Monday, November 25, 2013

चुनाव रैलियों में भीड़ क्यों नहीं जाती?

जयपुर का रामलीला मैदान अपेक्षाकृत छोटा है। तकरीबन बीस हजार वर्ग फुट क्षेत्र में मंच की जगह छोड़ने के बाद ज़मीन पर बैठें तो छह हजार के आसपास दर्शक आएंगे। गुरुवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जयपुर सभा जान-बूझकर रामलीला मैदान में रखी गई थी। आयोजकों ने मैदान में तीन हज़ार कुर्सियाँ फैलाकर लगाई थीं। मनमोहन सिंह के नाम पर यों भी भीड़ नहीं उमड़ती। उम्मीद थी कि शहर के बीच में होने के कारण और फिर देश के प्रधानमंत्री के नाम पर कुछ लोग तो आएंगे।ऐसा हुआ नहीं। तकरीबन 1200 सुरक्षा कर्मियों की उपस्थिति के बावज़ूद मैदान भरा नहीं था।

हाल में नरेंद्र मोदी की भोपाल-रैली में भी भीड़ उम्मीद से काफी कम थी। दो महीने पहले इसी जगह पर नरेंद्र मोदी को सुनने के लिए लाखों लोग जमा हो गए थे। इस बार पाँच-छह हज़ार के आसपास थे। सागर, छतरपुर और गुना में हुई उनकी रैलियों में भी उम्मीद से कम लोग थे। हाल में दिल्ली में राहुल गांधी की सभा में दर्शक भाषण शुरू होने के पहले ही खिसकने लगे। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हाथ जोड़कर निवेदन करना पड़ा, कृपया रुक जाएं। मोदी और राहुल की सभाओं का यह हाल है तो बाकी का क्या होगा? खबर है कि भोजपुर में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, शमशाबाद में मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं की सभाओं से भीड़ नदारद थी। शरद यादव ने पेटलावद में हेलिकॉप्टर से झांककर देखा तो सौ लोग भी नहीं थे और वे आसमान में ही वापस थांदला लौट गए। उनकी जबलपुर सभा में भी लोग काफी कम थे। अब लोग हेलिकाप्टर देखने भी नहीं आते।

राहुल गांधी की दिल्ली की दक्षिणपुरी में हुई फीकी रैली से पार्टी नेता और विधानसभा चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी सकते में हैं। वे आला नेताओं से गुजारिश करने लगे हैं कि उनके इलाके में किसी बड़े नेता की चुनावी सभा न कराई जाए। प्रत्याशी घबराने लगे हैं। दिल्ली में एक अख़बार के संवाददाता ने करीब आधा दर्जन उन विधायकों से बात की जो इस बार भी चुनाव लड़ रहे हैं। उनका कहना है कि इस चुनाव में बड़े नेताओं की रैली कोई खास असर नहीं छोड़ रही है।ज्यादा अच्छा है कि हम खुद अपने इलाकों में किए गए विकास कार्यों और दिल्ली सरकार की उपलब्धियों के नाम पर लोगों से वोट माँगें।

