मंगलयान अभियान के बारे में मीडिया की अपेक्षाकृत बेहतर
कवरेज के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इसके बारे में काफी कम जानते हैं। जानते भी
हैं तो यही कि कब यह धरती की कक्षा से बाहर निकलेगा और किस तरह से मंगल की कक्षा
में प्रवेश करेगा। काफी लोगों को यह समझ में नहीं आता कि इस सब की ज़रूरत क्या है।
मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? हम पता नहीं लगाते तो अमेरिका और रूस वाले लगाते। मंगल के
पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर
क्या मिला? इससे बेहतर होता कि हम कुछ गरीबों के बच्चों की
पढ़ाई का इंतज़ाम करते। पीने के पानी के बारे में सोचते। भोजन, दवाई का इंतज़ाम
करते। यह सवाल भी उन लोगों के मन में आया है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी
कवरेज से बाहर निकल कर कुछ सोचने-समझने की फुरसत है। भारत के बाहर कुछ लोगों को
लगता है कि हमने चीन से प्रतिद्विंदता में यह अभियान भेजा है। देश की राजनीति से
जुड़ा पहलू भी है। शायद यूपीए सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाने के लिए मंगलयान
भेजा है। पिछले साल जुलाई में इस अभियान को स्वीकृति मिली। 15 अगस्त को
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इसकी घोषणा की और आनन-फानन इसे भेज दिया गया।
मंगलयान पहले ट्रांसफर ऑर्बिट में जाएगा और फिर पूरी तरह
मंगल के ऑर्बिट में जगह लेगा। यह काफी मुश्किल काम है। इसकी शुरूआत 30 नवम्बर से
होगी। जब यह यान धरती के प्रभाव क्षेत्र से पूरा तरह बाहर आ जाएगा तब यह मंगल की
ओर रुख करेगा। इस दौरान मंगल अपने यात्रा पथ पर धरती के करीब आता जाएगा। अंततः यह
मंगल की कक्षा में प्रवेश करेगा। हम ज्यादा से ज्यादा इसे 380 किलोमीटर गुणा
80,000 किलोमीटर की कक्षा में इसे स्थापित कर पाएंगे। धरती से मंगल तक संकेत
पहुँचने में लगभग 12 मिनट लगते हैं। इसलिए ऑर्बिटर को संकेत भेजने वालों को बारीक
गणनाएं करनी होंगी। साथ ही यान की दिशा पर नज़र रखनी होगी। सितम्बर 2014 में जब यह
मंगल की कक्षा में अच्छी तरह स्थापित हो जाएगा तभी हम उसे सफल कहेंगे। पर इसमें दो
राय नहीं कि इसने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के
मुकाबले इसका खर्च दसवें हिस्से के बराबर है। इसमें वक्त भी नासा के मुकाबले
एक-तिहाई लगेगा। सस्ता होने के पीछे कई वजहें हैं। पैसे, वक्त और
संसाधनों का सोच-समझकर इस्तेमाल, बढ़िया
प्लानिंग और चौबीसों घंटे काम के लिए तैयार रहना प्रमुख वजहों में से है। इन चीजों
के अलावा टेक्नॉलजी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल, फिजीकल मॉडल का कम से कम इस्तेमाल भी महत्वपूर्ण है।
क्या हमने जल्दबाज़ी की है?
