनिया के देशों के पास आज भी जो
विदेशी-मुद्रा है उसमें करीब 60 फीसदी अमेरिकी डॉलर में है. दो दशक पहले यह करीब
70 फीसदी थी। यानी बदलाव आ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे। चीनी मुद्रा युआन का
हिस्सा तीन फीसदी है, लेकिन यह सबसे तेजी से बढ़ रही है.
विशेषज्ञ मानते हैं कि कोई दूसरी मुद्रा अभी डॉलर
के प्रभुत्व को बदलने की स्थिति में नहीं है।
जो भी नई व्यवस्था बनेगी, उसमें शुरुआती
अराजकता के खतरे भी हैं. बेशक डॉलर का इस्तेमाल ‘आर्थिक-युद्ध’ के
रूप में करने के कारण बहुत से देश उससे हाथ खींच रहे हैं और उसकी जमीन कमज़ोर हो
रही है, पर वह अभी वैश्विक करेंसी है. फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि दुनिया का कारोबार
डॉलर-विहीन परिस्थितियों में संभव है.
अमेरिका की ताकत
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है अमेरिकी
अर्थव्यवस्था का आकार और अमेरिका के कारोबारी रिश्ते. दूसरी तरफ युआन के वैश्विक
करेंसी बनने की संभावना अभी दशकों तक नहीं है. यह सच है कि चीन ने रूस,
कजाकिस्तान, पाकिस्तान, लाओस, ब्राजील और पश्चिम एशिया के कुछ देशों के साथ युआन
के मार्फत कारोबार शुरू किया है, पर उसके परिणाम भी देखने होंगे.
युआन की अपनी कीमत डॉलर से तय होती है. फिर
युआन के आवागमन पर चीन सरकार का नियंत्रण है. वह मुक्त बाजार की मुद्रा नहीं है. दूसरे
तेल की अर्थव्यवस्था का जमाना खत्म हो रहा है. तेल की कीमत सोने की तरह मानी जाती
थी.
तेल का कारोबार
डॉलर
को चुनौती देने वाले देश तेल-समृद्ध भी थे. लीबिया, ईरान, इराक और वेनेजुएला की
तरह. इन सबके पास तेल था, जो एक जमाने तक सोने या नकदी के बराबर था. पर ये सब देश
धूल में मिल गए, क्योंकि उनके पीछे मजबूत आधार नहीं था.
अब रूस और चीन की अर्थव्यवस्थाएं
मजबूत हो रही हैं. वे तेल पर आश्रित भी नहीं हैं. रूस ने ईरान को इस बात के लिए
तैयार कर लिया है कि वह अपना तेल उसके तट से बेचे. इससे अमेरिकी प्रतिबंधों को
चुनौती मिलेगी और रूबल का सिक्का मजबूत होगा. रूस और चीन लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं.
महामारी करीब-करीब उतार पर है. अब अमेरिका
और चीन तथा रूस की प्रतियोगिता और तेज होगी. बेशक अमेरिका की ताकत का ह्रास हो रहा
है, पर वह अभी महाशक्ति है. भारत अभी बीच में बैठा इस शक्ति-द्वंद्व को देख रहा है.
हमें अपने पत्ते सावधानी से खेलने होंगे.
डॉलर के भविष्य को लेकर अमेरिका में
दो दशक पहले से विमर्श चल रहा है. पहली चुनौती यूरो की थी. अब युआन की है. पर डॉलर
अभी तक मजबूती के साथ जमा हुआ है. चुनौतियों के बावजूद निकट भविष्य में उसके पाँव
उखड़ते नज़र भी नहीं आ रहे हैं.
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