Thursday, August 6, 2015

पूर्वोत्तर का महत्त्व बढ़ेगा

नगालैंड का शांति समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ भारत अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है. उधर का रास्ता पूर्वोत्तर से होकर गुजरता है, जो देश का सबसे संवेदनशील इलाका है. सब ठीक रहा तो यह समझौता केवल नगालैंड की ही नहीं पूरे पूर्वोत्तर की कहानी बदल सकता है. एनएससीएन (आईएम) के साथ समझौते की जिस रूपरेखा पर दस्तखत किए गए हैं, उसकी शर्तों की जानकारी अभी नहीं है। उम्मीद है कि 18 साल के विचार-विमर्श ने इस समझौते की बुनियाद पक्की बना दी होगी.

सरकार ने इस मामले में काफी सावधानी से कदम रखे हैं. समझौते पर दस्तखत से पहले प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुलायम सिंह यादव, मायावती, शरद पवार, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, जे जयललिता, नगालैंड के मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और दूसरे राजनेताओं के साथ बात की थी. इसलिए समझौते को लेकर आंतरिक राजनीति में विवाद का अंदेशा नहीं है. अलबत्ता इसके पूरी तरह लागू होने से पहले कुछ सवाल जरूर हैं.

पहला सवाल है कि इस समझौते के चार महीने पहले नगालैंड के दूसरे संगठन एनएससीएन (के) ने संघर्ष विराम को तोड़ने की जो घोषणा की थी क्या उसका कोई असर होगा? एनएससीएन (के) के अलावा नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और दूसरे छोटे-मोटे दूसरे संगठन भी हैं. उनकी प्रतिक्रिया का पता नहीं लगा है. क्या एनएससीएन (के) से समझौता टूटना इस समझौते का आधार बना? क्या नगा गुट वृहत्तर नगालैंड की माँग वापस लेने को तैयार हैं?

पूर्वोत्तर में असम, त्रिपुरा, नगालैंड, मणिपुर और अरुणाचल में अलग-अलग किस्म की समस्याएं हैं. ये इलाके मुख्यधारा से कटे रहे हैं. यहाँ के बागी गुटों के साथ समझौतों का लम्बा इतिहास है. यह भी सच है कि ज्यादातर समझौते विफल रहे हैं. अलबत्ता सन 1986 का मिजोरम समझौता अबतक का सबसे सफल समझौता रहा. यह भी सच है कि पूर्वोत्तर के नौजवान नए भारत की मुख्यधारा में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उनके मन में भी आगे जाने की ललक है. वे भी बदलते भारत के साथ अपने जीवन में बदलाव के सपने देखने लगे हैं. फिर भी इस इलाके में भारतीय राष्ट्र-राज्य की उपस्थिति कमजोर है. तमाम बागी गिरोह यहाँ अपनी समांतर सरकारें चलाते हैं. व्यापारी, कारोबारी और सरकारी कर्मचारी तक उग्रवादी संगठनों को टैक्स देते हैं.

जून के महीने में मणिपुर के चंदेल जिले में भारतीय सैनिकों पर हुए हमले के कारण देश का ध्यान उधर गया था. हमले के कुछ घंटों में दो उग्रवादी संगठनों-उल्फा (आई) और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खपलांग) यानी एनएससीएन (के) ने इस हमले की साझा जिम्मेदारी ली थी. शुरू में लगता था कि इसके पीछे मणिपुर के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और माइती गिरोह कांगलेई यावोल कन्ना लुप (केवाईकेएल) का हाथ है. अंततः इनके अम्ब्रेला संगठन युनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ वेसिया (यूएनएफएलडब्लू) ने जिम्मेदारी ले ली, जिससे इस हमले का आयाम बड़ा हो गया था.

इस हमले के पहले मई में इस संगठन ने नगालैंड में असम रायफल्स के जवानों पर हमला किया था, जिसमें सात जवान शहीद हुए थे. यह इस इलाके के कई गिरोहों को मिलाकर बनाया गया संगठन है, जिसका लक्ष्य इस इलाके में भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों को तोड़कर ‘पश्चिमी दक्षिण पूर्व एशिया’ नाम से एक नया देश बनाना है. म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश में भारत-विरोधी गतिविधियों को हवा मिलती है.

भारत सरकार ने बांग्लादेश और म्यांमार के साथ रिश्तों के महत्व को देर से समझा है. म्यांमार को भरोसे में लिए बगैर आसियान देशों के साथ हमारे रिश्ते नहीं बन सकते. अब जब इस इलाके में आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ाने की बात चल रही है, सहयोग की जरूरत बढ़ गई है. मणिपुर में सेना पर हमले के बाद भारतीय सेना ने म्यांमार में जो कार्रवाई की वह इसी सहयोग के कारण सम्भव हो पाई थी.