जल्दबाज़ी कहें या सामयिक हस्तक्षेप, यह हमारे दृष्टिकोण पर
निर्भर करता है। भारत का यह अभियान कई कारणों से बड़ी चुनौती है। सबसे बड़ी चुनौती
है अपेक्षित पावर की कमी। मूल रूप में जब इस अभियान की योजना बनाई गई थी तब सोचा
गया था कि हमारा जीएसएलवी रॉकेट पूरी तरह सफल हो चुका होगा। पर स्वदेशी
क्रायोजेनिक इंजन के विकास में देरी के कारण इसे पीएसएलवी-एक्सएल पर रखकर छोड़ा
गया। जीएसएलवी का तीसरा चरण क्रायोजेनिक इंजन है। यही चरण मंगलयान को मंगल की कक्षा
तक ले जाता। अब जो मंगलयान भेजा गया है उसका वज़न 1350 किलोग्राम के आसपास है। यदि
जीएसएलवी पर रखकर भेजा जाता तो तकरीबन 1800 किलोग्राम तक का मंगलयान होता, जिसमें
बेहतर उपकरण होते, जिनके कारण मंगल ग्रह का बेहतर अध्ययन हो पाता। साथ ही ज्यादा
ताकतवर रॉकेट की मदद से उसे मंगल की ज्यादा नजदीकी कक्षा में ले जाया जा सकता था। अभी
यह मंगल की 380 किलोमीटर की अपोजी और 80,000 किलोमीटर की पेरिजी वाली अंडाकार
कक्षा में जा पाएगा। एक अनुमान था कि भारत मंगलयान भेजने के पहले जीएसएलवी का
परीक्षण करेगा, पर अब उस परीक्षण की सम्भावना दिसम्बर से फरवरी के बीच की है। यदि
हम यह मिशन अभी नहीं भेजते तो दो साल बाद ही भेज पाते, क्योंकि मंगल यात्रा के लिए
दो साल बाद ही मौका मिल पाता है।
स्पेस रिसर्च भविष्य का विज्ञान है। अनेक वैज्ञानिक प्रयोग
केवल अंतरिक्ष में ही हो सकते हैं। दुनिया की अनेक समस्याओं के समाधान अंतरिक्ष
में प्राप्त किए जा सकते हैं। अगले 500 साल में मंगल ग्रह धरती के लिए महत्वपूर्ण
संसाधन के रूप में काम करेगा। यों भी सुदूर अंतरिक्ष में जाने के लिए या सौरमंडल
से बाहर निकलने के लिए हमें अंतरग्रहीय यात्रा की तकनीक विकसित करनी होगी।
क्या करेगा मंगलयान
मंगलयान एक ऑर्बिटर यानी मंगल ग्रह के चारों और घूमने के
लिए तैयार किया गया एक उपग्रह है, जो कुछ वैज्ञानिक प्रयोग करेगा। इसमें सबसे
महत्वपूर्ण है मीथेन गैस के चिह्न हासिल करना। मीथेन गैस मिलने का मतलब है कि वहाँ
जीवन की सम्भावना। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण काम है उस तकनीक को विकसित करना जो
दूसरे ग्रहों की यात्रा से जुड़ी है। मसलन धरती की कक्षा को छोड़कर दूसरे ग्रहों
की कक्षा में प्रवेश करना। यह काफी मुश्किल काम है। अंतरिक्ष यात्राओं के इतिहास
में सबसे ज्यादा विफलताएं मंगल अभियानों के नाम ही दर्ज हैं। दुनिया में केवल
अमेरिका, रूस और यूरोपियन स्पेस एजेंसी ही इस काम में सफल हुए हैं। सन 2011 में
चीन ने रूस की मदद से कोशिश की थी जो विफल रही। भारत ने चन्द्रयान में सफलता हासिल
करके इस तकनीक में महारत हासिल की है। वह इस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है। इसके
पीछे वैज्ञानिक शोध के अलावा आर्थिक कारण भी छिपे हैं। दुनिया का स्पेस बाज़ार इस
वक्त तकरीबन 300 अरब डॉलर का है। इसमें सैटेलाइट प्रक्षेपण, उपग्रह बनाना, ज़मीनी
उपकरण बनाना और सैटेलाइट ट्रैकिंग वगैरह शामिल हैं। टेलीकम्युनिकेशन के साथ-साथ यह
दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता कारोबार है। हमने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सही समय
से प्रवेश किया और आज हम दुनिया के लीडर हैं। स्पेस टेक्नॉलजी में भी हम सफलता
हासिल कर सकते हैं। हमारा पीएसएलवी रॉकेट दुनिया के सबसे सफलतम रॉकेटों में एक है
और उससे प्रक्षेपण कराना सबसे सस्ता पड़ता है। वैसे ही जैसे हमारे डॉक्टर दुनिया
में सबसे बेहतरीन हैं और भारत में इलाज कराना सबसे सस्ता पड़ता है।
वस्तुतः इस प्रयोग में भारत के वैज्ञानिक मंगल ग्रह के
अध्ययन के मुकाबले उन जटिल तकनीकों में महारत हासिल करने की कोशिश करेंगे जो
मंगलयान को धरती से मंगल की कक्षा तक ले जाने के लिए चाहिए। चंद्रयान के लिए लगभग
यही ऑर्बिटर भेजा गया था। मंगलयान सफल हुआ तो शुक्र तथा दूसरे अन्य ग्रहों के लिए
अभियान भेजे जाएंगे। जीएसएलवी की सफलता के बाद भारत समानव उड़ान की तैयारी करेगा।
सन 2007 में हम स्पेस रिएंट्री कैप्स्यूल एसआरई-1 का परीक्षण कर चुके हैं। अब उसके अगले परीक्षण की तैयारी है। समानव उड़ान के लिए हमें अंतरिक्ष में भेजने के अलावा
वापसी की यात्रा की तकनीक भी विकसित करनी होगी। स्पेस तकनीक पूरे अंतरिक्ष के
माहौल से जुड़ी है। उसके एक-एक पहलू का अध्ययन ज़रूरी है। अब जल्द ही भारत सूर्य
की ओर जाने वाले अपने आदित्य-1 प्रोब की घोषणा करने वाला है।
क्या यह गरीब भारत को शोभा देता है?