पिछले कुछ साल से लोक सभा और विधान सभा चुनावों में एक नया चलन देखने को मिल रहा है। भीड़ जुटाने के लिए नेताओं के भाषण के पहले लड़कियों का नाच कराया जाता है। इन लड़कियों को अब बार गर्ल्स कहा जाने लगा है। पुराने नामों के मुकाबले हालांकि यह शालीन नाम है, पर यह नाच पाखंड की परतों में छिपा है।कई जगह लोक गायकों, स्थानीय जादूगरों, कॉमेडियनों और बहुरूपियों की मदद भी ली जाती है। इस माने में चुनाव परम्परागत मेलों और समारोहों की जगह ले रहे हैं। सुदूर इलाकों में गाँवों से लोग जिस तरह सज-सँवर कर निकलते हैं लुभावना है। लोकतंत्र के जीवंत होने के लिए ज़रूरी है जनता की भागीदारी। मतदान के प्रतिशत को देखें तो वह बढ़ रहा है। हाल में छत्तीसगढ़ में सत्तर फीसदी के आसपास वोट पड़े। वोटर की दिलचस्पी बढ़ रही है, पर क्या वजह है कि वह सभाओं में नहीं आना चाहता?
पहली बात नागरिक को विचार और प्रचार का फर्क समझ में आने लगा है। उसके लिए अब अनेक बातें अनोखी नहीं रहीं। हेलिकॉप्टर, मोटर गाड़ियाँ सिनेमा शो उनके लिए अजूबा नहीं रहे। अब तो फिल्मी कलाकारों का क्रेज़ भी नहीं रहा। मीडिया की पहुँच बढ़ने की वजह से वे तमाम सितारों को लगातार सामने देखते रहते है। टेलीविजन के कारण नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी के भाषण लोग दिन भर सुन रहे हैं। सीधा प्रसारण हो रहा है। जब टीवी पर दिखाई पड़ रहा है तो कई किलोमीटर बैलगाड़ी खींचकर क्यों जाएं? खबरों और बहसों में वही बातें दोहराई जाती हैं। एक नेता हर दूसरी, तीसरी सभा में एक ही बात कहता है।

राष्ट्रीय नेतास्थानीय मुद्दों पर बोलते नहीं हैं।स्थानीय बोलियों और मुहावरों से वे अपरिचित होते हैं। श्रोता के जीवन से खुद को जोड़ते नहीं। लोग मुद्दों या उनके संदर्भों अपने जीवन से जोड़ते हैं। राष्ट्रीय नेताओं का होमवर्क नहीं होता कि वे हर क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक समझ के अनुसार अपनी बात रखें। बड़े नेताओं के भाषण तैयार करने वाली मशीनरी अलग होती है। वे अक्सर गलती करते हैं जैसी इधर नरेंद्र मोदी ने की। मीडिया की प्रवृत्ति पर गौर करें तो पाएंगे कि वह तेज़ी से एजेंडा बदलता है। चलती बस में बलात्कार, नरेंद्र मोदी, सीबीआई का तोता होना, दागी सांसद, राहुल का फाड़कर फेंक दो बयान, सचिन का संन्यास, भारत रत्न, तरुण तेजपाल, आप का स्टिंग।


देखते-देखते मसले और मसाले बदल रहे हैं।पर सार्वजनिक विमर्श ज़मीन पर नहीं है। हिटलरी जर्मनी के बंद समाज में या स्वीडन और नॉर्वे के खुले समाज में यह संवाद किसी न किसी रूप में चला। बदलाव का सहारा यही संवाद है। जर्मन समाज विज्ञानी जर्गन हैबरमास ने इस पब्लिक स्फीयर की बदलती प्रवृत्ति पर काम किया है। सभाओं में बढ़ती या घटती भीड़ के कारणों को जानने की कोशिश की जानी चाहिए। चुनाव के मौके पर सार्वजनिक चेतना का स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। हम अपने मसलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। घरों से लेकर चायघरों तक हम कुछ फैसले करते हैं। इस बढ़ी हुई चेतना का लाभ लोकतांत्रिक व्यवस्था को मिलना चाहिए। चुनाव सभाओं की जगह स्थानीय स्तर पर टाउन हॉल मीटिंगें उपयोगी हो सकती हैं। वे क्यों नहीं होतीं?स्थानीय मीडिया इस काम में मदद कर सकता है। उसे बताना होगा कि जनता के मसले क्या हैं और समाधान किसके पास हैं। यह लोकतंत्र का सवाल है। बड़ी रैलियाँ प्रचार का माध्यम हैं। वे समाधान नहीं देतीं। जनता के लिए वे तमाशा हैं। तमाशे से मन भर गया तो वह उनमें नहीं जाती। 
अमर उजाला में प्रकाशित

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