म्यांमार की भारत से लगी पश्चिमी सीमा पर दर्जनों उग्रवादी संगठन खड़े हैं. पूर्वोत्तर की लगभग 5,000 किलोमीटर की सीमा बांग्लादेश, म्यांमार, चीन, नेपाल और भूटान की सीमाओं से जुड़ी है. यह इलाका शेष भारत के साथ 22 किलोमीटर चौड़े एक कॉरिडोर से जुड़ा है जो ‘चिकन नेक’ या फिर ‘सिलीगुड़ी नेक’ के नाम से जाना जाता है. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी से इस इलाके को भारतीय मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिशें हो रहीं हैं, पर इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिली है. इसकी एक वजह यह भी है कि आज भी पूर्वोत्तर को जोड़ने वाली न तो अच्छी सड़कें हैं और न रेल लाइनें.

भारत की बहुचर्चित ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ तब तक निरर्थक है जब तक इस इलाके को मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जाएगा. इस लिहाज से नगालैंड का यह समझौता बड़े बदलाव की भूमिका तैयार कर सकता है. पर क्या टी मुइवा और इसाक चिशी स्वू का इतना प्रभाव है कि वे इस इलाके को मुख्यधारा से जोड़ सकें? हमें नगा नेतृत्व के अंतर्विरोधों को भी समझना होगा. यह भी समझना होगा कि एस एस खपलांग के गुट ने मार्च में अपना युद्ध विराम समझौता क्यों तोड़ा. शायद मुइवा गुट से बातचीत शुरू होने के कारण यह सम्पर्क टूटा. क्या मुइवा गुट का रुख पहले से नरम हुआ है? खपलांग गुट पहले इनके साथ ही था. इनके मतभेदों का कारण क्या है?

नगा गुटबाजी से ज्यादा इस फैसले का राजनयिक महत्व है. भारत चीन और आसियान देशों के साथ अपने रिश्ते पुनर्परिभाषित कर रहा है. रिश्ते बढ़ाने के लिए रास्ते बनाने होंगे, जो इस इलाके से होकर गुजरेंगे. इस साल जून में खबर आई थी कि चीन ने म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते प्राचीन ‘रेशम मार्ग’ को फिर से शुरू करने के अपने प्रयासों के तहत कुनमिंग और कोलकाता के बीच एक हाई स्पीड रेल लाइन बिछाने की इच्छा जताई है. कुनमिंग में ग्रेटर मीकांग सब-रीजन (जीएमएस) सम्मेलन में इस प्रस्ताव पर चर्चा की गई, जिसमें बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) मल्टी-मोडल गलियारे को प्रोत्साहन देने पर बल दिया गया.

इधर 15 जून को थिम्पू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआईएन) हुआ. इसी तरह बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के अलावा म्यांमार तथा थाईलैंड भी हैं. सितम्बर 2014 में भारत यात्रा पर आए चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने दक्षिणी सिल्क रोड को पुनर्जीवित करने में अपनी दिलचस्पी दिखाई जिसे थी, बीसीआईएम (बांग्लादेश, चीन, म्यांमार, भारत) कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है.

पिछले साल नवम्बर में म्यांमार में हुए आसियान शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने ‘लुक ईस्ट के बजाय एक्ट ईस्ट’ नीति पर चलने की घोषणा की थी. इस लिहाज से आने वाले समय में यह इलाका आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बनेगा. इस समझौते को मोदी की उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. इसकी घोषणा करते समय गृहमंत्री भी उपस्थित थे, पर स्पष्ट है कि इसमें पीएमओ और उनके सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की मुख्य भूमिका रही. अभी तक विदेशी मामलों में ही प्रधानमंत्री सीधे फैसले कर रहे थे. ऐसी कुछ और बातों ने ध्यान खींचा है. यह ठीक से लागू हो जाए तब बात है.

प्रभात खबर में प्रकाशित

4 comments:

  1. समस्या यह है कि क्या कांग्रेस इसको सफल होने देगीअसम के सी ऍम पहले ही कुछ ब्यान बाज़ी कर चुके हैं.

    ReplyDelete
  2. हमारे विपक्ष को तो इसमें भी नाराजगी है , प्रजातंत्र मेंमें विपक्ष का अपना स्थान है , उसका जरुरी है, उसे कहनी चाहिए,लेकिन हमारे विपक्ष को तो से बर्खास्तगी गले नहीं उतर रही, बहुत आहत है, और इस कारण वह देश के विघटन करने या ऐसी कार्यवाही को बढ़ावा देने में संकोच व शर्म नहीं ,बहुत ही लज्जा जनक है उसका चरित्र ,

    ReplyDelete
  3. desh kai sabhi bhag mahtvpoorn hai purvottar par smjhoto ki shuruaat huai hai achche parinnam aa sakate hai

    ReplyDelete