भारत जैसे गरीब देश के लिए क्या अंतरिक्ष यात्रा उचित है? ऐसी यात्राओं के आलोचक कहते हैं कि इन साधनों का इस्तेमाल हमें
गरीबों की खुशहाली, उनके स्वास्थ्य, आवास और शिक्षा की समस्याओं के समाधान के लिए
करना चाहिए। नागरिकों का जीवन स्वस्थ और सुखद होगा तो वे अनेक मंगल अभियान
भेजेंगे। यह तर्क अपनी जगह सही है, पर हमें अपनी प्राथमिकताओं पर विचार करना होगा।
आखिर हम करना क्या चाहते हैं? क्या हाईएंड तकनीक हासिल करने
की कोशिशें बंद कर देनी चाहिए? ऊँची इमारतें बनाने की तकनीक
विकसित करना बंद करना चाहिए, क्योंकि लोगों के पास रहने को झोंपड़ी भी नहीं है। शहरों
में मेट्रो की क्या ज़रूरत है, जबकि गाँवों में पैदल चलने लायक सड़कें नहीं हैं। बसें
और मोटर गाड़ियाँ बनाना बंद कर देना चाहिए? इनसे रिक्शा
चलाने वालों की रोज़ी पर चोट लगती है। यह बातें गलत नहीं हैं, पर व्यावहारिक सच यह
है कि हम तकनीकी प्रतियोगिता में पीछे नहीं रह सकते। अपनी फटेहाली का समाधान हमें
जिस स्तर पर करना चाहिए, वहाँ पूरी शिद्दत से काम किया जाना चाहिए। ऊँची तकनीक का
हमारी गरीबी से बैर नहीं है। मोबाइल टेलीफोन शुरू में अमीरों का शौक लगते थे, पर
आज गरीबों का मददगार है।
भारत के मुकाबले नाइजीरिया गरीब देश है। उसकी तकनीक भी
विकसित नहीं है। पर इस वक्त नाइजीरिया के तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर
लगा रहे हैं। सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के
प्रयास में है। उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की
जानकारी देने का काम कर रहे हैं। नाइजीरिया ने शुरू में ब्रिटेन, रूस और बाद में
चीन की मदद ली है। उसके पास न तो रॉकेट हैं और न रॉकेट छोड़ पाने की तकनीक, पर वह
अंतरिक्ष कार्यक्रम का लाभ लेना चाहता है। उसकी ज़मीन के नीचे पेट्रोलियम है। उसकी
तलाश से जुड़ी और सागर तट के प्रदूषण की जानकारी उसे उपग्रहों से मिलती है।
नाइजीरिया के अलावा श्रीलंका, बोलीविया और बेलारूस जैसे छोटे देश भी अंतरिक्ष
विज्ञान में आगे रहने को उत्सुक हैं। दुनिया के 70 देशों में अंतरिक्ष कार्यक्रम
चल रहे हैं, हालांकि प्रक्षेपण तकनीक थोड़े से देशों के पास ही है।
हाल में उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान लेता।
पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना
मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया। 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार
से ज्यादा लोग मरे थे। भारत में आई सुनामी के बाद राहत कार्य चलाने में नाइजीरिया
के उपग्रहों ने भी मदद की थी। अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का
इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार यहाँ तक कि सुरक्षा में होता। कहा जाता है कि
चंद्रमा पर 40 साल पहले ही सारी खोज हो गई, अब वहाँ क्या मिलेगा? पर चन्द्रयान-1 ने बताया कि चन्द्रमा पर कभी पानी था। विज्ञान
की खोज चलती रहेगी, पर उसकी सीढ़ियाँ हैं। हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत कर सकें
उतना अच्छा। यदि हम इन खोजों को बंद कर दें तब भी सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों
को तेजी मिल जाएगी, इस बात की क्या गारंटी? मोटा अनुमान है
कि भारत के लोग हर साल तकरीबन 5,000 करोड़ रुपए की आतिशबाजी फूँक देते हैं। ऐसे में
450 करोड़ रुपए का मंगल अभियान क्या फिजूल खर्च कहलाएगा?
