Saturday, August 8, 2015

हमारा संघवाद क्या आतंकवाद का सामना करने में आड़े आता है?

नवम्बर 2007 में संघवाद पर दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा कि संघवाद को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद तथा मौसम परिवर्तन जैसी मानव-जनित चुनौतियों से निपटने के उपाय भी खोजने होंगे। नरेंद्र मोदी सरकार ‘सहकारी संघवाद’ की बात करती है। उसका आशय भी समस्याओं के समाधान मिलकर खोजने वाली व्यवस्था से है। यह एक आदर्श स्थिति है। भारत जैसे बहुरंगी समाज के लिए संघीय ढाँचा अनिवार्यता भी है। कई बार हमारी संघ-राज्य राजनीति समाधान बनने के बजाय समस्या बन जाती है।
भारत में संघीय व्यवस्था तीन सतह पर काम करती है। केंद्र, राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र। संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था में शामिल हो गया है। संविधान के अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की व्यवस्था परिभाषित की गई है। संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक आपात उपबंधों की व्यवस्था है। अनुच्छेद 355 बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से निपटने की जिम्मेदारी केन्द्र को देता है।

समवर्ती के संदर्भ में भी संविधान केन्द्र को ज्यादा महत्व देता है। अनुच्छेद 254 के अनुसार देश में किसी विषय पर केंद्र और राज्य के दो कानून होने और उनमें टकराव होने पर केंद्रीय कानून ही लागू होता है। फिर भी समवर्ती सूची के अनेक बिंदु केंद्र-राज्य रिश्तों में जटिलता पैदा करते हैं। इनमें सबसे ज्यादा जटिल है कानून-व्यवस्था का मामला, जो मूलतः राज्य की जिम्मेदारी है।

आंतरिक सुरक्षा का बढ़ता महत्व
जब तक देश में एक ही पार्टी का शासन रहा केन्द्र-राज्य टकराव मुखर रूप में सामने नहीं आया, पर 1967 के बाद गाड़ी ढलान पर उतर गई। आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों के बँटवारे का सवाल केन्द्र-राज्य के अलावा राज्य-राज्य के बीच भी खड़ा होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेशी मामले केन्द्र के पास हैं, पर आंतरिक सुरक्षा का काम केन्द्र और राज्यों के बीच बँटा है। हाल के वर्षों में आंतरिक सुरक्षा ने राष्ट्रीय सुरक्षा से भी ज्यादा महत्व हासिल कर लिया है। इसके कारण केन्द्र-राज्य अधिकारों को लेकर टकराव पैदा हुआ है।

यूपीए शासन के दौरान गुजरात में कुछ फर्जी मुठभेड़ों को लेकर सीबीआई के मुकदमों ने इसके राजनीतिक आयाम को भी खोला था। इशरत जहाँ से लेकर सोहराबुद्दीन के मामलों में इसकी झलक दिखाई दी थी। आंतरिक सुरक्षा से जुड़े मामलों में सीबीआई का इस्तेमाल भी केंद्र-राज्य टकराव का एक बिंदु है। इन दिनों हम दिल्ली की पुलिस व्यवस्था से जुड़े विवाद से रूबरू हैं। हालांकि दिल्ली पूरी तरह राज्य नहीं है, फिर भी यह बात अटपटी लगती है कि उसकी सरकार के पास अपने इलाके की कानून-व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी क्यों नहीं है? इस मामले पर गहराई से सोचेंगे तो कारण समझ में आने लगेंगे।

एनसीटीसी की विफलता का अनुभव
हाल के वर्षों में नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी), नेटग्रिड, बीएसएफ अधिनियम और साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी कानून जैसे सवालों को लेकर केंद्र-राज्य विवाद खड़े हुए थे। राज्यों के विरोध के कारण ज्यादातर काम अधूरे रह गए। नुकसान आंतरिक सुरक्षा प्रणाली को हुआ। आतंकी हमला राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमला होता है। इसलिए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा की तरह देखना चाहिए। मोदी सरकार आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को प्राथमिकता दे रही है, पर जब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने एनसीटीसी और नैटग्रिड का विरोध किया था। उन्होंने उस वक्त इसका विरोध करने वाले मुख्यमंत्रियों का अलग समूह बनाने में कामयाबी हासिल कर ली थी।

आतंकवाद के कई रूप हैं। यह माओवाद के रूप और सीमा पार से आए आत्मघाती हमलावरों के रूप में भी है। अब यह केवल हथियारबंद आतंकवाद नहीं है, बल्कि सायबर अपराधियों के रूप में एक नए किस्म का आतंकवाद है जो हैकिंग तथा कम्प्यूटर वायरसों का सहारा लेता है। इस्लामिक स्टेट और अलकायदा जैसे संगठनों के आतंकवादी सायबर हथियारों की मदद भी ले रहे हैं। इससे निपटने की रणनीति राज्य बनाए या केन्द्र या दोनों यह विचार का विषय है।

