Sunday, August 9, 2015

कहाँ हो भारत भाग्य विधाता?

रघुवीर सहाय की कविता है :-

राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।

कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं :-

कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।

वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है। क्या उसे जागी हुई जनता कहना चाहिए? जागने का मतलब आवेश और तैश नहीं है। अभी हम या तो खामोशी देखते हैं या भावावेश से। दोनों ही गलत हैं। सही क्या है, यह सोचने का समय आज है। आप सोचें कि 9 और 15 अगस्त की दो क्रांतियों का क्या हुआ।

अगस्त का यह महीना चालीस के दशक की तीन तारीखों के लिए खासतौर से याद किया जाता है। सन 1942 की 9 अगस्त से शुरू हुआ ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन 15 अगस्त 1945 को अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा था। भारत आज़ाद हुआ। 1942 से 1947 के बीच 1945 के अगस्त की दो तारीखें मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं के लिए याद की जाती हैं। 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया गया। फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया। इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया। इस साल दुनिया उस बमबारी की सत्तरवीं सालगिरह मना रही है। जापानी संसद विश्व युद्ध के बाद के अपने सबसे लम्बे सत्र में सबसे गहन विचार-विमर्श में जुटी है। इस साल 1 जून को शुरू हुए इस सत्र का समापन जून के आखिरी हफ्ते में हो जाना चाहिए था, पर उसे 95 दिन के लिए 27 सितम्बर तक बढ़ा दिया गया है। वजह है देश की सुरक्षा से जुड़े 10 कानूनों में संशोधन। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से जापानी संविधान के अनुच्छेद 9 के तहत व्यवस्था कर दी गई थी कि जापान भविष्य में युद्ध नहीं करेगा। पर अब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे जापान इन कानूनों में बुनियादी बदलाव करना चाहते हैं। यह काम आसान नहीं है। जापान गम्भीर चिंतन कर रहा है।

जापान को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने द्वितीय विश्व युद्ध की पराजय और विध्वंस का सामना करते हुए पिछले सत्तर साल में एक नए देश की रचना कर दी। वह आज भी दुनिया की तीसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था है। भले ही चीन उससे बड़ी अर्थव्यवस्था है, पर तकनीकी गुणवत्ता में चीन अभी उसके करीब नहीं हैं। भारत और जापान की संसदें दो तरह के अनुभवों से गुजर रही हैं। जापान की संसद पिछले सत्तर साल के इतिहास का सबसे लम्बा विमर्श कर रही है। हमारी संसद में शोर है। यह राजनीति है और इसकी ताली भी दो हाथ से बजती है। हमारी राजनीति किस दिशा में जा रही है? शोर ही सही, पर क्या हमारे विमर्श में गम्भीरता है? क्या हम भविष्य को लेकर सचेत हैं?

यह अगस्त क्रांति का महीना है। सन 1942 में देश ने निश्चय किया था कि पूरी आजादी से कम हमें कुछ नहीं चाहिए। आधुनिक भारत के इतिहास में वह गम्भीर विमर्श का दौर था। संयोग से पिछले पाँच साल हमारे लिए भी चुनौतियाँ लेकर आए हैं। सन 2011 की जनवरी में ट्यूनीशिया और मिस्र में खड़े हुए जनांदोलनों के साथ हमारे देश में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। हालांकि उस आंदोलन के साथ गम्भीर विमर्श नहीं चला, पर उसमें जनता की भागीदारी थी। उस साल 15 अगस्त को अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के बाद गुस्से की जो लहर दौड़ी उसके कारण 30 अगस्त को संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने का संकल्प पास किया गया।

उसके बाद 13 मई और दिसम्बर 2012 तक भारतीय संसद को विचार-विमर्श के कई मौके मिले। एक मौका दिसम्बर 2011 में लोकपाल विधेयक पर बहस के दौरान आया। लोकपाल कानून बन गया, पर उसके पास होते समय ही समझ में आ गया कि इसके पीछे लोकसभा का चुनाव है, व्यवस्थागत बदलाव नहीं। शायद इसीलिए आज तक हमारा लोकपाल आया नहीं है। आपने कभी सोचा कि कहाँ है आपका लोकपाल? हम राष्ट्रीय महत्व के सवालों पर टिक नहीं पा रहे हैं। कभी एक सवाल उठता है तो कभी दूसरा। दिसम्बर 2012 में दिल्ली रेप कांड ने चर्चा का रुख दूसरी ओर घुमाया और सीमा पर सैनिकों की गर्दन काटे जाने के मामले ने तीसरी ओर। ये सब बातें आवेश से भरे थीं, विचार-विहीन।

संसद हमारे विमर्श का सर्वोच्च मंच है। 13 मई, 2012 को उसके 60 वर्ष पूरे होने पर उसकी विशेष सभा हुई। इस सभा में सांसदों आत्म-निरीक्षण किया। उन्होंने संसदीय गरिमा को बनाए रखने और कुछ सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर और संसद का समय बर्बाद होने पर चिंता जताई और यह संकल्प किया कि यह गरिमा बनाए रखेंगे। यह भी कहा गया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य करेंगे। यह संकल्प उस साल ही टूट गया। संसद को अपनी गरिमा को लेकर क्यों चिंतित होना पड़ा? और चिंता की तो उसका रास्ता क्या निकला? आप कह सकते हैं कि यह राजनीति की देन है।

फरवरी 2014 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दफा 144 को तोड़कर धरने पर बैठे। केजरीवाल नई राजनीति के ध्वजवाहक हैं। उनके कानून मंत्री ने छापा मारकर कुछ विदेशी महिलाओं के व्यवहार को लेकर हंगामा किया था। केजरीवाल की तरह आंध्र के मुख्यमंत्री किरण कुमार भी तेलंगाना के सवाल पर धरने पर बैठे थे। पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र में किसी ने सदन में ‘पैपर-स्प्रे’ चलाया। किसी ने चाकू भी निकाला। तेलंगाना बिल को पास कराने के लिए लोकसभा टीवी ब्लैक के कैमरे ऑफ किए गए। यह बात अभूतपूर्व थी। यह ‘लोकतांत्रिक दृश्य’ जनता को दिखाने लायक नहीं समझा गया। सन 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में खूंरेज़ी हुई थी। तब वह अपने किस्म की पहली घटना थी। उसके बाद से ऐसा कई जगह हुआ।

गम्भीर संसदीय बहस की परम्परा खत्म हो रही है। राजनीतिक दलों के पास या तो अच्छे वक्ता नहीं हैं या उनकी जरूरत नहीं समझी जाती। पर जनता की शिकायत केवल राजनीति से नहीं है। उसे विमर्श के वाहक पत्रकारों और मीडिया से भी शिकायत है। उसे अपने आप से भी शिकायत करनी होगी। हाल में एक सभा में पत्रकारिता की मौजूदा प्रवृत्तियों पर चर्चा हो रही थी। लोगों को मीडिया से, पत्रकारों और सम्पादकों से शिकायतें थीं। एक पत्रकार ने सभा में मौजूद दर्शकों से सवाल किया, आपको शिकायत है तो अखबारों को पत्र क्यों नहीं लिखते? हम जो संजीदा बातें लिखते हैं क्या आप उन्हें पढ़ते हैं? आपकी भी तो कोई भूमिका है? अपनी भूमिका निभाएं। हस्तक्षेप करें। हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. achcha lekh hai Bharat ka bhagya vidhaata to Eshavar hi hai loktantra to ek spna hai
    janta kai liye nahi hai shayad

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