Box.1
जहाँ अरबों साल पहले पानी था
एचजी वेल्स के उपन्यास ‘वॉर ऑफ द वर्ल्ड्स’
मे पृथ्वी पर मंगल के निवासियों का हमला दिखाया गया था। 30
अक्तूबर 1938 को सीबीएस रेडियो पर अनाउंसर आर्सन वेलेस ने घोषणा की कि धरती पर
मंगल ग्रह के निवासियों ने हमला बोल दिया है। इसे सुनते ही अमेरिका में हड़कम्प मच
गया है। इसी तरह सन 1950 में कुछ लोगों ने मंगल ग्रह पर अंग्रेजी का विशाल ‘एम’ बना देखा। उनके अनुसार यह पृथ्वी के
लोगों के लिए मंगल वासियों का संदेश था। अंग्रेजी का ‘एम’ मार्स शब्द का पहला अक्षर था। मान लिया गया कि मंगल के निवासी अंग्रेज़ी
जानते हैं। नकारात्मक सोच वालों के लिए यह ‘एम’ नहीं ‘डब्ल्यू’ था यानी ‘वॉर’। मंगल पर ज्वालामुखियों के चार शिखर ‘एम’ जैसी आकृति बना रहे थे। विज्ञान-कथाओं का सबसे
लोकप्रिय विषय है मंगल।
अब हम मुतमईन हैं कि मंगल क्या हमारे सौर मंडल में कहीं
जीवन नहीं है। फिर भी मंगल का महत्व है। धरती के साथ मंगल की अनेक समानताएं हैं।
दोनों ठोस चट्टानों वाले स्थलीय ग्रह हैं। दोनों के बर्फ वाले दो ध्रुव हैं। दोनों
के दिन तकरीबन बराबर होते हैं और मौसम भी मिलते जुलते होते हैं। वहाँ पानी की
सम्भावना को देखते हुए सूक्ष्म जीवन की सम्भावना है। पानी वहाँ गैस को रूप में है।
वहाँ हल्का सा वायुमंडल भी है। माना जाता है कि धरती पर जीवन मंगल से ही आया है। खासतौर
से हमारे मंगल अभियान के कारण हमारा ध्यान इस तरफ गया है। इसकी सतह का लाल- नारंगी
रंग लौह आक्साइड (फेरिक ऑक्साइड) के कारण है, जिसे हम जंग कहते हैं। इसीलिए इसे लाल ग्रह कहते हैं। हम जानते हैं कि हमारी
धरती दूसरे ग्रहों के साथ सूरज की परिक्रमा करती है। इस परिक्रमा का यात्रा पथ
किसी का बड़ा है और किसी का छोटा।
मंगल और हमारे बीच दूरी घटती बढ़ती रहती है। हर दो साल में
मंगल पृथ्वी के करीब आता है। इसे मंगल की वियुति कहते हैं। पन्द्रह से सत्रह साल
में यह सबसे करीब यानी साढ़े पाँच करोड़ किलोमीटर की दूरी पर होता है। इसे महान
वियुति कहते हैं। जब सबसे दूर होता है तब वह दूरी तकरीबन 40 करोड़ किलोमीटर होती
है। हमारे मंगलयान को मंगल की कक्षा में पहुँचने के लिए तकरीबन 69 करोड़ किलोमीटर
की यात्रा करनी होगी। सवाल किया जा सकता है कि जब वह साढ़े पाँच करोड़ किलोमीटर
दूर हो तभी क्यों न सीधे वहीं तक यान पहुँचा दिया जाए? यह सवाल जितना सरल है उत्तर उतना आसान नहीं है। यान को धरती
के प्रभाव को छोड़ने के अलावा कई प्रकार के अन्य प्रभावों का सामना भी करना होगा।
अंतरिक्ष की रेलगाड़ियाँ सीधी रेखा में नहीं चलतीं। हमें यान को सूर्य की कक्षा