मामूली अपराध नहीं है आतंकवाद
कानून-व्यवस्था मूलतः राज्य का विषय है। पर आतंकवाद को सामान्य कानून-व्यवस्था के दायरे में नहीं रखा जा सकता। इससे निपटने के लिए राज्यों की पुलिस को दूसरे राज्यों और केन्द्र के साथ समन्वय करना होगा। इस समन्वय के केन्द्र में कहीं न कहीं केन्द्र की भूमिका है। यह सामान्य डकैती और अपराध का मामला नहीं है। आतंकवादी हमला हवाई मार्ग से या समुद्री मार्ग से भी हो सकता है जैसा कि न्यूयॉर्क और मुम्बई में हुआ। ऐसे में सेना की मदद या उससे समन्वय की जरूरत भी होगी। सन 2012 में नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) को लेकर केन्द्र सरकार जिस तरह फँसी उसके बारे में संविधान निर्माताओं ने सोचा भी नहीं होगा कि कभी ऐसी स्थिति आएगी।

एनसीटीसी केन्द्रीय गृह मंत्रालय की एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी, जो गृहमंत्री पी चिदंबरम की पहल पर बनी थी। आतंकवाद से जुड़े मामलों के लिए ये सेंटर, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी), रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ), ज्वायंट इंटेलिजेंस कमेटी और राज्यों की खुफिया एजेंसियों के लिए नोडल एजेंसी का काम करते। ये सभी  एजेंसियां आतंकवाद से जुड़े मामलों में एनसीटीसी को रिपोर्ट करतीं। इन सेंटरों को सन 2010 में ही बन जाना चाहिए था, जो नहीं बन पाए।

राजनीति की बेरुखी
ऐसी संस्था की ज़रूरत 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद महसूस की गई थी। इसके साथ ही राष्ट्रीय जाँच एजेंसी बनाने का फैसला भी हुआ, जिसकी स्थापना सन 2009 में हो गई। उसी समय तय हुआ था कि एक नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) बनाया जाएगा, जिसका काम खुफिया सूचनाओं के विश्लेषण तथा रख-रखाव का होगा। यह नैटग्रिड अभी बन ही रहा है। इस सुस्ती के पीछे केवल संघीय व्यवस्था ही नहीं है, दूसरे कारण भी हैं। 26/11 के बाद अफरा-तफरी में जब दिसम्बर 2008 में अवैधानिक गतिविधि कानून में संशोधन किया जा रहा था बहस तब होनी चाहिए थी। विडंबना है कि यह संशोधन सिर्फ एक दिन की बहस के बाद 11 दिसम्बर 2008 को पास कर दिया गया था। लोक सभा में जिस वक्त इसे पेश किया गया था तब सदन में 50 सदस्य उपस्थित थे। इसे पास करते वक्त विपक्षी सदस्यों ने प्रतिवाद तब नहीं किया था।

भारत सरकार ने सन 1 मार्च 2012 से एनसीटीसी को शुरू करने की अधिसूचना जारी कर दी थी। इसका कई राज्यों ने विरोध किया। बंगाल की ममता बनर्जी, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक इसके विरोध में आगे आए। उनका कहना था कि ऐसी संस्था देश के संघीय ढांचे के विरुद्ध है। इसके बाद केन्द्र सरकार ने मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें समझाने की कोशिश की, पर कुछ हुआ नहीं। चिदम्बरम ने यह सफाई दी कि राज्यों के आतंक विरोधी दस्तों के मार्फत ही एनसीटीसी काम करेगा। इसकी स्थायी परिषद में सभी राज्यों की पुलिस के महानिदेशक शामिल होंगे।

राजनीति हो, पर कुशल हो
इस मामले में केन्द्र सरकार से चूक यह हुई थी कि उसने राज्यों के साथ विचार-विमर्श करने के बजाय इसकी अधिसूचना जारी कर दी, जिससे मामला भड़क गया। भारत जैसे राजनीतिक विविधता वाले देश में आतंकवाद का सामना करने वाली राजनीति को भी विकसित करने की जरूरत होगी। आंतरिक सुरक्षा और राजनीति में आपसी टकराव नहीं है। दोनों का उद्देश्य नागरिकों का हित है। इसमें टकराव से ज्यादा समन्वय की जरूरत है। दिक्कत यह है कि चाहे राज्य हो या केन्द्र सुरक्षा से जुड़े संगठन राजनीतिक हस्तक्षेप से पीड़ित रहते हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो को भी राजनेताओं के दबाव में काम करना होता है। इसके अलावा सुरक्षा एजेंसियाँ आपसी खींचतान में लगी रहती हैं। मुम्बई में 26 नवम्बर 2008 के हमले के बाद इन एजेंसियों के बीच के टकराव देखने को मिला। संगठनों के समन्वय का यह हाल है कि हमने पाकिस्तान को जिन वांछित अपराधियों की सूची सौंपी उसमें हास्यास्पद विसंगतियाँ थीं। यह सब हमारी अकुशलता की निशानी है।

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

1 comment:

  1. संघवाद से ज्यादा कठिनाई हमारे राजनीतिज्ञों पैदा की है है , जिस पर पर वाजिब नियंत्रण लगना जरुरी है , लेकिन स्वतंत्रता के नाम पर पर हमारे दल, नेता व मीडिया इस प्रकार का का माहौल उत्पन्न कर रहें हैं , कि इसकी लड़ाई कमजोर होती जा रही है , सम्प्रदाय के नाम पर इनका संरक्षण इसको बढ़ावा दे रहा है , जो शर्मनाक व चिंताजनक है

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