में ले जाना होगा। पर इन कार्यों के लिए काफी ईंधन चाहिए। मंगलयान को एक कक्षा से
दूसरी कक्षा में प्रवेश के लिए कई बार मोटर चलाना होगा। इन सबका गणित बेहद जटिल
है।
मंगल के दो चंद्रमा हैं फ़ोबोस और डेमोस हैं। फ़ोबोस
धीरे-धीरे मंगल की ओर झुक रहा है, हर सौ साल में
ये मंगल की ओर 1.8 मीटर झुक जाता है। अनुमान है कि 5 करोड़ साल में फ़ोबोस या तो
मंगल से टकरा जाएगा या फिर टूट जाएगा और मंगल के चारों ओर एक रिंग बना लेगा।
फ़ोबोस पर गुरुत्वाकर्षण धरती के गुरुत्वाकर्षण का एक हजारवाँ हिस्सा है। यानी कि
धरती पर अगर किसी व्यक्ति का वज़न 68 किलोग्राम है तो उसका वज़न फ़ोबोस पर 68
ग्राम होगा। मंगल आकार में धरती से छोटा है। माना जाए कि सूरज एक दरवाज़े जितना
बड़ा है तो धरती एक सिक्के की तरह होगी और मंगल एक एस्पिरीन टैबलेट की तरह होगा।
मंगल का एक दिन 24 घंटे से थोड़े ज़्यादा का होता है. मंगल सूरज की एक परिक्रमा
धरती के 687 दिन में करता है। यानी मंगल का एक साल धरती के 23 महीने के बराबर
होगा. वैज्ञानिक मानते हैं कि मंगल पर करीब साढ़े तीन अरब साल पहले भयंकर बाढ़ आई
थी। कोई नहीं जानता कि पानी कहां से आया था, कितने समय तक रहा और कहां चला गया।
मंगल सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है। सौरमंडल के ग्रह दो
तरह के होते हैं स्थलीय ग्रह, जिनमें ज़मीन और चट्टानें होती है और गैसीय ग्रह
जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसका वातावरण विरल है। इसकी सतह देखने
पर चंद्रमा के गड्ढों और पृथ्वी के ज्वालामुखियों, घाटियों,
रेगिस्तान और ध्रुवीय बर्फीली चोटियों की याद दिलाती है।
हमारे सौरमंडल का सबसे ऊँचा पर्वत ओलिम्पस मंगल पर ही है। आसपास के मैदानी क्षेत्र
से इसकी चोटी की ऊँचाई करीब 24 किलोमीटर है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का अपनी धुरी पर घूमना और मौसमी चक्र धरती जैसा है। इस
समय मंगल ग्रह की परिक्रमा चार यान मार्स ओडिसी, मार्स एक्सप्रेस, मार्स ऑर्बिटर और रिकॉनेसां ऑर्बिटर कर रहे है। दो अन्वेषण
रोवर (स्पिरिट और अपरच्युनिटी), लैंडर फीनिक्स, के साथ ही कई निष्क्रिय रोवर्स और लैंडर हैं जो या तो असफल
हो गए हैं या उनका अभियान पूरा हो गया है।
Box.2
अभियानों का इतिहास
1964 अमेरिका ने मैरिनर-4 यान भेजा जो मंगल के पास से
गुज़रा और कुछ तस्वीरें भेजीं।
1971 सोवियत संघ का यान मार्स-3 मंगल पर उतरा। इसने पन्द्रह
सेकंड तक संकेत भेजे फिर शांत हो गया।
अमेरिका ने मैरिनर-9 भेजा, जो जिस वक्त इस ग्रह की कक्षा
में पहुँचा मंगल पर भयानक धूल भरी आँधियाँ चल रहीं थीं। ऑर्बिटर ने जो तस्वीरें
भेजीं उनसे वहाँ का ज्वालामुखी शिखर ओलिम्पस मॉन का पता लगा जो हमारे एवरेस्ट से
तीन गुना ऊँचा है। यहाँ 4000 किलोमीटर लम्बी गहरी खाइयों की श्रृंखला भी है। इसके
मुकाबले अमेरिकी की ग्रैंड कैनन बच्ची लगेगी।
1975 में अमेरिका ने एक के बाद एक वाइकिंग-1 और वाइकिंग-2
को छोड़ा। इनके लैंडर 20 जुलाई और 3 सितम्बर को मंगल पर उतरे। इन्होंने कई तरह के
नमूने लिए ताकि रता लग सके कि वहाँ किसी प्रकार का जीवन तो नहीं है।
1988 सोवियत संघ ने दो यान फोबोस-1 और फोबोस-2 भेजे, जो
विफल रहे।
1992 में अमेरिका ने वाइकिंग-1 और वाइकिंग-2 यान भेजे जो
मंगल तक पहुँच नहीं पाए।
1996 अमेरिका ने ऑर्बिटर मार्स ग्लोबल सर्वेयर भेजा जो काफी
सफल रहा। इसकी भेजी तस्वीरों से मंगल की सतह के बारे में काफी जानकारियाँ मिलीं।
उसी साल अमेरिका ने मार्स पाथफाइंडर भेजा जो रोबोटिक रोवर
सोजर्नर के साथ मंगल पर उतरा। दोनों ने काफी सूचनाएं भेजीं। रूस ने भी मंगल की और
अपना यान भेजा, पर वह धरती की कक्षा के बाहर ही नहीं निकल पाया।
1998 में जापान ने अपने यान नोज़ोमी को मंगल की कक्षा में
स्थापित करने की कोशिश की, पर उसे सफलता नहीं मिली।
1999 अमेरिका के दो यान मंगल पर उतरने की कोशिश में ध्वस्त
हो गए। मार्स क्लाइमेट ऑर्बिटर के साथ सम्पर्क टूट गया और मार्स पोलर लैंडर उतरने
की कोशिश में ध्वस्त हो गया।
2001 अमेरिका ने ओडिसी ऑर्बिटर भेजा जो आज भी काम कर रहा
है।
2003 में यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने मार्स एक्सप्रेस नाम से
यान भेजा जिसका लैंडर बीगल-2 ध्वस्त हो गया। मार्स एक्सप्रेस ने अलबत्ता कुछ
तस्वीरें भेजीं।
2004 अमेरिका ने दो रोवर स्पिरिट और अपरच्युनिटी भेजे।
स्पिरिट ने मंगल पर प्रयोग किए और आठ साल तक तस्वीरें भेजीं। अपरच्युनिटी अब भी
काम कर रहा है।
2005 में अमेरिका ने मार्स रिकॉनेसां ऑर्बिटर भेजा जो आज भी
सक्रिय है।
2008 अमेरिका ने मार्स फीनिक्स भेजा, जो मंगल के उत्तरी
ध्रुव क्षेत्र में उतरा।
2011 रूस ने फोबोस-ग्रंट नाम से अभियान भेजा। 8 नवम्बर को
छोड़े गए इस अभियान का लक्ष्य था मंगल पर उतर कर वहाँ से वापस आने वाली कैपस्यूल
पर मिट्टी के नमूने धरती पर लाना। इस मिशन में चीनी उपकरण भी थे। बहरहाल प्रक्षेपण
के बाद इस अभियान के इंजनों ने काम करना बंद कर दिया। उसी साल अमेरिका ने मार्स
साइंस लैब और उसके रोवर क्यूरॉसिटी को भेजा जो काफी सफल रहा।
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